गुरु गोविन्द सिंह जी का महान बलिदान
गुरु तेग बहादुर जी का बलिदान भारतीय इतिहास का एक अति महत्वपूर्ण अध्याय है। उन्होंने मुगलों के जुल्मों का डटकर विरोध किया और धर्म की रक्षा के लिए अपना शीश तक काटवा दिया। यह बलिदान गुरु गोविन्द सिंह जी के मन में गहरे प्रभाव डालने वाला था। युवा गोविन्द जब अपने पिता के बलिदान की घटना सुनते हैं, तो उनका मन धर्म की रक्षा के लिए प्रेरित होता है।
गुरु तेग बहादुर जी के बलिदान के बाद गुरु गोविन्द सिंह जी ने नौ वर्ष की आयु में ही अपने जीवन की दिशा तय की और अपने पिताजी से गुरु गद्दी प्राप्त की। गुरु गोविन्द सिंह जी का यह कार्य धर्म के प्रति उनकी निष्ठा, साहस, और देशभक्ति को प्रदर्शित करता है। उन्होंने भारतीय समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने के लिए एक नई दिशा दी।
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खालसा पंथ की स्थापना
सन् 1699 में, बैसाखी के दिन, गुरु गोविन्द सिंह जी ने आनन्दपुर साहिब में एक ऐतिहासिक सभा बुलाई। इस सभा में उन्होंने अपने अनुयायियों से यह प्रश्न किया कि “क्या कोई है जो धर्म की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति दे सके?” इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए 5 व्यक्ति आगे बढ़े – दयाराम खत्री, धर्मदास जाट, मोहकत चंद धोबी, हिम्मत सिंह रसोइया, और साहब चंद नाई। इन पांच महान व्यक्तियों के साहस ने समाज को एक नई दिशा दी और इस प्रकार गुरु गोविन्द सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना की।
खालसा का अर्थ था “शुद्ध” और इस पंथ के अनुयायी वे लोग थे जो काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार जैसे अवगुणों से मुक्त, और धर्म, सत्य, और भलाई के मार्ग पर चलने वाले थे। इसके लिए उन्होंने पाँच ककार धारण करने का आदेश दिया:
- कृपाण (तलवार),
- केश (बाल),
- कंघा,
- कच्छा (विशेष प्रकार का वस्त्र),
- कड़ा (धातु की चूड़ी)
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ये पांच ककार खालसा के अनुयायियों को पराक्रमी, शुद्ध, और अनुशासित बनाए रखने के लिए थे। उन्होंने समाज में समानता का संदेश दिया और हर व्यक्ति को एक समान दर्जा दिया।
उनके त्याग और बलिदान की कहानी
गुरु गोविन्द सिंह जी ने अपने जीवन में बहुत बड़े व्यक्तिगत शोक और दर्द सहन किए। सन् 1703 में, चमकौर के युद्ध में, उन्होंने केवल 40 सिखों की सहायता से मुगलों की विशाल सेना का सामना किया। इस युद्ध में उनके दो बेटे, अजीत सिंह और जुझार सिंह के साथ-साथ पांच प्यारे भी शहीद हो गए।
उसके बाद, 1704 में, उनके दो छोटे पुत्र, जोरावर सिंह और फतेह सिंह को सरहिन्द के नवाब वजीर खान ने दीवार में जिंदा चुनवा दिया। यह उनकी अत्यंत कष्टकारी और दुखद घटनाएँ थीं, लेकिन गुरु गोविन्द सिंह जी कभी भी विचलित नहीं हुए। उनके दो बेटे और पत्नी की हत्याओं के बावजूद उन्होंने एक योगी की तरह अपना कर्तव्य निभाया। उनके जीवन का उद्देश्य केवल धर्म की रक्षा और समाज की सेवा था।
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संगीत और साहित्य में योगदान
गुरु गोविन्द सिंह जी न केवल एक महान योद्धा थे, बल्कि एक सिद्ध कवि, साहित्यकार, और संगीतज्ञ भी थे। उनका दरबार 52 कवियों से भरा रहता था, और उन्होंने कई महत्वपूर्ण काव्य रचनाएँ कीं, जिनमें जाप साहेब, अकाल स्तुति, विचित्र नाटक, चंडी चरित्र, जफरनामा, चौबीस अवतार, और ज्ञान प्रबोध जैसी रचनाएँ शामिल हैं। उनके द्वारा रचित दशम ग्रंथ सिख धर्म के शास्त्रों में महत्वपूर्ण स्थान रखता है।
गुरु गोविन्द सिंह जी का देहांत
गुरु गोविन्द सिंह जी ने 1708 में नांदेड़ के गोदावरी नदी के तट पर अपने शरीर का त्याग किया। उनका जीवन, उनकी शिक्षा, और उनके कार्य आज भी भारतीय समाज के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं। उन्होंने हमेशा अन्याय के खिलाफ लड़ने, सच्चाई की राह पर चलने, और समाज में समानता स्थापित करने की प्रेरणा दी।
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गुरु गोविन्द सिंह जी का जीवन शौर्य, त्याग, और बलिदान की अद्वितीय गाथा है। उन्होंने न केवल सिख धर्म की नींव को मजबूत किया, बल्कि भारतीय समाज में एकता, समानता, और न्याय के सिद्धांतों को स्थापित करने के लिए एक क्रांतिकारी बदलाव लाया। उनके योगदान को शब्दों में व्यक्त करना कठिन है, क्योंकि उनका जीवन केवल धर्म और समाज के लिए नहीं, बल्कि मानवता के लिए भी एक अमूल्य धरोहर है।
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