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Supreme Court UAPA Judgement: सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि केंद्र सरकार द्वारा गैरकानूनी घोषित संगठन की सदस्यता लेना गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) के तहत अपराध गठित करने के लिए पर्याप्त है। जस्टिस एमआर शाह , सीटी रविकुमार और संजय करोल की खंडपीठ ने यूएपीए की धारा 10(ए)(i) की वैधता को बरकरार रखा।
विशेष रूप से, कोर्ट ने अपने 2011 के निर्णयों में शीर्ष अदालत द्वारा अमेरिकी अदालत के फैसलों पर किए गए भरोसे का भी जिक्र किया। कोर्ट ने कहा “अरुप भुइयां और रानीफ मामले में इस अदालत ने भारतीय मामले और मतभेदों पर भरोसा किए बिना अमेरिकी मामलों का हवाला दिया था, इस प्रकार इस अदालत ने अमेरिकी फैसलों का पालन किया जिससे हम सहमत नहीं हैं।”
कोर्ट ने यह भी कहा कि हम यह नहीं कहते हैं कि संयुक्त राज्य अमेरिका की सुप्रीम कोर्ट के फैसले हमारा मार्गदर्शन नहीं कर सकते लेकिन भारतीय अदालतों को दो देशों के बीच कानूनों की प्रकृति में अंतर पर विचार करने की आवश्यकता है। 2011 में, जस्टिस मार्कंडेय काटजू और ज्ञान सुधा मिश्रा की खंडपीठ ने आतंकवादी और विघटनकारी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (टाडा) के तहत अपराधों के लिए एक अरूप भुइयां और उसके तुरंत बाद इंद्र दास को बरी कर दिया था। शीर्ष अदालत ने माना था कि टाडा अदालत ने एक कथित स्वीकारोक्ति बयान पर भरोसा किया था और अधिनियम के तहत एक प्रतिबंधित संगठन की सदस्यता मात्र सजा के लिए आधार नहीं हो सकती।
2011 की खंडपीठ ने केरल राज्य बनाम रानीफ के साथ-साथ अमेरिकन बिल ऑफ राइट्स और कुछ अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का हवाला टाडा अधिनियम के संदर्भ में दिया था। 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि तीनों मामलों में बड़े मुद्दे की सुनवाई एक बड़ी पीठ द्वारा की जानी चाहिए।
केंद्र सरकार और कुछ राज्य सरकारों ने तर्क दिया कि अमेरिकी बिल ऑफ राइट्स पर भरोसा करके प्रावधान को प्रभावी ढंग से देखा गया था, इस प्रकार आतंकवाद से निपटने में बाधा उत्पन्न हुई क्योंकि वह यूएपीए के मामले भी शीर्ष अदालत की व्याख्या से प्रभावित हो रहे थे। केंद्र सरकार ने तर्क दिया कि न्यायालय उसकी दलीलों को सुने बिना और कानून के संभावित दुरुपयोग पर भरोसा करके एक आतंकवाद विरोधी कानून के प्रावधानों को नहीं देख सकता है। केस को अरुप भुइयां बनाम असम राज्य गृह विभाग और अन्य के नाम से जाना गया।
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