India News(इंडिया न्यूज), Mahabharat: महाभारत के युद्ध के बाद बहुत से योद्धा बच गए थे। उनमें प्रमुख 18 थे। महाभारत के युद्ध के पश्चात कौरवों की तरफ से 3 और पांडवों की तरफ से 15 यानी कुल 18 योद्धा ही जीवित बचे थे जिनके नाम हैं- कौरव के : कृतवर्मा, कृपाचार्य और अश्वत्थामा, जबकि पांडवों की ओर से युयुत्सु, युधिष्ठिर, अर्जुन, भीम, नकुल, सहदेव, कृष्ण, सात्यकि आदि। लेकिन हम यहां बता रहे हैं ऐसे 9 लोगों के नाम जो महाभारत काल में थे और आज भी हैं।
महर्षि वेद व्यास का असली नाम कृष्ण द्वैपायन था। वे पराशर ऋषि और सत्यवती के पुत्र थे। उन्हें उनके वेदों को भाग करने के कारण “वेद व्यास” के नाम से जाना जाता है। महर्षि वेद व्यास ने महाभारत को भी गणेशजी के सहयोग से लिखा था। उन्हें 28वें वेद व्यास के रूप में भी जाना जाता है। धृतराष्ट्र, पांडु और विदुर को उनका पुत्र माना जाता है। उनकी कृपा से ही धृतराष्ट्र के यहां 99 पुत्र और एक पुत्री का जन्म हुआ था। महर्षि व्यास भीष्म पितामह के सौतेले भाई भी थे। उनका जन्मदिन गुरु पूर्णिमा के अवसर पर मनाया जाता है।
माना जाता है कि महर्षि वेद व्यास कलिकाल के अंत तक जीवित रहेंगे और तब वे कल्की अवतार के रूप में प्रकट होंगे। उन्होंने महाभारत युद्ध के बाद बहुत समय तक सार्वजनिक जीवन बिताया और फिर हिमालय की पर्वत श्रृंखलाओं में तपस्या की। कलियुग के शुरू होने के बाद उनके बारे में अधिक जानकारी और दस्तावेज उपलब्ध नहीं हैं।
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परशुराम का असली नाम भगवान शिव के धनुष को तोड़ने के बाद समझाया गया था। उनके पिता का नाम जमदग्नि और माता का नाम रेणुका था। वे जमदग्नि और रेणुका के पुत्र थे। परशुराम भगवान श्रीकृष्ण के प्रिय भक्त और शिव के उपासक माने जाते हैं।
महाभारत में उनका उल्लेख भीष्म पितामह के गुरु बनने और उनके साथ युद्ध के संबंध में है। वे भगवान श्रीकृष्ण को सुदर्शन चक्र और कर्ण को ब्रह्मास्त्र की शिक्षा देने के लिए भी प्रसिद्ध हैं। परशुराम को भी चिरंजीवी माना जाता है और उन्हें भी महर्षि वेद व्यास के साथ कलिकाल में कल्की अवतार के रूप में प्रकट होने का वर दिया गया है।
महर्षि दुर्वासा को उनके अत्यंत क्रोधी स्वभाव के लिए जाना जाता है। रामायण में उन्होंने राजा दशरथ के भविष्यवक्ता के रूप में भी कार्य किया था और उन्होंने रघुकुल के भविष्यवाणियां भी की थीं। उनका एक प्रसिद्ध घटना उस समय का है जब उन्होंने कुंती को मंत्र दिया था और महाभारत में द्रौपदी की परीक्षा के समय भी उन्होंने अपने दस हजार शिष्यों के साथ उनकी कुटिया पहुंचे थे। उन्होंने विभीषण को श्राप देने के साथ ही कृष्ण के पुत्र साम्ब को भी श्राप दिया था।
महाभारत काल में भी उनके बारे में कई प्रसिद्ध घटनाएँ वर्णित हैं। उन्हें भी चिरंजीवी होने का वरदान प्राप्त है।
जामवंत का जन्म सतयुग में हुआ था, जब राजा बलि के काल में उन्हें जन्मा गया था। वे त्रेतायुग में भगवान श्रीराम के साथ थे और द्वापर युग में वे श्रीकृष्ण के ससुर बने थे।
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श्रीकृष्ण ने स्यमंतक मणि के लिए जामवंत के साथ युद्ध किया था। जब श्रीकृष्ण युद्ध में जीत रहे थे, तब जामवंत ने अपने अज्ञान को समझकर श्रीराम को पुकारा और उनकी पुकार से श्रीकृष्ण ने अपने रूप में प्रकट होकर उन्हें समर्पण किया। उसके बाद, जामवंत ने मणि को श्रीकृष्ण को समर्पित किया और श्रीकृष्ण से अनुरोध किया कि वे उनकी पुत्री जाम्बवती से विवाह करें। इस घटना से साम्ब नामक पुत्र का जन्म हुआ, जिसकी माता जाम्बवती थी। जामवंत को भी चिरंजीवी होने का वरदान प्राप्त है, और मान्यता है कि वे कलिकाल में भी कल्की अवतार के समय उपस्थित रहेंगे।
हनुमानजी का प्रताप और उनकी शक्ति का वर्णन महाभारत में भी महत्वपूर्ण रूप से किया गया है। उन्होंने पांडवों को विजय प्राप्त करने में मदद की थी। जब भीम ने उनसे अपनी पूंछ हटाने का विनंती किया, तो हनुमानजी ने उसको एक सीधी और महत्वपूर्ण सीख दी थी। यह घटना उनकी अत्यंत शक्तिशाली और चतुराई को दर्शाती है, जो उन्हें चारों युगों में प्रसिद्ध बनाती है।
वास्तव में, हनुमानजी ने अपनी अनन्त भक्ति और शक्ति के कारण न केवल श्रीराम को सहायता प्रदान की, बल्कि उन्होंने महाभारत काल में भी उनके भक्तों की रक्षा की और उन्हें सफलता प्राप्त करने में मदद की। उनकी उपस्थिति और शक्ति ने वे एक महान योद्धा और भक्त होने के संकेत देती हैं।
मयासुर एक प्रसिद्ध शिल्पकार और वास्तुकार थे, जिन्होंने कई महत्वपूर्ण भवनों और सभागृहों का निर्माण किया था। महाभारत में उन्होंने युधिष्ठिर के लिए मयसभा नामक सभाभवन का निर्माण किया था, जिसे उनकी शिल्पकला और विद्या का प्रतीक माना जाता है। इसी सभा के विलक्षण वैभव ने दुर्योधन में ईर्ष्या भाव उत्पन्न किया, जो महाभारत युद्ध का मुख्य कारण बना।
मयासुर का उल्लेख रामायण और महाभारत दोनों में होता है, जिससे उनकी महानता और शिल्पकला की महत्वपूर्ण भूमिका का पता चलता है। उन्हें चिरंजीवी होने की भी मान्यता है, और कहा जाता है कि वे कलिकाल में भी उपस्थित रहेंगे।
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अश्वत्थामा महाभारत के युद्ध में एक प्रख्यात वीर और धर्मवीर माना जाता है, जिन्होंने युद्ध के अंतिम दिनों तक पांडवों के पक्ष में लड़ा। भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें अदिशक्ति और अनंत श्राप दिया था, जिसके अनुसार वे 3,000 वर्षों तक सशरीर भटकेंगे।
यह एक प्रसिद्ध मान्यता है कि अश्वत्थामा अब तक जीवित है और उन्होंने कलयुग के अंत में कल्कि अवतार के साथ धर्म के पक्ष में लड़ने की भविष्यवाणी की गई है। शास्त्रों में उनके चिरंजीवित रहने का वर्णन है, जिससे उनकी महानता और अद्वितीय प्राकृतिक शक्तियों को समझा जाता है।
कृपाचार्य महाभारत के कुलगुरु थे और उन्होंने युद्ध के दौरान कौरवों का समर्थन किया था। कृपाचार्य गौतम ऋषि के पुत्र थे और उनकी बहन का विवाह द्रोणाचार्य से हुआ था, जिससे उनका रिश्ता अश्वत्थामा के साथ मामा-भांजा का था।
गणना में कृपाचार्य को सात चिरंजीवियों में शामिल किया जाता है, जिसमें विभीषण और राजा बलि भी शामिल हैं। ये चिरंजीवियाँ हिंदू पौराणिक ग्रंथों में उन जीवों को कहा जाता है जिनका जीवन अनंत होता है और वे धर्म के रक्षक के रूप में जाने जाते हैं।
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मार्कण्डेय ऋषि का प्रमुख कार्य और महत्वपूर्ण भाग्य है उनका भगवान शिव के प्रति अत्यंत श्रद्धालु होना। उन्होंने अपने तप के द्वारा महामृत्युंजय मंत्र की सिद्धि प्राप्त की, जिससे उन्हें चिरंजीवीत्व की प्राप्ति हुई। इसे उन्होंने धन्य होकर अपने ध्यान के माध्यम से प्राप्त किया।
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मार्कण्डेय ऋषि का युधिष्ठिर को रामायण की कथा सुनाकर धैर्य बनाए रखने का सुझाव देना भी महत्वपूर्ण है। इससे उन्होंने धर्म के महत्व को समझाने में भी योगदान किया। मार्कण्डेय ऋषि का चिरंजीवी होने का वरदान उन्हें अनंत जीवन की दीर्घायु के लिए उनके ध्यान, तप और भगवान शिव के प्रति निष्ठा का प्रतीक माना जाता है।
डिस्क्लेमर:इस आलेख में दी गई जानकारियों का हम यह दावा नहीं करते कि ये जानकारी पूर्णतया सत्य एवं सटीक है।पाठकों से अनुरोध है कि इस लेख को अंतिम सत्य अथवा दावा न मानें एवं अपने विवेक का उपयोग करें। इंडिया न्यूज इसकी सत्यता का दावा नहीं करता है।
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