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डॉ. अर्चिका दीदी
ध्यान की बड़ी महिमा बताई जाती है, लेकिन ध्यान की सफलता तभी है, जब वह हमारी हर विषम परिस्थिति में शरीर, मन, बुद्धि व चित्त की शुद्धि बढ़ाने में सहायक बने, हमारे चित्त की वृत्तियों को बिखरने से बचाये, साधक के जीवन की हर स्थिति में इन्द्रियों सहित मन तथा उसमें उठने वाले तीव्र प्रवाह को संतुलित बनाये रखने में मदद करे। कार्य की कुशलता बढ़ाने में मदद करे। पर इसके लिए हमें ध्यान की गहराई तक उतरना होगा तथा सही विधि अपनानी होगी।
धन वैभव प्रकार: कहते हैं कि जैसे सागर की गहराई में उतरने पर अनेक प्रकार के रत्न मिलते हैं। ठीक उसी तरह जीवन रूपी सागर की गहराई में उतरने पर ज्ञान, धैर्य, करुणा, संवेदनशीलता, दया, श्रद्धा, निष्ठा आदि अनेक प्रकार का वैभव मिलते हैं। धन वैभव दो प्रकार के हैं, एक वाह्य अर्थात सांसांरिक और दूसरा आंतरिक धन। लोग बाहरी धन-साधन-समृद्धि तो किसी न किसी तरह जुटा लेते ही हैं, इसे प्राप्त करने की विधि सभी जानते हैं, लेकिन आंतरिक समृद्धि के लिए गुरु के मार्गदर्शन में जीवन की गहराई में उतरने की विधि सीखनी पड़ती है। गुरु अपने मार्ग दर्शन में साधक को अतल गहराई तक उतारकर ईश्वर तक पहुंचने में आने वाले अवरोधों को अपने दिव्य ज्ञान-सद्विचारों द्वारा हटाता है और साधक को ‘ध्यान’ की गहराई तक ले जाता है। जिससे मन भटकाव से बचता है। चित्त के सम्पूर्ण संस्कार एक एक कर मिटते हैं। मन-विचार शून्यता में पहुंचता है। साधक निर्विकार अवस्था में स्थित होता है। आनंद, शांति व निजस्वभाव में स्थित होकर परमात्मा के सौंदर्य में डूबता है। ‘ध्यान निर्विषयं मन:’ यही तो है।
शक्तिशाली आत्मा: ध्यान के साथ साधक को अफरमेशन का प्रयोग करना भी आवश्यक है, इससे मन व चित्त भटकाव से बचता है, इसके लिए साधक अपने अवचेतन की गहराई को बार-बार आत्मसंवेदन भेजने का प्रयास करे कि मै स्वयं में अंदर-बाहर से शक्तिशाली आत्मा हूं। मैं परमात्मा का बच्चा हूं, उसकी सम्पूर्ण विभूतियों एवं सम्पदाओं पर मेरा पूरा अधिकार है। ध्यान में यह संवेदन भी भेजें कि हम लोगों के रीमोट से नहीं चलते, न ही हमारी प्रसत्र्ता कोई दूसरों पर निर्भर है, अपितु हम सदा प्रसत्र्चित्त रहते हैं, हर परिस्थितियों में मधुर रहने के संकल्प लेता हूं आदि ऐसे भाव अंत:करण में लायें, इससे दैवीय शक्तियों को आकर्षित करने एवं उन्हें शांति, आनन्दपूर्ण संवेदनों के साथ अंदर की गहराई तक स्थापित करने में मदद मिलेगी, तब ध्यान को भी गहराई मिलेगी।
इस तरह के ध्यान से होता है लाभ: ध्यान साधना के लिए रीढ़ व गर्दन सीधी रखकर ज्ञानमुद्रा, पद्मासन अथवा अपने सुविधाजनक आसन पर बैठें। नेत्र बंद करके चेहरे पर प्रसन्नता लायें, धीरे- धीरे श्वास गहरा, लम्बा, आनन्दपूर्वक लें। ध्वनि का लयपूर्ण ढंग से गुंजन करें, इस गुंजन के साथ धीरे-धीरे मौन में उतरें और दृष्टाभाव से श्वास-प्रश्वास को निहारें। इससे स्थिरता आती जायेगी। मन में शांति उतरना प्रारम्भ होगी, मन गहरी श्वांस में लगातार डूबने से लगेगा चारों ओर एक प्रकाश का घेरा बन गया है और साधक उसी की गहराई में उतरता जा रहा है। यह ऐसी अवस्था है, जहां सुख-दु:ख राग-द्वेष, हानि-लाभ, जय-पराजय, यश-अपयश आदि किसी भी प्रकार का द्वन्द्व नहीं रह जाता। यही ईश्वर आत्मसाक्षात्कार का मार्ग है और चित्त के पार की यही स्थितियां हैं। चित्त से परे की यह अवस्था सत-चित-आनन्द भी कहलाती है। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध, सुख, दु:ख से परे की इस अवस्था में एक पल बिताना परम आहलाद पूर्ण सौभाग्य जैसा अनुभव होता है। इस प्रकार साधना की पृष्ठभूमि तैयार होती जाती है, फिर ध्यान साधक एक दिन ईश्वर से साक्षात्कार करने में भी सफल होता है। तत्पश्चात धीरे धीरे इस प्रक्रिया से बाहर निकलें और प्रार्थना करें कि हमारी प्रसन्नता बढ़ गयी है, हम पॉजिटिव हुए हैं, दिव्य मधुरता से सम्पूर्ण जीवन भर रहा है। अंत: की गहराई में साधना से उतरा यह ज्ञान जीवन को रूपांतरित कर रहा है। किसी भी सिचुएशन को बिना तनाव व क्रोध के टेकल करने की स्थिति बन रही है, सदसंस्कारों एवं सदविचारों से भर गया हूं। इस प्रसन्नता-आनन्द की अवस्था को दिनभर बनाये रखने का प्रयास करें।
बेहोशी में नहीं जीना चाहिए: इस प्रकार अपना माइंड दिन भर सकारात्मक दिशा में ही लगाकर रखें। यदि कोई क्रोध करता है, तो मानकर चलें उसका स्वाद खराब है, मुझे उसके स्वाद से नहीं जुड़ना है। रिश्ते में कोई मनमुटाव आ भी जाये तो, हम उससे बात करना बंद न करें, इससे सकारात्मक एनर्जी बढ़ेगी, फिर धीरे से रिश्ते भी सुधर जाते हैं। बेहोशी में जीने से बचें, और अचानक आई परिस्थिति को बेहोशी में रिएक्ट न करें। धीरे धीरे जीवन एवं वातावरण खुशनुमा दिखने लगेगा और अनुभव होगा कि वास्तव में हमारे व्यावहारिक जीवन में ध्यान आनन्द, संतोष आदि देवत्व गुण बढ़ रहे हैं। इस प्रकार हमारा लोक व्यवहार एवं जीवन देवमय होने लगेगा।
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