संत राजिन्दर सिंह जी महाराज
दुनिया में मां के प्रेम के अलावा सबसे नि:स्वार्थ प्रेम संतों-महापुरुषों का होता है क्योंकि वे अपने शिष्यों से अपने लिए कुछ नहीं चाहते। जो भी उनके पास आता है, वे सब पर प्रेम और दया की वर्षा करते हैं। वे हमेशा अपने शिष्यों को देते, देते और देते ही हैं। मां के प्रेम के उदाहरण से हम उनके नि:स्वार्थ प्रेम को समझने का प्रयास कर सकते हैं।
मां अपनी आवश्यकताओं के बारे में सोचे-समझे बिना अपने बच्चे पर सब कुछ न्यौछावर कर देती है। वह उसके लिए हर कष्ट उठाती है। बच्चे को नौ महीने तक गर्भ में रखने की तकलीफ, बच्चे के जन्म की पीड़ा, रोते-बिलखते शिशु के लिए रातों जागना, उसे नहलाना, खिलाना-पिलाना और जब उसका शिशु डगमग-डगमग करने वाले नन्हें कदमों से चलना सीखता है और आजादी से सारी जगह पर घूमने का प्रयास करता है तो उसके पीछे-पीछे रहकर उसकी देखभाल करना। उसके बचपन और किशोरावस्था में भी मां बच्चे की प्रत्येक अवस्था का ध्यान रखने के लिए तैयार रहती है। यहां तक कि बच्चे के बड़े हो जाने, शादी कर घर बसा लेने, परिवार होने और अपनी आधी उम्र से बुढ़ापे तक आ जाने पर भी मां, केवल मां ही रहती है और तब भी अपने बच्चे के प्रति वही प्यार और चिंता दर्शाती है, जितनी कि वह तब करती थी जब वह छोटा था। इसके लिए हममें से प्रत्येक को अपनी माताओं के प्रति हमेशा आभारी होना चाहिए।
जैसे कि एक मां अपने बच्चे के लिए त्याग करती है उससे लाखों-करोड़ों गुणा ज्यादा प्यार और त्याग एक सतगुरु अपने शिष्यों से करते हंै। हमारे अंदर प्रभु की ज्योति प्रकाशमान है और यह दिन और रात चौबीस घंटे चमकती है किंतु फिर भी हम इसे नहीं देखते पाते, क्यों? क्योंकि वह इन बाहरी आंखों से नहीं दिखाई देती। पिता-परमेश्वर ने हम सबके अंदर दो भौहों के बीच ‘शिवनेत्र’ दिया हुआ है, जिसके द्वारा हम प्रभु की ‘ज्योति’ का अनुभव कर सकते हैं लेकिन इस वक्त हमारा यह ‘शिवनेत्र’ बंद है। केवल पूर्ण संत-सतगुरु ही हमारे इस ‘शिवनेत्र’ को खोल सकते हैं। जब हम किसी संत-सतगुरु के चरण-कमलों में पहुंचते हैं तो वह हमारी अंतर की आंख जिसे ‘दिव्य-चक्षु’ या ‘तीसरा नेत्र’ भी कहा गया है, उसे खोल देते हैं ताकि हम अपने भीतर प्रभु की ‘ज्योति’ का प्रकाश देख सकें। वे हमें अंतर्मुख होने के लिए ध्यान-अभ्यास करने का तरीका सिखाते हैं। अपने सतगुरु की रूहानी तवज्जो के जरिए हम प्रभु की ‘ज्योति’ से जुड़ जाते हैं, जिससे कि हमारा जीवन खुशियों से भर जाता है। यदि हम अपने अंदर खुशियों के इस द्भोत से नहीं जुड़ते तो चाहे हमारे पास इस दुनिया की सारी खुशियां हों लेकिन हम हमेशा अंदर से अशांत, दु:खी और डरे हुए से रहते हैं क्योंकि हम महसूस करते हैं कि हमारी सुरक्षा को खतरा है।
हमें ऐसा लगता है कि खतरा हर जगह गुप्त रूप से छुपा हुआ है। हम एक ऐसा सुरक्षित स्थान पाना चाहते हैं जहां हम इस डर से बच सकें। जैसे कि बच्चे के रूप में वह पहला स्थान माता-पिता की गोद है, जहां वह सुरक्षित महसूस करता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह किस खतरे का सामना कर रहा है, वह अपने माता-पिता की गोद में शांति महसूस करता है।
ठीक ऐसे ही हम देखते हैं कि किस प्रकार बच्चे डॉक्टर से इंजेक्शन लगाते समय बुरी तरह से रोते-बिलखते हैं किंतु जब माता-पिता बच्चों को गोद में उठा लेते हैं, बच्चा चुप हो जाता है। जब बच्चा गिरता है, वह पहला शब्द जो उसके मुंह से निकलता है वह ‘मां’ का होता है। वह बच्चा बड़े होने पर भी हर समय माता-पिता का साथ चाहता है।
हम अपनी जिंदगी में यह भी अनुभव करते हैं कि हमारे माता-पिता भी हमारी तरह नश्वर हैं क्योंकि जैसे-जैसे उनकी उम्र बढ़ती है हम अपने माता-पिता को स्वास्थ्य समस्याओं से घिरा हुआ पाते हैं अथवा हममें से कुछ यह भी अनुभव करते हैं कि वे समय के साथ प्रभु की गोद में चले जाते हैं। तब हम यह अनुभव करते हैं कि उनके ऊपर जिन पर हम स्वयं को सुरक्षित रखने के लिए भरोसा करते थे, वे भी खतरे में हैं और हमारी ही तरह प्राणी मात्र हैं। जब हम अनुभव करते हैं कि हमारे माता-पिता सदा के लिए रहने वाले नहीं हैं और उन्हें भी अवश्य उसी प्रकार जीवन की सच्चाई का सामना करना पड़ता है, जैसे हम करते हैं। तो तब हमारा ध्यान किसकी ओर जाता है?
तब हम एक ऐसा स्थान ढूंढते हैं, जहां हम हमेशा-हमेशा का आराम और सुरक्षा पा सकें। ऐसे में हमारा ध्यान प्रभु की ओर जाता है क्योंकि इस दुनिया में सच्चा और सबसे सुरक्षित स्थान तो केवल प्रभु की गोद ही है। इस संसार में जीते हुए हम प्रभु की गोद में कैसे जा सकते हैं? आज दिन तक आए सभी संतों-महापुरुषों ने हमें इसका सीधा और सरल रास्ता बताया है। अगर हम उनकी वाणियां पढें तो हम इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि उन्होंने ध्यान-अभ्यास करके प्रभु की नजदीकी प्राप्त की और सारी मानवता को भी यह संदेश दिया कि केवल ध्यान-अभ्यास ही एक जरिया है पिता-परमेश्वर से एकमेक होने का।
अगर हम उनसे संपर्क करना चाहते हैं तो थोड़ी कोशिश तो हमें भी करनी होगी क्योंकि जब हम प्रभु की ओर एक कदम उठाते हैं तो वे हमारी ओर सौ कदम बढ़ाते हैं। ध्यान-अभ्यास की यह विधि हम वक्त के किसी पूर्ण संत से सीख सकते हैं। उनके द्वारा ही हमें मालूम होता है कि हमारी जिंदगी का मकसद शरीर और मन के साथ-साथ आत्मा का विकास कर प्रभु से एकमेक होना है। हमारे जीवन में चाहे कैसी भी बाधा आए, हम उस पर विजय पाएं और अपने जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रयास करते रहें। अगर हम प्रेम, भक्ति, दृढ़-निष्चय और लगन से प्रयास करते हैं, तभी हम अपने आध्यात्मिक लक्ष्य को प्राप्त कर सकेंगे, जोकि अपने आपको जानना और प्रभु को पाना है और फिर वहां प्रभु की गोद में जाकर ही हम अपने आपको सबसे सुरक्षित स्थान पर पाएंगे।
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