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ब्रह्म कुमारीज, शिवानी
आज पूरे विश्व में तीव्र गति से नैतिक, मानवीय एवं सामाजिक मूल्यों का ह्रास हो रहा है। विशेषकर युवावर्ग व्यसन और फैशन की अंतहीन जाल में फंसकर अपनी प्राचीन पुरातन संस्कृति को भूल गया है और वे पाश्चात्य संस्कृति को अपना रहा है जिससे युवा अनेकानेक मानसिक रोगों से ग्रसित हो गया है जिसमें चिंता, भय, तनाव और अनिद्रा प्रमुख है। कहा जाता है- ‘चिंता चिता के समान है।’ यह बहुत बुरी आदत है। यदि किसी मनुष्य के अंदर यह बुराई हो तो वे जीवनपर्यंत दु:खी, अशान्त और निराश रहता है। चिंता अंदर से उसे खोखला कर देती है।
अधिकतर लोग यह मानते भी हैं कि चिंता करने से हमारे समय और शक्तियों का ह्रास होता है। इसके बावजूद भी वे चिंता से मुक्त नहीं हो पाते और इसी गंदी आदत के कारण जीवनभर अवसादग्रस्त रहते हैं। हमें चिंता से मुक्त होकर वर्तमान में जीना चाहिए क्योंकि चिंता और तनाव अनेक रोगों की जड़ है। बाल्यकाल से ही माता-पिता अपने बच्चों में यह संस्कार डालते हैं कि उन्हें अपनों की और आसपास की चीजों की चिंता करनी चाहिए। परन्तु यदि हम एकांत में बैठकर सोचें तो हमें ज्ञात होगा कि चिंता हमारे अंदर तनाव और डर की भावना उत्पन्न करती है जबकि दूसरों की देखभाल करना हमारे अंदर प्यार की भावना उत्पन्न करती है। आपसी स्नेह, प्रेम और सौहार्द्र से सम्बन्धों में मधुरता आती है। कई बार हम दूसरों के प्रति भी चिंतित हो जाते हैं। परन्तु वास्तव में हम स्वयं के लिए ही चिंता करते हैं, न कि दूसरों के लिए। इसका मूलभूत कारण है- असुरक्षा की भावना, जो अंदर ही अंदर हमें परेशान करती रहती है। उससे मुक्त होने के लिए हम चिंता का माध्यम अपनाते हैं। लेकिन यह स्वयं को धोखे में रखने जैसा है। इससे हमें बचकर रहना चाहिए। वर्तमान समय बुरी खबरों को पढ़ने तथा खराब फिल्मों को देखने से हमारे अंदर भय और तनाव की भावना आती है। हमें प्रत्येक क्षण लगता है कि कहीं आज मेरे साथ अप्रिय घटना तो नहीं घटेगी? कुछ बुरा तो नहीं होगा?
ऐसी मनस्थिति में लोगों को जीवन व्यतीत करना कठिन लगता है। क्या ऐसी स्थिति में असुरक्षा की भावना से बाहर निकला जा सकता है? अवश्य ही बाहर निकला जा सकता है। कहा जाता है, जहाँ चाह है, वहाँ राह है। अत चिंता से मुक्त होने का एकमात्र तरीका है, वर्तमान में जीना सीखें। नकारात्मक भविष्य एवं अपनी पीड़ादायी अतीत के बारे में न सोचें बल्कि अपने वर्तमान समय पर ध्यान केन्द्रित करें। दूसरों के प्रति श्रेष्ठ भावना रखकर ही हम अपने लिए भी कल्याणकारी स्थितियां निर्मित कर सकते हैं। इससे हमारे अंदर दूसरों के प्रति प्रेम और परोपकार की भावना बढ़ती है और हमारी आंतरिक स्थिति भी शक्तिशाली बन जाती है। जब हम आंतरिक रूप से शक्तिशाली होते हैं, तो बा परिस्थितियां कमजोर हो जाती हैं जिससे पहाड़ जैसी समस्याएं भी रूई बन जाती है।
इसलिए सदा चिंता या भय से मुक्त होकर वर्तमान समय का आनंद लें। अपने आज के बारे में सोचें और सदैव दूसरों के प्रति शुभ-भावना और शुभ-कामना रखें ताकि उनका जीवन भी सुखमय और प्रकाशमय बन सकें। यही जीवन जीने की कला है।
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