धर्म

पांचों पतियों ने दिया धोखा…लेकिन ये तीन ताकतवर योद्धा बचा सकते थे द्रौपदी की इज्जत, जानें क्यों देखते रहे तमाशा?

India News (इंडिया न्यूज), Draupadi Cheerharan In Mahabharat: महाभारत के युद्घ और उससे जुड़े प्रसंगों में द्रौपदी का अपमान एक अहम घटना के रूप में याद किया जाता है। द्रौपदी का चीर हरण न केवल उस समय की सामाजिक और राजनीतिक परिस्थिति को उजागर करता है, बल्कि यह एक ऐसा मोड़ है, जब महाभारत के प्रमुख पात्रों की नैतिकता और धैर्य पर सवाल उठते हैं। उस घिनौने अपमान के समय द्रौपदी की मदद के लिए तीन महान योद्धा थे, जो उसकी इज्जत बचा सकते थे, लेकिन उन तीनों ने क्यों तमाशा देखा? आइए, इस घटना को समझते हैं और उसके पीछे छिपी मनोवैज्ञानिक और धार्मिक दृष्टिकोणों पर विचार करते हैं।

1. धृतराष्ट्र – शासन का पक्ष और निष्क्रियता

धृतराष्ट्र, जो उस समय हस्तिनापुर के सम्राट थे, द्रौपदी के अपमान के समय उपस्थित थे। उनके सामने एक कठिन स्थिति थी। यदि उन्होंने हस्तक्षेप किया होता, तो यह उनके बेटे दुर्योधन के खिलाफ होता, जो इस संपूर्ण घटनाक्रम के पीछे था। धृतराष्ट्र की शारीरिक अंधता के साथ-साथ उनकी मानसिक स्थिति भी कमजोर थी, और वे राज्य के हितों को बचाने की कोशिश कर रहे थे। उनकी इस निष्क्रियता ने यह स्पष्ट कर दिया कि सत्ता और परिवार के पक्ष में, एक पिता और राजा अपनी व्यक्तिगत जिम्मेदारी को नजरअंदाज कर सकता है।

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2. भीष्म – धर्म और व्यक्तिगत वचन

भीष्म पितामह, जिन्हें धर्मनिष्ठता और नैतिकता का प्रतीक माना जाता है, भी द्रौपदी के अपमान को होते हुए देख रहे थे। हालांकि उनका आदर्श धर्म था, परंतु वे हस्तिनापुर के नायक होने के कारण दुर्योधन और अन्य कौरवों के खिलाफ बोलने में असमर्थ थे। उनका विश्वास था कि वे जो वचन ले चुके हैं, उस पर कायम रहना चाहिए, चाहे वह वचन उन्हें पाप करने के लिए उकसाए। उन्होंने शारीरिक रूप से द्रौपदी के अपमान को रोकने का कोई प्रयास नहीं किया, क्योंकि उनके लिए कौरवों के खिलाफ बोलने का अर्थ खुद को उनके खिलाफ खड़ा करना था, और पितामह भीष्म ऐसा नहीं कर सकते थे।

3. कृष्ण – ईश्वर की भूमिका और कर्तव्य

द्रौपदी के अपमान के समय भगवान श्री कृष्ण की भूमिका भी महत्वपूर्ण है। वे वहीं मौजूद थे, लेकिन उन्होंने उस क्षण में हस्तक्षेप नहीं किया। दरअसल, कृष्ण जानते थे कि द्रौपदी का अपमान महाभारत के युद्ध की ओर बढ़ने के लिए एक मुख्य कारण बनेगा। कृष्ण ने द्रौपदी को आशीर्वाद दिया कि वह पूरी घटना के बाद भी सुरक्षित रहेंगी, और उनके सम्मान की रक्षा करेंगे। लेकिन यह भी एक महत्वपूर्ण मोड़ था, क्योंकि कृष्ण ने जो कार्य किया, वह धर्म के अनुसार था, और यह आवश्यक था कि द्रौपदी अपनी शक्ति और आत्मबल को पहचानें, और अपनी स्थिति का सामना करें। कृष्ण ने द्रौपदी को मानसिक साहस दिया और उसे समझाया कि इस अपमान को अपनी शक्ति के रूप में बदलें।

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द्रौपदी के पति – पांचों पत्तियों का धोखा

द्रौपदी के पांच पति—युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव—सभी उस समय मौजूद थे, लेकिन किसी ने भी द्रौपदी को बचाने के लिए कदम नहीं उठाया। युधिष्ठिर, जो सबसे बड़े और धर्मपरायण थे, ने जुए में हारने के बाद अपनी पत्नी को दांव पर लगा दिया, जबकि वह जानते थे कि यह सही नहीं है। भीम और अर्जुन, जो रणभूमि में अद्वितीय योद्धा थे, तमाशा देखते रहे और खुद को किसी भी संघर्ष से बचाए रखा। नकुल और सहदेव भी अपनी शक्ति का इस्तेमाल नहीं कर पाए। इस प्रकार, उनके अपने परिवार की सदस्य के साथ हुए इस घोर अन्याय के प्रति उनकी निष्क्रियता एक गहरी विडंबना पैदा करती है।

तीन योद्धा जो द्रौपदी की इज्जत बचा सकते थे

भीम: यदि भीम ने अपनी ताकत का इस्तेमाल किया होता, तो वह तुरंत दुर्योधन या दुशासन को अपनी ताकत से कुचल सकते थे। लेकिन उन्होंने अपने अनुशासन और संयम को प्राथमिकता दी। उनका उद्देश यह था कि वे महाभारत की लड़ाई को किसी भी स्थिति में रोके नहीं, और इसे धर्मयुद्ध के रूप में सही ठहराना चाहते थे।

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अर्जुन: अर्जुन, जो महाभारत के सबसे महान धनुर्धर थे, यदि चाहते तो युद्ध भूमि की तरह द्रौपदी के सम्मान की रक्षा कर सकते थे। लेकिन वह भी मानसिक रूप से कमजोर थे और युद्ध के लिए तैयार हो रहे थे। उन्होंने तत्काल हस्तक्षेप करने के बजाय, कृष्ण के उपदेश को समझने की कोशिश की।

कृष्ण: कृष्ण ने इस समय एक नैतिक और धार्मिक दृष्टिकोण से काम किया। उन्होंने द्रौपदी को मानसिक साहस दिया, क्योंकि वे जानते थे कि यह घटना केवल एक प्रतिकूलता नहीं, बल्कि धर्म और अधर्म के बीच के युद्ध की ओर ले जाने वाला एक महत्वपूर्ण कदम है।

महाभारत की इस घटना को केवल एक व्यक्तिगत अपमान के रूप में नहीं देखा जा सकता, बल्कि यह एक धर्मनिष्ठ दृष्टिकोण से एक प्रतीक है। द्रौपदी का अपमान उस समय के नेताओं और योद्धाओं के नैतिक पतन को दर्शाता है, जो सत्ता, परिवार और कर्तव्य के बीच उलझकर अपने कर्तव्यों से मुंह मोड़ गए। कृष्ण की भूमिका यहां विशेष है, क्योंकि उन्होंने इस घटना को केवल एक क्षणिक संकट के रूप में नहीं देखा, बल्कि इसे महाभारत की दिशा तय करने वाले एक निर्णायक मोड़ के रूप में देखा।

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यह कहानी हमें यह सिखाती है कि अपने कर्तव्यों को निभाना, और कठिन परिस्थितियों में भी सही निर्णय लेना कितना जरूरी होता है।

Disclaimer: इंडिया न्यूज़ इस लेख में सलाह और सुझाव सिर्फ सामान्य सूचना के उद्देश्य के लिए बता रहा हैं। इन्हें पेशेवर चिकित्सा सलाह के रूप में नहीं लिया जाना चाहिए। कोई भी सवाल या परेशानी हो तो हमेशा अपने डॉक्टर से सलाह लें।

Prachi Jain

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