धर्म

Mahabharat: महाभारत में अर्जुन नहीं इस योद्धा को घोषित किया गया था ‘नरश्रेष्ठ’, जानें वजह

India News (इंडिया न्यूज), Mahabharat Karn & Shri Krishna: एक बार की बात है, महाभारत के युद्ध के समय कर्ण के पास ऐसी दिव्य शक्तियां थीं, जो उसे अपराजेय बनाती थीं। कर्ण को उसकी मां कुंती से जन्म के समय ही एक दिव्य कवच और कुण्डल प्राप्त हुए थे। ये कवच और कुण्डल कोई साधारण चीज नहीं थे, बल्कि अमृत से बने थे, जो उसे अमरता प्रदान करते थे। जब तक कर्ण इनसे संपन्न था, उसे कोई भी शस्त्र भेद नहीं सकता था और उसे कोई हरा नहीं सकता था।

कवच और कुण्डल बने हर का कारण

यह बात देवताओं के राजा इंद्र को भी पता थी। उन्हें यह एहसास था कि यदि कर्ण के पास ये कवच और कुण्डल बने​ रहे, तो वह पांडवों की हार का कारण बन सकता है। यहां तक कि श्रीकृष्ण भी इस बात को मानते थे। उन्होंने अर्जुन से कहा, “यदि कर्ण अपने कवच और कुण्डल से सम्पन्न होता, तो वह अकेला ही रणभूमि में देवताओं समेत तीनों लोकों को जीत सकता था। ऐसी स्थिति में न तो इंद्र, न कुबेर, न जलेश्वर वरुण और न ही यमराज, कोई भी कर्ण का सामना नहीं कर सकता था।” श्रीकृष्ण ने आगे कहा, “तुम्हारे हित के लिए, यदि हम दोनों—तुम गांडीव उठाकर और मैं सुदर्शन चक्र लेकर—भी युद्ध में उतरते, तब भी कवच-कुण्डलों से युक्त कर्ण को हराना असंभव होता।”

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इसलिए, पांडवों की रक्षा के लिए इंद्र ने एक चाल चली। उन्होंने माया का सहारा लेकर शत्रु-नगरी पर विजय पाने वाले कर्ण से उसके दोनों कुण्डल मांग लिए और उसे कवच से भी वंचित कर दिया।

कर्ण अपनी दानवीरता के लिए प्रसिद्ध था। जब इंद्र, एक ब्राह्मण के वेश में, कर्ण से उसके कवच और कुण्डल मांगने पहुंचे, तो कर्ण ने बिना किसी हिचकिचाहट के उन्हें दान कर दिए। कर्ण जानता था कि ये कवच और कुण्डल उसकी सुरक्षा के लिए कितने महत्वपूर्ण थे, फिर भी उसने अपने वचन का पालन करते हुए उन्हें दे दिया।

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इंद्र ने किया था छल

इंद्र का यह छल कर्ण की वीरता को कम नहीं कर पाया, लेकिन उसे एक साधारण योद्धा बना दिया। कर्ण ने बाद में भी अपनी वीरता और धैर्य का प्रदर्शन किया, लेकिन अब वह अपराजेय नहीं रहा।

यह कहानी हमें सिखाती है कि सच्चा योद्धा केवल अपने शस्त्रों और कवचों से महान नहीं होता, बल्कि उसके आंतरिक गुण, उसका साहस, और उसकी दानशीलता उसे असली महानता प्रदान करते हैं। कर्ण ने अपनी दिव्यता को खोकर भी अपनी महानता को नहीं खोया, और यही उसकी सच्ची वीरता थी।

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Prachi Jain

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