India News (इंडिया न्यूज), Nitish Kumar : नीतीश कुमार ने बिहार विधानसभा में आरक्षण का दायरा बढ़ाकर अपने विरोधियों को चारों खाने चित करने की पूरी कोशिश की है। आरक्षण का दायरा 50% से बढाकर 75 फीसदी तक करने का प्रस्ताव पेश कर नीतीश कुमार ने ऐसा दांव चला जिसकी फिलहाल कोई काट नही है। इस प्रस्ताव के मुताबिक 43 ओबीसी और इबीसी के लिए जबकि 10 फ़ीसदी ईडब्ल्यूएस के लिए है। वही एससी को 20% आरक्षण और एसटी को दो फीसदी आरक्षण का लाभ दिया गया है।
बिहार में हुई जाति आधारित जनगणना की रिपोर्ट आज बिहार विधानसभा में रखा गया। बीजेपी ने शुरुआत में ही ये आरोप लगाया था कि कुछ जातियों की संख्या को बढ़ाया गया है ,वहीं कुछ को घटाया गया है। हालाकी अब चर्चा ये हो रही है की बिहार में जाति आधारित आर्थिक, सामाजिक और शैक्षिक सर्वेक्षण की रिपोर्ट जारी होने के बाद सीएम नीतीश कुमार को इससे कितना फायदा मिलेगा। यह देखना वाकई दिलचस्प होगा।
नीतीश के इस सर्वेक्षण को कामयाबी का मंत्र मानकर बीजेपी के विरोध में खड़ी आरजेडी और तमाम दल अब राष्ट्रीय स्तर पर इसकी जरूरत बताने लगे हैं। कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी पहले से ही कह रहे हैं की जातियों की संख्या के आधार पर आरक्षण तय हो। यानी नीतीश के इस मास्टर स्ट्रोक से देश भर में इंडिया गठबंधन को एक जबरदस्त मुद्दा मिला है जिसका विरोध कर अब बीजेपी आगे नहीं बढ़ सकती।
वैस बिहार की राजनीति में 80 के दशक से ही पिछड़ा वर्ग हावी है। सत्ता में पिछडे वर्ग के लोग कई बार आते-जाते रहे है। कर्पूरी ठाकुर के कार्यकाल के बाद कांग्रेस के शासन को अगर छोड़ दें तो बीते 30,32 साल से पिछडे वर्ग के लोगों के हाथों में ही बिहार की सत्ता रही है। यानी नीतिगत फैसला, विकास की जिम्मेवारी और गरीबी की असमानता मिटाने के लिए इन तमाम नेताओ को काफी वक्त मिला पर अब तक किसी ने कुछ भी नहीं किया। आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट में गरीबों के आंकड़े ये चीख-चीख कर कह रहे हैं।
लालू और नीतीश की सरकार के लिए इतना समय कम नहीं था। लेकिन असमानता की चिंता अब हो रही है। वैसे ये अच्छी बात है। जब जागो तभी सवेरा। नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव को चिंता होनी भी चाहिए। बड़ा दल है। क्षेत्रीय दल है। इनके विकास लिए,अति पिछड़े समाज के लिए,असमानता खत्म करने के लिए, इस सर्वेक्षण से शायद अब जाकर कुछ आंख खुले।
सवाल यह है कि सरकारी मदद जनता तक कैसे पहुंच रही है? नीति नियम कितना लागू हो पाया है? विभागों में बिचौलिया कितना हावी है? सत्ता के दलाल कितना सक्रिय है? समस्याऐ हल हुई या नहीं? बड़ी बात ये कि नेताओं और अफसरों में ईमानदारी कितनी है? आवश्यकता अब इन बातों की है।
हालाकी बिहार ही नहीं ये बीमारी पूरे देश भर की है। लेकिन बिहार में सवाल यह जरूर उठेगा की 2025 के विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री अति पिछड़ा वर्ग के नेता क्यों नहीं है ? ये नीतीश और तेजस्वी के लिए भारी मुसीबत पैदा कर सकता है। यानि जनता तो अब ओवरऑल देखेगी। सर्वेक्षण के मायने भी और नीयत भी सबकुछ।
ये सर्वेक्षण कहीं प्लान पर पानी ना फेर दें
लोकसभा चुनाव में ही इसका ट्रेलर देखने को मिल जायेगा। नीतीश कुमार का प्रधानमंत्री का सपना और तेजस्वी का सीएम का सपना कहीं टूट ना जाए। बिहार ही नहीं कमोवेश देश भर के दूसरे राज्यों में भी अति पिछड़ा वर्ग और ओबीसी की आबादी सबसे अधिक है। बिहार में इबीसी की आबादी के बाद ओबीसी का नंबर ही आता है।
मुस्लिम आबादी तीसरे नंबर पर करीब 19 फ़ीसदी है। यानी आने वाले दिनों में विधायकों से लेकर मुख्यमंत्री और मंत्री पद में अति पिछड़ों और मुस्लिम आबादी को प्रमुखता देनी पड़ सकती है। जिस कुर्सी की चाहत बरकरार रखने के लिए ये सर्वेक्षण हुआ कहीं नीतीश और लालू के प्लान पर ये पानी ना फेर दें।
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