India News (इंडिया न्यूज़), Mahabharata war: महाभारत का युद्ध एक धर्मयुद्ध था, जिसमें श्री कृष्ण ने अहम भूमिका निभाई थी। श्री कृष्ण ने विश्व के सभी लोगों को उस युद्ध में अपना पक्ष चुनने के लिए प्रेरित किया था, चाहे वो धर्म के साथ हो या अधर्म के साथ। लेकिन जैसे-जैसे लोग युद्ध में शामिल होते गए, युद्ध बड़ा होता गया और उस युद्ध में अधिक लोगों की जान चली गई। उस युद्ध में इतना रक्तपात हुआ था कि आज भी कुरुक्षेत्र की धरती लाल है। कहा जाता है कि श्री कृष्ण चाहते तो युद्ध को रोक सकते थे लेकिन उन्होंने युद्ध नहीं रोका। इसे लेकर गांधारी ने सवाल भी उठाए थे और ऋषि उत्तंक भी श्री कृष्ण से नाराज थे।

गांधारी ने अपने वंश का नाश होने पर श्रीकृष्ण को श्राप दिया था और जब ऋषि उत्तंक ने श्रीकृष्ण से कहा कि ‘इतने ज्ञानी और शक्तिशाली होते हुए भी आप युद्ध को रोक नहीं सके। क्या यह उचित नहीं होगा कि मैं इसके लिए आपको श्राप दूं’, इसके उत्तर में श्रीकृष्ण ने मुस्कुराते हुए कहा- ‘महामुनि! यदि किसी को ज्ञान दिया जाए, समझाया जाए और मार्ग दिखाया जाए, तब भी वह विपरीत आचरण करता है, तो इसमें ज्ञान देने वाले का क्या दोष है? यदि मैं स्वयं ही सब कुछ कर सकता था, तो संसार में इतने लोगों की क्या आवश्यकता थी?’

शांति स्थापित करने कि किया था प्रयास

पौराणिक कथा के अनुसार भगवान श्री कृष्ण ने युद्ध रोकने के लिए दूत बनकर हस्तिनापुर जाकर पांडवों और कौरवों के बीच शांति स्थापित करने का प्रयास किया था, लेकिन तब भी दुर्योधन ने उनके शांति प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया और युद्ध होकर ही रहेगा, ऐसा निश्चय कर लिया था। जब युद्ध का निर्णय हो गया तो श्री कृष्ण ने उनकी योग्यता को देखते हुए एक योद्धा के रूप में युद्ध में भाग लेना उचित नहीं समझा, बल्कि अर्जुन के सारथी बनकर युद्ध में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

कहा जाता है कि भले ही श्री कृष्ण ने सभी को समझाकर युद्ध रोकने का प्रयास किया, लेकिन वे यह भली-भांति जानते थे कि दुर्योधन कभी समझौते के लिए राजी नहीं होगा और न ही अन्य योद्धा अपना स्वार्थ और लोभ छोड़ेंगे। वे स्वयं युद्ध के पक्ष में थे और युद्ध रोकने के लिए उनका अधिक प्रयास न करना कई महत्वपूर्ण उद्देश्यों की पूर्ति के कारण था।

क्या थे वो उद्देश्य

धर्म की स्थापना महाभारत युद्ध का एक प्रमुख उद्देश्य धर्म की स्थापना करना था। कौरवों के अत्याचारों और अधर्म को समाप्त करके धर्म की पुनः स्थापना के लिए युद्ध आवश्यक था और श्री कृष्ण ने पृथ्वी पर मौजूद लगभग हर व्यक्ति को अपना पक्ष लेने और इस धर्मयुद्ध में भाग लेने के लिए प्रेरित किया। जो कोई भी इस युद्ध को समाप्त कर सकता था, इसे गलत तरीके से प्रभावित कर सकता था या युद्ध के संतुलन को बिगाड़ सकता था, श्री कृष्ण ने अपनी कूटनीति के माध्यम से उन्हें पहले ही इस युद्ध से अलग कर दिया था।

कर्म का सिद्धांत

भगवद गीता में श्री कृष्ण ने कर्म और कर्मफल के सिद्धांत पर जोर दिया है। उन्होंने अर्जुन से कहा कि हर व्यक्ति को अपने कर्मों का फल भोगना पड़ता है। कौरवों के अधर्म और अत्याचारों के परिणामस्वरूप उन्हें युद्ध के माध्यम से अपने कर्मों का फल भोगना पड़ा।

नैतिकता और न्याय का पक्ष

श्री कृष्ण ने हमेशा नैतिकता और न्याय का पक्ष लिया। पांडवों ने अपने अधिकारों और न्याय के लिए लड़ाई लड़ी और श्री कृष्ण ने नैतिकता और धर्म के मार्ग पर चलकर उनका साथ दिया। यदि इस युद्ध में समझौता हो जाता तो अनेक लोग न्याय से वंचित रह जाते और मानवता का एक महान उद्देश्य अधूरा रह जाता। यदि शांति स्थापित हो जाती तो अधर्मियों और पापियों का कभी नाश नहीं होता और आने वाली अनेक पीढ़ियाँ उन बुराइयों का भागी बनी रहतीं।

स्वतंत्रता और कर्तव्य

श्री कृष्ण ने अर्जुन से यह भी कहा कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने कर्तव्यों का पालन स्वतंत्रतापूर्वक और निस्वार्थ भाव से करना चाहिए। उन्होंने युद्ध को एक कर्म के रूप में देखने और उसे निस्वार्थ भाव से करने का संदेश दिया।