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India News (इंडिया न्यूज), Chhattisgarh News: विश्व प्रसिद्ध ऐतिहासिक बस्तर दशहरा जारी है। देशभर में सबसे ज्यादा 75 दिनों तक मनाया जाने वाला बस्तर दशहरा इस साल 107 दिनों का है। करीब 611 सालों से बस्तर दशहरा लगातार मनाया जा रहा है। मालूम हो कि बस्तर में रावण का दहन नहीं किया जाता, बल्कि 8 चक्के वाले विशालकाय रथ में बस्तर की आराध्य देवी माईं दंतेश्वरी के छत्र को सवार करके शहर की परिक्रमा करवाई जाती है।
यही कारण है कि इस दशहरा पर्व को करीब से देखने हर साल देश ही नहीं, बल्कि विदेशी पर्यटक भी सैकड़ों की संख्या में बस्तर पहुंचते हैं। दरअसल हरियाली अमावस्या के दिन से शुरू होने वाला बस्तर दशहरा माईं जी की डोली विदाई के साथ संपन्न होता है।
बस्तर दशहरा की पहली रस्म होती है ठुरलू खोटला पूजा विधान
बस्तर दशहरा की पहली रस्म हरियाली अमावस्या के दिन होती है, जहां परंपरा के अनुसार बिरिंगपाल गांव से दशहरा के रथ निर्माण के लिए पहली लकड़ी लाई जाती है। इस लकड़ी को ठुरलू खोटला कहा जाता है और रथ कारीगर इसी लकड़ी से रथ का निर्माण करने औजार बनाते हैं। हरियाली अमावस्या के दिन विधि विधान से पूजा के बाद बकरा व मोंगरी मछली की बलि दी जाती है।
डेरी गड़ाई के बाद शुरू होता है बस्तर दशहरा रथ निर्माण
बस्तर दशहरा की दूसरी अहम रस्म डेरी गड़ाई होती है, जिसके बाद रथ निर्माण शुरू किया जाता है। करीब 611 वर्षों से चली आ रही इस परंपरा अनुसार जंगलों से सरई के पेड़ की टहनियों को एक विशेष स्थान पर स्थापित किया जाता है।
विधि विधान के साथ पूजा अर्चना कर इस रस्म की अदायगी में अंडे और जीवित मछली की बलि देकर की जाती है। इसके बाद जंगलों से रथ बनाने ग्रामीण लकड़ी लाने की प्रक्रिया शुरू कर देते हैं।
बेल के कांटों के झूले पर लेटकर बस्तर दशहरा मनाने की अनुमति देती हैं काछन देवी। बस्तर दशहरा आरंभ करने के लिए देवी की अनुमति ली जाती है। बस्तर में अनुमति लेने की यह परंपरा अपने आपमें अनूठी है। काछनगादी नामक इस रस्म में एक बच्ची बेल के कांटों के झूले पर लेटकर दशहरा पर्व शुरू करने की अनुमति देती हैं।
मान्यताओं के अनुसार कांटों के झूले पर लेटी कन्या में साक्षात देवी आकर इस पर्व को आरंभ करने की अनुमति देती है। बस्तर का महापर्व दशहरा बिना किसी बाधा के संपन्न हो, इस आशीर्वाद के लिए काछनदेवी की पूजा होती है। काछनदेवी के रूप में अजा वर्ग में मिरगान जाति के एक विशेष परिवार की बच्ची को तैयार किया जाता है।
9 दिनों तक निराहार रहकर माईं जी की साधना में लीन हो जाते हैं जोगी
बस्तर दशहरा में चौथी रस्म जोगी बिठाई की होती है, जिसमें परंपरा अनुसार एक विशेष जाति का युवक 9 दिनों तक निर्जला उपवास रखकर सिरहासार भवन स्थित एक निश्चित स्थान पर तपस्या हेतु बैठता है।
इस तपस्या का मुख्य उद्देश्य बस्तर दशहरा पर्व को शांतिपूर्वक निर्बाध रुप से संपन्न कराना होता है। जोगी बिठाई रस्म में जोगी से तात्पर्य योगी से है। इस रस्म के साथ एक किवदंती जुड़ी हुई है। ऐसा माना जाता है कि सैकड़ों सालों पहले दशहरा के दौरान हल्बा जाति का एक युवक जगदलपुर स्थित महल के नजदीक तप की मुद्रा में निर्जल उपवास पर बैठ गया था।
दशहरा के दौरान 9 दिनों तक बिना कुछ खाए पिये मौन अवस्था में युवक के बैठे होने की जानकारी जब तत्कालीन महाराजा को मिली, तब वे स्वयं उससे मिलने पहुंचे और तप पर बैठने का कारण पूछा। तब योगी ने बताया कि उसने दशहरा पर्व को निर्विघ्न, शांतिपूर्वक रुप से संपन्न कराने के लिए यह तप किया है। इसके बाद से राजा ने योगी के लिए सिरहासार भवन का निर्माण करवाया और इस परंपरा को आगे बढ़ाया।
फूल रथ में सवार होकर माईं जी करती हैं शहर की परिक्रमा
बस्तर दशहरा पर्व में फूल रथ की परिक्रमा भी अहम रस्म है। इसमें बस्तर के आदिवासी पारंपरिक तरीके से लकड़ी के 30 फीट ऊंचे रथ पर सवार माईं दंतेश्वरी के साथ शहर की परिक्रमा करवाते हैं। सरई की लकड़ियों से विशेष रूप से बेड़ाउमरगांव, झाड़उमरगांव के ग्रामीण 14 दिनों में रथ का निर्माण करते हैं।
करीब 30 टन वजनी इस रथ को खींचने के लिए सैकड़ों लोगों की जरूरत पड़ती है। इसे बस्तरवासी मिलकर पूरे उत्साह के साथ अपने हाथों से खींचते हैं। बस्तर दशहरा की रस्म की शुरुआत 1420 ईस्वी में तत्कालिक महाराजा पुरुषोत्तम देव ने करवाई थी। महाराजा पुरुषोत्तम ने जगन्नाथपुरी जाकर रथपति की उपाधि ली थी, जिसके बाद से ये परंपरा अनवरत जारी है।
बेल जात्रा में बेल जोड़ा लेने पहुंचते हैं राजपरिवार के सदस्य बस्तर दशहरा की महत्वपूर्ण रस्म बेल जात्रा पूजा विधान है। जिसमें शहर से ग्राम सरगीपाल के बेल चबूतरा में राजपरिवार पहुंचकर पूजा अर्चना कर बेल जोड़ा लेकर आते हैं। मान्यता है कि महाराजा और महारानी इस इलाके में जब भी शिकार पर पहुंचते थे, तब यहां से चीजें अदृश्य हो जाती थी। इसके बाद से उन्हें ऐसा लगा कि यहां दिव्यशक्ति है और प्रतिवर्ष केवल एक ही ऐसा दिन होता है, जहां एक पेड़ पर एक साथ दो बेल जोड़े के रूप में दिखाई देते हैं।
यही कारण है कि राजपरिवार यहां पहुंचता है और ग्रामीण गाजे-बाजे के साथ उनका स्वागत करते हैं। साथ ही इस दौरान सभी को हल्दी भी लगाई जाती है। इसके बाद राज परिवार के सदस्य पेड़ में चढ़कर इस बेल को तोड़ते हैं और बस्तर की आराध्य देवी दंतेश्वरी के चरणों पर लाकर अर्पित करते हैं।
आधी रात बकरों की बलि के साथ होता है निशा जात्रा बस्तर दशहरा में निशा जात्रा का भी अपना महत्व है। इसे काले जादू की रस्म भी कहा जाता है। प्राचीन काल में इस रस्म को राजा-महाराजा बुरी आत्माओं व प्रेतों से अपने राज्य की रक्षा के लिए निभाते थे। इसमें हजारों बकरों, बैलों यहां तक की नरबलि भी दी जाती थी। लेकिन अब केवल 11 बकरों की ही बलि देकर इस रस्म की अदायगी देर रात शहर के अनुपमा चौक स्थित गुड़ी मंदिर में होती है।
बस्तर दशहरा में मावली परघाव की रस्म बेहद महत्वपूर्ण है। दो देवियों के मिलन की इस रस्म को जगदलपुर के दंतेश्वरी मंदिर के प्रांगण में अदा की जाती है। परंपरा के अनुसार इस रस्म में शक्तिपीठ दंतेवाड़ा से मावली देवी की छत्र और डोली को जगदलपुर के दंतेश्वरी मंदिर लाया जाता है। इसका स्वागत बस्तर के राजपरिवार के सदस्यों के साथ ही बस्तरवासियों द्वारा भव्य रूप से किया जाता है।
नवरात्रि की नवमीं पर होने वाली इस रस्म को देखने जनसैलाब उमड़ पड़ता है। मान्यता है कि 611 वर्ष पूर्व रियासत काल से इस रस्म को धूमधाम से मनाया जाता है। बस्तर के महाराजा रूद्र प्रताप सिंह द्वारा डोली का भव्य स्वागत किया जाता था।विजयादशमी पर माईं जी का रथ हो जाता है चोरी, मनाई जाती है भीतर रैनी रस्म
दशहरा में विजयदशमी के दिन भीतर रैनी रस्म होती है। मान्यताओं के अनुसार आदिकाल में बस्तर असुरों की नगरी हुआ करती थी। यही वजह है कि शांति, अहिंसा और सद्भाव के प्रतीक बस्तर दशहरा पर्व में रावण का पुतला दहन नहीं किया जाता। भीतर रैनी रस्म में रथ परिक्रमा पूरी होने पर आधी रात को इसे चुराकर माड़िया जाति के लोग शहर से लगे कुम्हड़ाकोट ले जाकर छिपा देते हैं। बताया जाता है कि राजशाही युग में राजा से असंतुष्ट लोगों ने रथ चुराकर एक जगह छिपा दिया था।
माड़िया आदिवासियों को मनाकर रथ वापस लाते हैं राजपरिवार के सदस्य
कुम्हड़ाकोट में रथ चुराकर छिपाने के बाद राजा द्वारा कुम्हड़ाकोट पहुंचकर ग्रामीणों को मनाकर व उनके साथ भोजन करने के बाद रथ को वापस जगदलपुर लाया जाता गया था। इसी परंपरा को बाहर रैनी रस्म कहा जाता है। इसे बस्तर दशहरा में विधि विधान के साथ प्रतिवर्ष राज परिवार के सदस्य निभाते आ रहे हैं। इसी के साथ बस्तर में बाहर रैनी के दिन रथ परिक्रमा समाप्त की जाती है।
मुरिया दरबार में राजा सुनते हैं ग्रामीणों की समस्याएं बस्तर दशहरा पर्व में अगली रस्म के रूप में मुरिया दरबार लगाया जाता है। इसे शहर के सिरहसार भवन में आयोजित किया जाता है। बताया जाता है कि दशहरा पर्व के दौरान बस्तर के महाराजा ग्रामीणों के लिए दरबार लगाया करते थे, जहां वे उनकी समस्या को सुनकर निराकरण किया करते थे।
अब इस परंपरा को आगे बढ़ाते हुए सिरहासार भवन में मुरिया दरबार लगाया जाता है। इस दरबार में कुछ सालों पहले से ही प्रदेश के मुख्यमंत्री मुखिया की तौर पर आकर बैठते हैं, और बस्तर वासियों की समस्या सुनकर उसका निराकरण करते हैं। इसके अलावा इस दरबार में बस्तर के सांसद, विधायक, राजपरिवार सदस्य, दशहरा समिति के लोग, दशहरा को शांतिपूर्ण तरीके, विधि विधान के साथ पूर्ण कराने वाले मांझी-चालकी, पुजारी अन्य सेवकारी मौजूद रहते हैं।
कुटुंब जात्रा में माईं जी विदाई से पहले सभी देवी-देवताओं से करती हैं मुलाकात
दशहरा को भव्य बनाने चारों दिशाओं से अलग-अलग देवी-देवता पहुंचते हैं। इन देवी देवताओं के सहयोग से दशहरा पर्व को शांतिपूर्वक तरीके से निभाए जाने के बाद उन्हें विदाई देने के लिए जगदलपुर शहर के गीदम रोड स्थित महात्मा गांधी स्कूल परिसर में पूजा विधान का आयोजन किया जाता है। इस पूजा विधान के साथ ही उन्हें विदाई दी जाती है। इस रस्म को कुटुंब जात्रा पूजा विधान होता है।
सशस्त्र जवानों की सलामी के साथ धूमधाम से विदा होती हैं माईं दंतेश्वरी
बस्तर दशहरा का समापन दंतेवाड़ा से आईं माईं दंतेश्वरी की विदाई के साथ होती है। इस परंपरा के अनुसार माईं जी को जिया डेरा से विदा किया जाता है। इसे डोली विदाई कहा जाता है। दंतेश्वरी की डोली विदाई के साथ ही ऐतिहासिक बस्तर दशहरा पर्व का समापन किया जाता है। विदाई से पहले डोली और छत्र को स्थानीय दंतेश्वरी मंदिर के सामने बनाए गए मंच पर आसीनकर महाआरती की जाती है।
यहां सशस्त्र जवानों द्वारा सलामी देने के बाद डेढ़ किमी दूर जिया डेरा तक भव्य शोभायात्रा निकाली जाती है। बस्तर के महाराजा दंतेश्वरी मंदिर से जिया डेरा तक अपने कंधों पर माईं जी के छत्र को उठाकर पहुंचते हैं। इसके बाद जिया डेरा में पूजा विधान करने के बाद डोली की विदाई की जाती है।
इस विदाई के साथ ही 75 दिनों तक चलने वाले विश्व प्रसिद्ध ऐतिहासिक बस्तर दशहरा का समापन किया जाता है। यही कारण है कि 75 दिनों तक मनाए जाने वाले इस बस्तर दशहरा के रोचक, अनोखी रस्मों को देखने के लिए देश ही नहीं बल्कि विदेशों से भी हजारों की संख्या में पर्यटक प्रतिवर्ष बस्तर पहुंचते हैं।
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