जैन मुनि तरूण सागर
राष्टसंत
अच्छे पुण्य कर्म उदय में आने से गुरुओं का चातुर्मास प्राप्त होता है। अब संत आए हैं, जितना संतों को लूटना हो लूट लो। क्योंकि ये अवसर बार बार नहीं मिलता। अरे आसमान में छाए बादल खाली जा सकते हैं, पर धर्म करणी की ओर से गुरुओं की सेवा कभी खाली नहीं जाती।
ये संत ही हैं जो हमें धर्म के मार्ग पर चलना सिखाते हैं। संत मुनि का अपना कोई घर नहीं होता, वह तो भक्तों के दिलों में वास करते हैं। यह कितना आश्चर्य है कि जिनका कोई पता नहीं है वहीं लोगों को जिदगी की असली मंजिल का पता बताते हैं। चातुर्मास का शाब्दिक अर्थ होता है-चार मास और चार वर्षवास। इन चारों महीनों के लिए संत मुनिराज एक स्थान पर स्थिर हो जाते हैं। चार महीनों में शुद्धि हो रही है पर अंदर नहीं तभी तो आज हर गली-मोहल्ले में बाजार में ब्यूटी पार्लर खुलते जा रहे हैं। अरे तन की सुंदरता के लिए ब्यूटी पार्लर है पर मन की सुंदरता का ब्यूटी पार्लर सत्संग है। आप पाप तो मन पर लगाते हैं पर सफाई तन की करते हैं। अगर मन पर गंदगी जमा हुई है और तीर्थो पर जाकर पानी में डुबकियां लगा रहे हैं तो क्या सारे पाप धुल जाएंगे? नहीं ना। तो क्यों न हम अंतरमन में एक बार डुबकी लगाएं। मुनिश्री तरुण सागरजी जन-जन के मन में झांकने और उनकी अंतरचेतना को झकझोरने वाले चलते-फिरते यंत्र थे। मन की अतल गहराइयों में छिपी समस्याओं को भांपने में उन्हें पल भर की देर नहीं लगती थी। अभावों से घिरे इलाके शोषण का सबसे बड़ा मुकाम होते हैं। दरिद्रता लोगों को अन्याय से रूबरू कराती है।
विद्रूपताओं और विसंगतियों से भरे लोगों के जीवन को मुनि तरुण सागरजी ने बचपन से देखा था। उनके विचारों में निहित क्रांति के भावों की बुनियाद में शायद इन्हीं आंखों देखे प्रसंगों की भी कोई न कोई भूमिका रही होगी। तरुण सागरजी सांसारिकता के बीच रहकर भी लोगों को अध्यात्म के दर्शन कराते हैं। रोजमर्रा के जीवन में आने वाले घुमावदार पड़ावों और उनकी चुनौतियों से जूझने के बेहद आसान तरीके उनके पास थे। उनके शब्दों और वाणी में एक आग है। इस आग की वैचारिक अभिव्यक्ति का दायरा उन्हें जैन समाज के दायरे से बाहर निकालकर उनकी दुनिया को व्यापक करता था। उनके विचार और उसका विषय कभी भी धर्म की सीमा में सिमटा नजर नहीं आता था। वे उन तमाम लोगों को सोचने को विवश करते थे जिनके भीतर एक अच्छा इंसान किसी कोने में दबा बैठा थे। हर तरह के धर्मावलंबियों को अपने विचारों से वे आकर्षित करते थे। उनके विचारों में पाखंड दूर-दूर तक नजर नहीं आता था। वे एक तपस्वी, साधक व संन्यासी के बतौर अपनी जिंदगी समाज के लिए दे चुके थे। इसीलिए लोग उन्हें ‘जैन मुनि’ नहीं ‘जनमुनि’ कहते थे।
उनकी नसीहतें हरेक के जीवन में कभी न कभी या तो घट चुकी होती हैं या फिर वे उनके आसपास कहीं घटने को होती थे, लेकिन इन घटनाओं के निहितार्थ और उनकी पुनरावृत्ति रोकने के जो तौर-तरीके तरुण सागरजी बताते थे वे किसी के लिए भी सबक हो सकते थे। लोक जीवन में दिन-ब-दिन बढ़ती चुनौतियों की नब्ज पर उनका हाथ था। भौतिकवाद में फंसे लोगों को आध्यात्मिकता की राह पर ले जाने के वे इतने आसान रास्ते बताते थे कि कोई सहसा उस पर यकीन ही नहीं कर सकता। 2 सितंबर, 2005 को मेरी मां अस्पताल में मृत्युशैया पर थी और उस पूरी रात अस्पताल में बैठे-बैठे मैं तरुण सागरजी की किताब ‘कड़वे प्रवचन’ पढ़ता रहा। इस किताब ने मुझे मां के बिछोह के असीम दर्द को सहने की हिम्मत और हौसला दिया। उनकी नसीहतें अतीत पर नहीं, वर्तमान पर केंद्रित हैं। उनकी दृष्टि उस भविष्य पर भी बराबरी से टिकी है, जिसका सामना आज की और भावी पीढ़ी को करना है। उनके बारे में लोग यह भी कहते थे कि उनके विचार कहीं बखेड़ा करवाएंगे लेकिन उनके विचार तो समाज में अलख जगा रहे हैं। उनके विचारों में अतल गहराइयां थी।
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