योगाचार्य सुरक्षित गोस्वामी
शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मन:।
नात्युछिृतं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम।। गीता 6/11
अर्थ: पवित्र स्थान पर, जो न अधिक ऊँचा हो और न अधिक नीचा, वहाँ कुशाघास, मृगछाला व वस्त्र एक के ऊपर एक बिछाकर अपने आसन को स्थिर करके।
व्याख्या: ध्यान कहां बैठकर किया जा रहा है वह स्थान बड़ा मायने रखता है, क्योंकि वहां की ऊर्जा अच्छी होनी चाहिए, इसलिए स्थान तय हो जाने के बाद वहीं ध्यान करना चाहिए। कुछ लोग तो अपने बिस्तर पर बैठकर ही ध्यान लगाते हैं, जो उचित नहीं है। स्थान का चयन करने के लिए ध्यान देना चाहिए कि वह साफ-सुथरा हो, वहाँ कोई बदबू, मच्छर आदि ना हो, स्थान ऊबड़-खाबड़ न होकर समतल हो, वह बहुत ऊँचा या बहुत नीचा न हो, फिर ऐसे स्थान पर पहले कुशाघास फिर मृगछाला व उसके ऊपर एक वस्त्र बिछाना चाहिए। कुशाघास और मृगछाला इसलिए बिछाई जाती थी कि कीड़े, मकोड़े, बिच्छू, सांप आदि जहरीले जीव-जंतु ध्यान में बैठे साधक को काटें नहीं, क्योंकि पहले घर भी कच्चे होते थे अथवा जंगल,पहाड़ी या गुफा आदि में बैठकर ध्यान करते थे इसलिए यह आसन बिछाना अच्छा रहता था। लेकिन अब केवल एक कपडे का आसन बिछाना ही पर्याप्त है।
समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिर:।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिश्श्चान्वलोकयन।। गीता 6/13
अर्थ : काया, सिर व गर्दन को सीधा और स्थिर रखते हुए नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि एकाग्र कर अन्य दिशाओं को न देखता हुआ।
व्याख्या : इस श्लोक में बैठने का तरीका बताया जा रहा है कि जब भी बैठो काया, सिर व गर्दन को सीधा करके ही बैठो । यह बैठने का वैज्ञानिक तरीका है, सीधे बैठने से रीढ़ का हड्डी में स्थित सुषुम्ना नाड़ी में बहती ऊर्जा सही प्रकार से ऊपर की तरफ बहने लगती है, जिससे शरीर तो स्वस्थ रहता ही है साथ ही मन शांत, एकाग्र व उत्साह से भरा रहता है और यदि हम सिर झुकाकर बैठेंगे तो मन में नकरात्मक ख्याल आ जाते हैं। अत: दिनभर सीधा बैठो, फिर जब ध्यान के लिए बैठो तो भी काया, सिर व गर्दन को सीधा बैठकर शरीर को बिना हिलाये-डुलाये स्थिर होकर बैठ जाओ। अब अपनी दृश्यों की ओर भागती आँखों को नासिका के अगले हिस्से पर ले आओ और दृष्टि को यहाँ जमा लो । यह ध्यान के लिए बैठने का सही तरीका है।
सुहृन्मित्रायुदार्सीनमध्यस्थद्वेषबन्धुषु।
साधुष्वापि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते।। गीता 6/9
अर्थ : जो सुहृद, मित्र, शत्रु, मध्यस्थ, द्वेष और बंधुओं, साधुओं और पापियों में समभाव रखता है, वही अत्यंत श्रेष्ठ है।
व्याख्या : किसी को हम कहते हैं कि यह मेरा घनिष्ठ मित्र है और जिससे लड़ पड़ते है उसको शत्रु कहते हैं । जो पक्ष व विपक्ष में एक जैसा रहता है उसको मध्यस्थ कहते हैं। जिससे मनमुटाव हो उससे द्वेष कर लेते हैं और परिवार से जुड़े सगे-सम्बन्धियों को देखकर उनको बंधू मानते हैं, पुण्यात्माओं या सन्यासियों को देखकर उनको साधु कहते हैं और पाप कर्म करने वालों को पापी कहते हैं।अत: हम, हमारे संपर्क में आने वाले लोगों के लिए अलग-अलग भाव बनाये रखते हैं, जबकि ये सब उपाधियां तो हमने अपने हिसाब से दी हैं लेकिन आत्मा करके तो हम सब एक ही है। भगवान् कह रहे हैं, जो अत्यन्त श्रेष्ठ पुरुष होते हैं वो इन सभी प्रकार के व्यक्तियों में समभाव ही रखते हैं। समभाव में योग-युक्त योगी किसी के गुण-दोष नहीं बल्कि उसमें स्थित आत्मा ही देखता है। ध्यान रहे हमें केवल समभाव रखना है, समवर्तन नहीं।
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