संत राजिन्दर सिंह जी महाराज
बचपन से ही हम अपने जीवन में कुछ न कुछ कार्य करते हुए हर समय उसमें ही व्यस्त रहते हैं। माता-पिता अपने बच्चों के लिए एक लिस्ट बनाते हैं। हमारे बचपन का जीवन एक के बाद दूसरी गतिविधि करने में ही बीत जाता है। स्कूल में हम समय पर कक्षाओं में पहुंचने के लिए दौड़ते हैं। जब हम ग्रेजुएट होते हैं, तब हम नौकरी या अन्य कोई काम करने के लिए भाग-दौड़ करते हैं। हमारे पास अनेक किस्म के कार्य होते हैं जिन्हें पूरा करने के लिए हमारा सारा जीवन व्यस्त रहता है। इसलिए जब भी हम ध्यान-अभ्यास में बैठने की कोेशिश करते हैं, तो हमें स्थिर बैठना और अपने मन को शांत करना बहुत कठिन लगता है। आमतौर पर हम अपने काम-काज को ही अधिक महत्त्व देते हैं।
जितना अधिक हम काम करते हैं उतना ही अधिक हमें अच्छा प्रतीत होता है। बहुत कम लोग स्थिर होकर मौन अवस्था में बैठने को महत्त्व देते हैं। हम सोचते हैं कि अगर हम स्थिर बैठे हैं तो हम कुछ नहीं कर रहे हैं। हमें डर लगता है कि हमें आलसी या असक्षम करार कर दिया जाएगा। हालांकि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी सभी व्यस्त गतिविधियों में से समय निकालकर स्थिर होकर मौन अवस्था में बैठना चाहिए। स्थिर रहने के जीवन में कई उद्देश्य हैं। स्थिरता में ही हमें रचनात्मक विचार आते हैं।
स्थिर रहकर ही हम मुष्किलों का हल आसानी से निकाल पाते हैं, जिससे कि हमारे संबंध भी अच्छे होते हैं। स्थिरता में वैज्ञानिक, संगीतकार, कलाकार, कवि, लेखक, तत्त्वज्ञानी और अविष्कारक एक उत्तम रचना के साथ उभरते हैं। स्थिरता में नए-नए सुझाव आते हैं, जो दुनिया में अद्भुत बदलाव लाते हैं। इसी तरह स्थिर होकर ही हम अपनी आत्मा को जान सकते हैं और पिता-परमेष्वर को पा सकते हैं। हम बाहरी गतिविधियों द्वारा परमात्मा को नहीं पा सकते।
परमात्मा को केवल अंतर में ही पाया जा सकता है। आध्यात्मिक रूप से विकसित होने के लिए ध्यान में स्थिरता की बहुत ही जरूरत है। हमारा जीवन व्यस्तता की पटरी पर दौड़ती ट्रेन की तरह है। हम व्यस्त रहने के इतने आदी हो चुके हैं कि अपनी गतिविधियों को रोक कर शांति से बैठना हमें मुष्किल लगता है। जैसे किसी समस्या का हल निकालने या कुछ नया बनाने के लिए अपने व्यस्त जीवन में से समय निकालकर हम उस तरफ ध्यान देते हैं। ठीक इसी तरह स्वयं को जानने और परमात्मा को पाने के लिए हमें शांत होकर बैठने की आवष्यकता है। जब हम शांत होकर बैठते हैं तो शायद दूसरों की नजर में हम कुछ नहीं कर रहे होते लेकिन ऐसी अवस्था में हम स्थिर व शांत होकर स्वयं को जानने की और परमात्मा को पाने की कोषिष कर रहे होते हैं। केवल कुछ ही लोग परमात्मा को क्यों पाते हैं? क्योंकि वे ही ऐसे लोग हैं जो अपना ध्यान बाहर से हटाकर अंतर्मुख करते हैं। अगर हम शांत होकर बिना कुछ किए केवल बैठना सीख जाएं तो हम भी सब कुछ पा लेंगे। यह बेहतर होगा कि हममें से प्रत्येक व्यक्ति को रोजाना समय निकालकर शांत होकर बैठने का अभ्यास करना चाहिये। यदि हम कुछ समय शांत होकर बैठते हैं तो इसके हमें अनेक लाभ मिलते हैं।
हम अपने काम में से कुछ समय शांत होकर यह सोच सकते हैं कि क्या हम अपना काम सर्वोत्तम तरीके से कर रहे हैं, और यदि नहीं तो इसे बेहतर कैसे किया जाए? जिससे हम काम करने के नए और बेहतर तरीके जान सकते हैं। यदि हम एक घर चलाते हैं तो कुछ समय शांति में बिताकर यह जान सकते हैं कि हम अपने परिवार की समस्याओं को कैसे हल कर सकते हैं या अपने परिवार के जीवन को कैसे बेहतर बना सकते हैं? यदि हम कला के क्षेत्र से जुड़े हैं तो हम शांत अवस्था में बैठकर अपनी रचनात्मकता पर ध्यान दे सकते हैं। अगर हम अपने दुनियावी काम में शांति से बैठने की कला सीख गए तो हम इसे अपने ध्यान-अभ्यास में भी लाभदायक पाएंगे। हम स्वयं यह अनुभव करेंगे कि हमारे अंदर बैचेनी और हलचल कम से कम होगी। तब हम लंबे समय तक स्थिर रहने की क्षमता को बढ़ा सकेंगे।
हम अपने मन को शांत करके अपनी आत्मा की आवाज को सुन पाएंगे। जब हम शांत होते हैं तो हम पाते हैं कि हमारी आत्मा परमात्मा को पाने के लिए पुकार रही है। अगर हम शांत रहते हैं तो हम परमात्मा की आवाज यानि प्रभु के शब्द को सुन सकते हैं। हम स्थिर रहकर समय के साथ अपनी सभी गतिविधियों को संतुलित कर सकते हैं। जिसके फलस्वरूप हम अपने ध्यान-अभ्यास में भी उन्नति करते हैं। ऐसा करने से हम पाएंगे कि हम प्रभु के प्रेम का अनुभव अपने अंतर में कर पा रहे हैं और परमात्मा को पाने की राह पर तेजी से चल रहे हैं।
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