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ईरान ने मुगलों को दिलवाई थी सत्ता फिर भी उसी से बार-बार लड़ती रही बाबर की पीढ़ियां, जानें क्या था मामला

Himanshu Pandey • LAST UPDATED : October 3, 2024, 7:26 pm IST
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ईरान ने मुगलों को दिलवाई थी सत्ता फिर भी उसी से बार-बार लड़ती रही बाबर की पीढ़ियां, जानें क्या था मामला

Mughal Safavid War

India News (इंडिया न्यूज),Mughal Safavid War: ईरान की सीमा भारत से नहीं लगती, फिर भी भारतीय संस्कृति पर इसका प्रभाव अन्य देशों की तुलना में सबसे गहरा रहा है। पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अपनी पुस्तक ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ में लिखा है कि अन्य सभी जातियों में ईरानी सबसे प्राचीन हैं और वे ही हैं जो बार-बार भारत के संपर्क में आए और इसकी संस्कृति को प्रभावित किया। मुगल काल में भी भारत और ईरान (तब फारस) कई बार संपर्क में आए। हालांकि, हर बार वे मुलाकातें मैत्रीपूर्ण नहीं रहीं।

जब भारत पर मुगलों का शासन था, तब ईरान में सफविद साम्राज्य था। सफविद ईरान के सबसे बड़े और सबसे लंबे समय तक चलने वाले साम्राज्यों में से एक था। सफविद वंश ने 1501 से 1736 तक शासन किया। मुगलों और सफविद वंश के शासकों के बीच संबंध उतार-चढ़ाव से भरे रहे हैं। लेकिन एक क्षेत्र को लेकर इन दो बड़े साम्राज्यों के बीच हमेशा तनाव रहा। वह था अफगानिस्तान का कंधार। बाबर से लेकर शाहजहां तक ​​इसे पाने के लिए कई युद्ध लड़े गए।

बाबर और ईरान के शाह के बीच गठबंधन

बता दें कि, भारत आने से पहले बाबर का मुख्य उद्देश्य समरकंद पर कब्ज़ा करना था, जिसे वह अपना पैतृक घर मानता था। उस समय समरकंद पर शैबक खान उज़बेक का शासन था। उसने समरकंद को जीतने के कई प्रयास किए लेकिन हर बार असफल रहा। फिर उसे खबर मिली कि शैबक उज़बेक को शाह इस्माइल सफ़वी के सैनिकों ने मार डाला है। अपने पैतृक घर को जीतने के लिए बाबर ने शाह सफ़वी के साथ गठबंधन किया। दोनों के बीच अच्छे संबंध विकसित हुए। जब ​​इस्माइल ने बाबर की बहन को उज़बेक के चंगुल से छुड़ाया, तो बाबर ने भी सफ़वी के दरबार में अपना दूत भेजा। बाबर ने फारस के राजा के प्रति अपनी वफ़ादारी की पेशकश की और उज़बेक को दबाने के लिए उसकी मदद मांगी। बाबर को इस्माइल से सैन्य मदद मिली लेकिन सांप्रदायिक कारणों से उनका गठबंधन टूट गया। समरकंद को जीतने की एक और नाकाम कोशिश के बाद बाबर ने हिंदुस्तान की ओर रुख किया और सुल्तान लोदी को हराकर 1526 में हिंदुस्तान में मुगल साम्राज्य की स्थापना की।

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कंधार रणनीतिक रूप से खास शहर

बाबर की मौत के बाद हुमायूं 1530 में दिल्ली की गद्दी पर बैठा। तब तक ईरान का शासक भी बदल चुका था। इस्माइल सफ़वी की जगह उसके बेटे शाह तहमास्प प्रथम ने ले ली। मुगलों और सफ़वी साम्राज्य का दूसरी बार संपर्क तब हुआ जब हुमायूं शेरशाह सूरी से बुरी तरह हारने के बाद फारस पहुंचा। वह वहां 15 साल तक रहा और फारस के राजा की मदद से 1555 में हिंदुस्तान की गद्दी पर दोबारा कब्ज़ा करने में सफल रहा। शाह तहमास्प ने हुमायूं की मदद इस शर्त पर की थी कि बदले में उसे कंधार का इलाका मिलेगा। लेकिन दिल्ली को जीतने के बाद हुमायूं अपने वादे से मुकर गया। दरअसल, उस समय कंधार रणनीतिक रूप से एक अहम शहर था।

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1556 में अकबर को सल्तनत की गद्दी मिली

हुमायूं की मौत के बाद 1556 में अकबर को सल्तनत की गद्दी मिली। तब कंधार का मुद्दा फिर से उठा। नतीजा यह हुआ कि 1558 में कंधार फारस का हिस्सा बन गया। हालांकि इतिहासकार इसके उलट दो कहानियां बताते हैं। कुछ इतिहासकारों का मानना ​​है कि सफवी के शाह तहमास ने कंधार को जीतने के लिए एक बड़ी सेना भेजी थी। वहीं, दूसरे इतिहासकारों के मुताबिक अकबर ने हुमायूं के वादे के मुताबिक कंधार को फारस के शाह को सौंप दिया था। हालांकि, अकबर ने साम्राज्य विस्तार के इरादे से 1595 में कंधार को फिर से जीत लिया।

कंधार बना विवाद की सबसे बड़ी जड़ 

कंधार को लेकर ईरान के शाह और मुगलों के बीच संघर्ष जारी रहा। जहांगीर के शासन में शाह ने कंधार पर कब्जा कर लिया था। इसकी एक बड़ी वजह जहांगीर के बेटे शाहजहां का विद्रोह था। दरअसल, जहांगीर ने कंधार की सुरक्षा के लिए शाहजहां को वहां जाने का आदेश दिया था, लेकिन राजकुमार ने मना कर दिया। यही कारण था कि जहांगीर की मृत्यु तक कंधार मुगलों के हाथ में नहीं आया।

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