‘क्षमा’ में दुनिया को स्वर्ग बना देने की ताकत
विजय दर्डा
हमने अभी-अभी पर्यूषण पर्व मनाया है और एक दूसरे से क्षमा मांगी है। जरा कल्पना कीजिए कि क्षमा मांगने और क्षमा करने की काबिलियत हर कोई हासिल कर ले तो दुनिया का स्वरूप क्या होगा! फिर दुनिया हमारी कल्पना के स्वर्ग से भी बेहतर हो जाएगी। ‘क्षमा’ भाव से ही अहिंसा का भी जन्म होता है।
मैं इस मामले में थोड़ा खुशनसीब हूं कि मुझे दुनिया के विभिन्न धर्मो के ज्ञाताओं और विद्वानों के साथ संगत का मौका मिला है। जीवन के शुरूआती दिनों से ही धर्म को जानने और समझने की जिज्ञासा रही है। दादी, बाई (मां), बाबूजी और मेरी जीवन-संगिनी ज्योत्सना से मिले आध्यात्मिक संस्कारों ने विचारों को इतना उन्नत बनाया कि विभिन्न धर्मो के लिए मेरे भीतर सदैव स्वीकारोक्ति रही। किसी धर्म की आलोचना का कभी खयाल भी नहीं आया। विभिन्न धर्मो के त्यौहार मेरे भीतर खुशियों का संचार करते हैं और मैंने महसूस किया कि यह भिन्नता ही हिंदुस्तान को सारी दुनिया से न्यारा बनाती है। धर्म दरअसल कोई आवरण नहीं है बल्कि यह तो अंतर आत्मा को जागृत करने का एक माध्यम है। आप कोई भी धर्म मानें, सभी सद्राह ही दिखाते हैं। धर्म में अशांति के लिए कोई जगह नहीं है लेकिन आज धर्म के नाम पर खून की नदियां बह रही हैं। धर्म के नाम पर यह क्रूरता मुझे विचलित करती है और मैं निरंतर इस बात पर चिंतन करता रहता हूं कि यह माहौल कब बदलेगा? क्या बदलेगा भी? यदि बदलेगा तो वह मार्ग कौन सा है? मुझे भगवान महावीर स्वामी की शिक्षा में मार्ग नजर आता है। एक बात मैं बिल्कुल स्पष्ट कर दूं कि मेरा आशय जैन धर्म की श्रेष्ठता साबित करना बिल्कुल नहीं है। मेरी नजर में हर व्यक्ति के लिए उसका धर्म श्रेष्ठ है और यही होना भी चाहिए। मगर यदि किसी दूसरे धर्म में या किसी दूसरी मान्यता में ऐसे तत्व हैं जो जीवन को बेहतर बना सकते हैं तो उसे स्वीकार करने में कोई हर्ज नहीं है। निजी जीवन में मैंने जैन धर्म के अलावा दूसरे धर्मो से भी बहुत कुछ सीखा है और उस सीख का पालन भी करता हूं। मेरे पूजन स्थल पर सभी धार्मिक पुस्तकें और प्रतीक मौजूद हैं। मैं यहां जैन आचार-विचार और दर्शन की चर्चा इसलिए कर रहा हूं क्योंकि इसमें ऐसे तत्व मौजूद हैं जो हमें नई राह दिखा सकते हैं। मैं सबसे पहले ‘क्षमा’ की बात करना चाहूंगा। हालांकि यह इतना आसान है नहीं जितना हमें बोलने या लिखने में लग सकता है। इसीलिए जैन दर्शन में कहा गया है- ‘क्षमा वीरस्य भूषणम।’ क्षमा को वही आत्मसात कर सकता है जिसके भीतर साहस हो, जो वीर हो! किसी से क्षमा मांगने के लिए आंतरिक शक्ति चाहिए और किसी को क्षमा कर देने के लिए उससे भी बड़ी शक्ति चाहिए। जब हम क्षमा की बात करते हैं तो न केवल दूसरों के लिए बल्कि खुद को भी माफ कर देने की क्षमता हासिल करने का भी भाव इसमें शामिल है। जैन दर्शन में तो मानव जीवन से भी आगे निकलकर ब्रह्मांड के समस्त जीवों से क्षमा याचना की बात की गई है। इसका अर्थ बहुत सीधा सा है कि प्रकृति ने जिस स्वरूप में यह धरती, यह आकाश और अज्ञात परलोक हमें सौंपा है उसे हम मूल स्वरूप में बनाए रखने के लिए प्रतिबद्ध हैं। हर धर्म की सीख भी यही तो है! इसलिए यह बहुत जरूरी है कि हर व्यक्ति क्षमा का आभूषण धारण करे। इसके लिए खुद को परिमार्जित करना होगा। आत्मा के स्तर पर खुद को इतना निर्मल बनाना होगा कि किसी के अहित की सोच भी मन में कभी न पनपे! जैन दर्शन हमें सिखाता है कि किसी के अहित की बात सोचना भी हिंसा है। जाहिर सी बात है कि जब क्षमा को हम इस आध्यात्मिक स्वरूप में धारण करने की क्षमता हासिल कर लेंगे तो अहिंसा का भाव हमारे भीतर स्वत: प्रकट हो जाएगा। यही अहिंसा ही तो परम धर्म है! यही क्षमा और अहिंसा जैन दर्शन का मूल आधार है। लेकिन दुर्भाग्य देखिए कि आज के माहौल में धर्म के नाम पर इस दुनिया में सर्वाधिक हिंसा हो रही है। एक-दूसरे का गला काटा जा रहा है। धर्म के सौदागर ‘अपने-अपने धर्म की श्रेठता’ का हथियार लहरा रहे हैं और आतंक का खौफनाक और क्रूर पंजा पूरी मानवता को दबोच लेना चाह रहा है। मुझे लगता है कि ऐसे क्रूर पंजों से भी लड़ने की ताकत अहिंसा में है। यह मैं कोई सैद्धांतिक बात नहीं कर रहा हूं। हमारी आजादी का आंदोलन इस बात का गवाह भी रहा है। जिस सल्तनत में सूरज नहीं डूबता था उसे महात्मा गांधी ने केवल सत्य और अहिंसा की ताकत की वजह से उखाड़ फेंका। जैन दर्शन ने सत्य और अहिंसा का यह पाठ हमें हजारों-हजार वर्ष से निरंतर पढ़ाया है। क्षमा भाव, सत्य और अहिंसा हमारे जीवन में हो तो अपरिग्रह स्वाभाविक रूप से हमारे जीवन का हिस्सा बन जाएगा। हम केवल उतने की ही चाहत रखेंगे जितना जीवन के लिए आवश्यक है तो कभी लोभ पैदा नहीं होगा और जिंदगी की राह सुगम हो जाएगी। सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान, सम्यक चरित्र हमारे जीवन का हिस्सा हो जाएगा। जैन दर्शन हमें अनेकांतवाद यानी दूसरों को भी समझने की शिक्षा देता है। आज सबको लगता है कि वही सही है लेकिन हकीकत यह है कि दूसरों के दृष्टिकोण को जब तक आप नहीं समझोगे तब तक खुद के साथ भी न्याय नहीं कर सकते। एक व्यापारी यदि ग्राहक के नजरिए को न समझे तो क्या उसका व्यापार चलेगा? यदि सब एक-दूसरे के नजरिए को समझने लग जाएं तो यह खींचतान बचेगी ही नहीं। जब खींचतान नहीं होगी तो जंग भी नहीं होगी। बड़े परिप्रेक्ष्य में देखें तो सारी मानव जाति शांति और सद्भाव के साथ जी सकेगी। हम एक ऐसी दुनिया का निर्माण कर पाएंगे जहां हथियारों की कोई होड़ नहीं होगी। जो पैसा हम हथियारों पर बर्बाद कर रहे हैं वह अवाम की शिक्षा और उसके स्वास्थ्य पर खर्च कर पाएंगे। अभी यह कोरी कल्पना लग सकती है लेकिन मनुष्य ने अपनी यात्र में जो ठाना है वह किया है। मनुष्य चांद पर पहुंचा है। बेतहाशा तकनीकी तरक्की की है। यदि मनुष्य ठान ले कि क्षमा को अपना आभूषण बनाना है तो दुनिया की कोई ताकत उसे रोक नहीं सकती। फिर हम कह पाएंगे- ‘वसुधैव कुटुम्बकम’।
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