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The Doors of Devotion are Open for All भक्ति के द्वार सभी के लिए हैं खुले

The Doors of Devotion are Open for All

माता अमृतानंदमयी देवी

अम्मा को अपने बचपन की कुछ घटनाएं स्मरण हो आयी हैं। अम्मा समुद्र-तट पर रहने वाले एक निर्धन परिवार में जन्मी थीं। अम्मा घर का सारा काम-काज करती थीं। आँगन में झाड़ू लगाते समय, यदि गलती से हमारा पाँव अखबार के एक टुकड़े पर पड़ जाता तो हम झुक कर उसे छू कर फिर माथे से लगाते। और यदि हम ऐसा न करते तो हमारी माँ हमारी पिटाई करती। वो हमसे कहती, ‘यह कागज सरस्वती माता है।’ हमारे यहां एक गाय हुआ करती थी। यदि हम उसके गोबर पर पाँव रख देते तो भी इसी प्रकार नमन करते। इस गोबर से घास उगाने के लिए खाद बनती है।

गाय घास खाती है, दूध देती है जो हमारे लिए आवश्यक होता है। जब हम घर में प्रवेश करते तो दरवाजे की चौखट पर सीधे पाँव नहीं रखते थे। गलती से रख भी देते तो हमें उसे नमस्कार करना पड़ता था। हमारी माँ हमें यह सब सिखाती थी। ऐसे आचार-व्यवहार से हम परमात्मा की सर्व-व्यापकता को जानना-पहचानना शुरू करते हैं। फिर उस सर्वव्यापी परमात्मा के आदर-सम्मान हेतु कुछेक नियमों का पालन करना आवश्यक हो जाता है। हम देखें, तो पाएंगे कि इस जगत् में प्रत्येक वस्तु का मूल्य है, अपना एक महत्व है। किसी भी वस्तु का तिरस्कार नहीं किया जा सकता।

माया का अर्थ असत नहीं होता; बल्कि वो जिसमें सदा परिवर्तन होते रहता है। बचपन से ही हमें सिखाया जाता है कि हम प्रत्येक वस्तु का सम्मान करें। भगवान और भागवत् भिन्न नहीं हैं। इसी प्रकार जगत् और ईश्वर भी पृथक नहीं। अत: हमें विश्व की प्रत्येक वस्तु की आधारभूत एकता पर दृष्टि रखनी चाहिए। यही कारण है कि अम्मा अनजाने में भी किसी वस्तु पर पाँव रख दें तो रुक कर उसे नमस्कार करती हैं। यद्यपि अम्मा को ज्ञात है कि वो और परमात्मा एक ही हैं तब भी वो प्रत्येक वस्तु को नमस्कार करती हैं। सीढियां तथा ऊपरी मंजिल-सभी एक ही प्रकार के मसाले से बनते हैं – ईंटें, सीमेंट और कंक्रीट। फिर भी अम्मा उन सीढ़ियों का तिरस्कार नहीं कर सकती जिन्होंने उन्हें ऊपरी मंजिल तक पहुँचाया। वो उस मार्ग को भुला नहीं सकती जिसका उन्होंने अनुगमन किया। अम्मा उन सब विधि-विधानों का आदर करती है जो व्यक्ति के आत्मबोध के लक्ष्य की ओर प्रगति में सहायक होते हैं। कुछ बच्चे प्रश्न करते हैं कि अम्मा को अब इन नियमों के पालन करने की क्या आवश्यकता है? जब बच्चे को पीलिया हो तो डॉक्टर खाने-पीने की कुछ वस्तुओं पर रोक लगा देता है। उदाहरण के लिए, बच्चे को नमक से परहेज करना चाहिए। यदि वो खायेगा तो रोग बढ़ जायेगा।

किन्तु नमक के बिना बच्चे को भोजन में स्वाद नहीं आता। उसके हाथ कोई स्वादु पदार्थ लग जाए तो वो उसे छोड़ेगा नहीं। तो ऐसे में माँ क्या करेगी? माँ सारे परिवार के लिए बिना नमक का भोजन बनाएगी। यद्यपि शेष परिवार तो नमक खा सकता है, किन्तु उस बीमार बच्चे की खातिर सब लोग नमक का त्याग करते हैं। यद्यपि अम्मा को बचपन में सिखाये नियमों के अनुसरण की अब आवश्यकता नहीं रहे, फिर भी वो अपने शिष्यों के कल्याणार्थ ऐसा करती हैं। सनातन धर्म हमें प्रत्येक वस्तु, व्यक्ति में परमात्मा का दर्शन करने की शिक्षा देता है। तो, उस दृष्टि से नरक है ही नहीं। चाहे तुमने कितने ही पाप क्यों न किये हों, उन्हें सत्कर्मों तथा आत्मशुद्धि हेतु की गयी साधनाओं द्वारा धोया जा सकता है और अंतत: आत्मबोध की प्राप्ति की जा सकती है। सनातन धर्म हमें यही सिखाता है। सच्चे हृदय से पश्चात्ताप करें तो प्रत्येक पापी के लिए मुक्ति की सम्भावना है। बच्चों, यह जान लो कि कोई पाप ऐसा नहीं जो पश्चात्ताप से धोया न जा सके।

किन्तु हम स्नान करते हुए हाथी जैसे न बनें जो पानी से बाहर आते ही मिट्टी ले कर फिर से अपने शरीर पर उंडेल लेता है। बहुत से लोग ऐसा ही करते हैं। जीवन की राह पर चलते-चलते हमसे गलतियां हो सकती हैं। गलती हो जाए तो निराश हो कर बैठ न जाएँ। यदि हम फिसल कर गिर जाएँ तो हमें यह सोच कर वहीं पड़े नहीं रहना चाहिए कि यहाँ जमीन पर पड़े रहने में कितना सुख है! हमें उठ कर फिर से अपने गंतव्य की ओर चल देना चाहिए। गिरने के लिए निराश न हो कर उठ खड़े होवो और आगे चलो। यदि आप पेन्सिल से लिख रहे हैं और कोई गलती हो जाए तो उसे रबर से मिटा कर ठीक कर सकते हैं। परन्तु यदि इस प्रक्रिया को बार-बार दोहराते रहेंगे तो आखिरकार कागज फट जायेगा। तो, हम गलतियां करें तब भी सच्चे मन से कोशिश करें कि फिर उन्हें न दोहराएँ। गलती मनुष्य से हो जाती है किन्तु हमें सावधान रहना चाहिए तथा हार नहीं माननी चाहिए। सनातन धर्म कभी किसी को इतना बड़ा अपराधी घोषित कर के उसका सर्वथा त्याग नहीं कर देता कि उसमें अब सुधार की कोई सम्भावना ही नहीं रही । ऐसा करना तो एक ऐसे अस्पताल के निर्माण समान होगा जिसमें रोगियों को प्रवेश करने की मनाही हो। अध्यात्म के मार्ग पर चलते हुए, हमें किसी को अयोग्य घोषित कर नकारना नहीं चाहिए। एक टूटी हुई घड़ी भी दिन में दो बार सही समय बताती है।

अत:, स्वीकारने का दृष्टिकोण अपनाएँ। कभी किसी को यह कह कर न ठुकराएँ कि, “तुम बेकार हो!” ऐसे अपशब्द कभी नहीं कहने चाहियें। आप बच्चों को भी ऐसे शब्द कहेंगे तो वे क्रोधित हो जायेंगे, फिर बड़ों की तो बात ही क्या। ऐसे अपमान भरे शब्द लोगों में पाशविक भावनाओं तथा बदला लेने की भावनाओं की आग को हवा देने का काम करेंगे और वे अपनी गलतियों को दोहराते रहेंगे। जबकि हम यदि उनके गुणों पर दृष्टि रखें और धैर्यपूर्वक उनकी नकारात्मक वृत्तियों से मुक्ति पाने में सहायता करें तो हम उनके उत्थान में, उनके गुणों को उभार कर ऊपर लाने में सहायक सिद्ध हो सकते हैं अभी अम्मा ने बताया न कि बचपन में सीखी हुई अच्छी आदतों को जीवन भर सहेज कर क्यों रखा? इसी प्रकार, बच्चों, तुम्हें भी सनातन धर्म के मूल्यों को जीवन का एक हिस्सा बना लेना चाहिए। लुटेरे रत्नाकर की जीवन-कथा हम सबके लिए एक अच्छा सबक है। अपने परिवार के पालन के लिए, वह जंगल में से गुजरने वाले प्रत्येक व्यक्ति को लूटता था। यद्यपि वे ऋषि जिन्हें वह लूटने चला था, यह जानते थे फिर भी उन्होंने उसे नकारा नहीं।

यदि वे उसकी भर्त्सना करते तो कदाचित उसका रूपान्तरण कभी न होता, वो महर्षि वाल्मीकि कभी न होता! उनके धैर्य तथा मार्गदर्शन के चलते, नृशंस रत्नाकर, जो ‘राम’ शब्द तक नहीं बोल पाता था, एक महर्षि हुआ और रामायण का रचयिता हुआ-एक ऐसा ग्रन्थ जिसने लाखों लोगों को, धर्म का मार्ग दिखा कर, उद्धार किया। लोग गलतियां करते हैं क्योंकि वे अपने सत्-स्वरूप से अनभिज्ञ हैं। अत:, उनकी उपेक्षा अथवा निन्दा करना तो कोई समाधान नहीं है। बल्कि हमें उन्हें सही ज्ञान दे कर, उनका मार्ग प्रशस्त करना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को श्रद्धा सहित इस ओर प्रयास करना चाहिए।

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