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अभय कुमार दुबे
वरिष्ठ पत्रकार
हिंदी इस देश की सबसे बड़ी भाषा है। सबसे ज्यादा लोग इसे बोल-समझ सकते हैं। इसकी इस हैसियत के कुछ बुनियादी संरचनात्मक कारण हैं। 1961 की जनगणना में कोई 30.4 फीसदी लोगों ने हिंदी को अपनी मातृभाषा बताया था। इसमें अगर उर्दू और हिंदुस्तानी के आंकड़े भी जोड़ दिए जाएं तो यह प्रतिशत 35.7 तक पहुंच जाता है। जाहिर है कि हिंदी आधे से ज्यादा भारतवासियों की भाषा नहीं थी, फिर भी उसे बोलने-बरतने वालों की संख्या बहुभाषी नजारे में बहुत अधिक थी।
हिंदीवालों की इस एकमुश्त अधिकता और उसके कारण बने सेवाओं और उत्पादों के विशाल बाजार के आधार पर व्यापारियों, उद्योगपतियों, श्रमिकों, सिपाहियों, साधु-संतों और मुसाफिरों के बीच हिंदी एक तरह के ‘मल्टीप्लायर इफेक्ट’ की तरह थी। यह इफेक्ट हिंदी को एक संपर्क-भाषा के तौर पर विकसित करने का आधार बनाता था। उसी समय हिंदी-विरोध का गढ़ बन चुके तमिलनाडु में कोई तीस से चालीस लाख लोग हिंदी बोल-समझ लेते थे। देश के लगभग सभी हिस्सों में हिंदी की मौजूदगी किसी सरकारी आदेश का फल न होकर एक दीर्घकालीन ऐतिहासिक प्रक्रिया का परिणाम थी। औद्योगीकरण, शहरीकरण और आव्रजन का बढ़ता हुआ सिलसिला हिंदी का प्रसार कर रहा था। ओडिशा के राउरकेला स्टील प्लांट में काम करने वाले अंग्रेजी न जानने वाले मजदूर आपस में हिंदी में बातचीत करते थे, न कि ओड़िया में।
बंबई की सार्वदेशिकता ने एक भाषा के रूप में हिंदी को अपना लिया था। अंडमान में रहने वाले हिंदी, मलयालम, बंगाली, तमिल और तेलुगुभाषी लोगों ने आपसी संपर्क के लिए हिंदी को स्वीकार कर लिया था। साठ के दशक के बाद से गुजरे साठ सालों में हुए हर परिवर्तन ने हिंदी को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया है। मसलन, साक्षरता बढ़ी तो हिंदी को लाखों-करोड़ों नये पाठक प्राप्त हुए। जब छापेखाने की प्रौद्योगिकी में कम्प्यूटर और आॅफसेट का बोलबाला हुआ तो सबसे ज्यादा प्रसार संख्या हिंदी अखबारों की बढ़ी। जिसे ‘न्यूजपेपर रिवोल्यूशन’ कहा जाता है, उसके शीर्ष पर हिंदी ही दिखाई दे रही है और तो और, पहले अंग्रेजी का अखबार निकालने वाले घराने ‘कृपापूर्वक’ हिंदी का अखबार भी निकालते थे, लेकिन हिंदी के इस नए जमाने में मुख्य तौर पर हिंदी की पत्रकारिता करने वाले बड़े समूह अंग्रेजी का भी अखबार निकालने लगे हैं। हिंदी के जिस ‘बूम’ की यहां चर्चा हो रही है, अगर विज्ञान की दुनिया के गुरुओं से पूछा जाए तो वे बताएंगे कि यह ‘बूम’ अभी तीस साल तक और जारी रहेगा।
हिंदी के पाठक भी बढ़ते रहेंगे, हिंदी के दर्शकों की संख्या में भी बढ़ोत्तरी होगी, और हिंदी के श्रोता भी पहले से कहीं ज्यादा होंगे। चौदह सितंबर को हर साल की तरह सारे देश में हिंदी दिवस मनाया गया। जैसा कि हमें पता है कि इस दिन हिंदी को भारतीय संघ की राज-भाषा बनाया गया था। हिंदी के उत्साही समर्थक इसे अपनी भाषा की बहुत बड़ी उपलब्धि मानते हैं। असलियत यह है कि हिंदी को संविधान ने राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं दिया था। दरअसल संविधान की भाषाई अनुसूची में दर्ज सभी भाषाओं का भारतीय राज्य के संसाधनों पर उतना ही अधिकार है, जितना हिंदी को। हिंदी को मुगालता यह हुआ कि अंग्रेजी में तैयार राजकाज चलाने के नियम-कानूनों और संहिताओं का अनुवाद करके उसका काम चल जाएगा। इस गलतफहमी के चलते हिंदी ने मान लिया (या उसके पैरोकारों को समझा दिया गया) कि वह साहित्य, पत्रकारिता और मनोरंजन की दुनिया में मौलिक सृजन करती रहेगी, लेकिन राज्य-निर्माण और ज्ञानोत्पादन के क्षेत्र में अंग्रेजी से अनुवाद में सीमित बनी रहेगी। हुआ यह है कि हिंदी अन्य भारतीय भाषाओं के साथ अंतरविरोध में चली गई, और दूसरे मोर्चे पर उसने अंग्रेजी की ‘श्रेष्ठता’ के सामने सर्मपण करके हमेशा-हमेशा के लिए अनुवादपरक बने रहने को मंजूर कर लिया। बहरहाल, हिंदी की इन समस्याओं के साथ-साथ उसकी कुछ संभावनाओं को भी रेखांकित करना जरूरी है। नब्बे के दशक में शुरू हुई भूमंडलीकरण की प्रक्रिया का अगर सबसे ज्यादा लाभ किसी भारतीय भाषा को हुआ है तो वह हिंदी है।
चूंकि हिंदी पहले से ही मनोरंजन, साहित्य, पत्रकारिता और राजनीतिक विमर्श की सबसे बड़ी भाषा थी, इसलिए जैसे ही बाजारोन्मुख अर्थव्यवस्था ने अपने पंख फैलाए, हिंदी ने भी अपनी उड़ान भरी। देश के अन्य सांस्कृतिक क्षेत्रों के लोगों को लगने लगा कि अगर उन्हें व्यवसाय या रोजी-रोटी में बढ़ोत्तरी के लिए अपने दायरे से निकल कर अखिल भारतीय स्तर पर कुछ करना है तो हिंदी का कुछ न कुछ ज्ञान आवश्यक है। दरअसल, हिंदी के विरोध के लिए चर्चित तमिलनाडु में ही नहीं, बाकी दक्षिण भारत में भी हिंदी ने अपनी उपस्थिति पहले से कहीं बेहतर की है।
कश्मीर से कन्याकुमारी तक किसी भी तरह की जांच-पड़ताल कर लीजिए, अंग्रेजी के बढ़ते महत्व और दायरे के बावजूद यह हर जगह सुनने को मिलेगा कि देश में अगर किसी भारतीय जड़ों वाली भाषा के भौगोलिक दायरे का प्रसार हुआ है तो वह हिंदी ही है। और, अगर अंग्रेजी को कोई भाषा ‘मास्टर लैंग्वेज’ बनने से रोक सकती है तो हिंदी ही है।
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