इंडिया न्यूज़ : खालिस्तानी कट्टरपंथी अमृतपाल सिंह की गिरफ्तारी की अटकलों के बीच पंजाब पुलिस की कई टीमें उसके अलग-अलग ठिकानों पर लगातार छापेमारी कर रही हैं। हालांकि, अब तक अमृतपाल पर पंजाब पुलिस के हाथ खाली है। पंजाब पुलिस के 80 , 000 जवानों को अब तक उसे पकड़ने में कामयाबी नहीं मिल पाई है। मालूम हो, भगोड़े अमृतपाल के खिलाफ छह एफआईआर के अलावा नेशनल सिक्योरिटी एक्ट भी लगे है। फिर भी अबतक वो पंजाब पुलिस की गिरफ्त से बाहर है। पुलिस के हाथ लग रहा है तो सिर्फ अमृतपाल का सीसीटीवी वीडियो। इस बीच उसके नेपाल में देखे जाने की खबरें भी आ रही है।
अमृतपाल नेपाल में हैं तो भारत क्यों नहीं लाया जा रहा
अब यहाँ सवाल उठता है कि जब भगोड़े अमृतपाल के नेपाल में होने की खबरों में थोड़ा भी दम है तो हम उसे नेपाल से पकड़कर भारत क्यों नहीं लाया जा रहा है? क्या भारत और नेपाल के बीच प्रत्यर्पण संधि नहीं है? अगर है तो क्या उसमें कोई ऐसा पेंच है, जो उसके जैसे अपराधियों के प्रत्यर्पण में अड़चन डालता है? भारत में अपराध करना वाला आखिर क्यों अपनी जान बचने के लिए सबसे पहले नेपाल की शरण लेता है।
समझें, प्रत्यर्पण संधि
बता दें, प्रत्यर्पण संधि दो देशों के बीच हुआ ऐसा समझौता है, जिसके मुताबिक देश में अपराध करके दूसरे देश में छुपने वाले अपराधी को पकड़कर पहले देश को सौंपा दिया जाता है। भारत की 48 देशों के साथ प्रत्यर्पण संधि है। यही नहीं, केंद्र सरकार कई अन्य देशों के साथ भी प्रत्यर्पण संधि की कोशिशों में जुटी हुई है। मालूम हो, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई देशों के बीच इस तरह की संधि है ताकि उनके भगोड़े अपरोधियों को छुपने की जगह ना मिले। इस संधि के तहत आतंकवादी, जघन्य अपराधी और आर्थिक अपराधियों समेत कई तरह के मामलों में दूसरे देशों से मदद मिलती है।
नेपाल के साथ नहीं है प्रत्यर्पण संधि?
बता दें, भारत के पडोसी देश नेपाल के साथ इस संधि की बात करे तो ये संधि नहीं होने जैसी ही है। मालूम हो, नेपाल की कोइराला सरकार ने भारत के साथ अक्टूबर 1953 में प्रत्यर्पण संधि की थी। बाद में इसमें संशोधन की जरूरत महसूस की गई। साल 2006 के बाद से कई बार दोनों देश संधि में संशोधन के करीब तो पहुंचे, लेकिन अमल में नहीं ला पाए। भारत-नेपाल ने 2005 में नई प्रत्यर्पण संधि पर हस्ताक्षर किए थे, जिसमें आतंकवादियों और आर्थिक अपराधियों के प्रत्यर्पण की व्यवस्था की गई थी। उस समय माना गया था कि इससे नई चुनौतियों और नेपाल व भारत के कुछ हिस्सों में माओवादी हिंसा से निपटने में मदद मिलेगी। हालांकि, बाद में इसमें संशोधन की जरूरत महसूस की गई।