धर्म

सद्गुरु को पाने के लिए जीवन में सर्वप्रथम शिष्यत्व है जरूरी

इंडिया न्यूज, नई दिल्ली :

सुधांशु जी महाराज

जीवन को फलित करने के लिए सत का सान्निध्य जरूरी है। सत का जागरण तभी होता है, जब अंत:करण में ‘श्रद्धा’ स्थित हो। यह ‘श्रद्धा’ परमात्मा प्रदत्त एक अनमोल तत्व है। जो जीवन की पवित्रतम गहराई में कहीं बिन्दु मात्र में स्थित रहता है, पर इसे फलीभूत होने के लिए सत्संग जरूरी है।

सत्संग का अभिप्राय

सत्संग अर्थात किसी सत्पुरुष का सान्निध्य। सतपुरुष वही है, जिसमें परमात्मतत्व से ओतप्रोत आदर्श स्त्रोत्र झर रहा हो। जिसमें परमात्मानुशासन के साथ परमसत को धारण करने की क्षमता हो और उस सत में आम जनमानस को सद्गुणों से परिचित कराने की कला भी हो। ऐसा सत्पुरुष गुरु ही हो सकता है। इसलिए संतगण गुरु के निकट रहने की हर व्यक्ति को सलाह देते आये हैं। गुरु के समीप होना, उसके चिंतन में खोना, उसी में डूबे रहना ही जीवन की परम उपलब्धि है।

गुरु को खोजना व पहचानना

इस संदर्भ में दो बातें बहुत ही महत्वपूर्ण हैं, प्रथम गुरु को खोजना व पहचानना, दूसरा गुरु पर श्रद्धा को टिकाये रखना। श्रद्धा के अभाव में सामने खड़ा परमात्मा भी व्यर्थ है। श्रद्धा जितनी गहरी होगी, गुरु उतना ही विराट अनुभव होगा। महाभारत के बीच अर्जुन कृष्ण में अतल गहराई तक डूब गये, तो उनमें अर्जुन को विराट परमात्मा के दर्शन होने लगे और आगे का मार्ग भी स्पष्ट हो गया कि करिष्ये वचनम् तव। अन्यथा वही कृष्ण अर्जुन को श्रद्धा के अभाव में एक उपदेशक मात्र लग रहे थे। अर्जुन की श्रद्धा ने ही कृष्ण के प्रति कृष्णं वंदे जगद्गुरु का प्रणम्यभाव जगाया। वास्तव में श्रद्धा सर्वप्रथम शिष्यत्व ही जगाती है, तत्पश्चात् सामने वाले में अर्थात् जिसके प्रति श्रद्धा है, उसमें गुरुत्व प्रकट हो उठता है। वास्तव में श्रद्धा से शिष्यत्व जन्म लेता है, शिष्यत्व जगने से गुरु विराट आकार लेकर शिष्य के सामने आ खड़ा होता है। दूसरे शब्दों में कि सद्गुरु को पाने के लिए जीवन में सर्वप्रथम शिष्यत्व जरूरी है। जिस स्तर का हमारा शिष्य भाव होगा, उसी स्तर के गहरे गुरुत्व की हमें प्राप्ति होगा।

शिष्यत्व कैसे आता है

वास्तविक शिष्यत्व के लिए अर्जुन, विवेकानन्द, शिवाजी, वीर हनुमान स्तर की शिष्य भावना होनी चाहिए। राम के दल में अनेक लोग थे, पर सभी राम की निजता के अनुरागी थे, क्योंकि वे राम को महामानव रूप में देखते हैं, लेकिन हनुमान को राम से अधिक ‘राम का काज’ प्रिय इसलिए लगा क्योंकि उनमें राम के प्रति गहरी श्रद्धा थी, ही शिष्यत्व था। श्रद्धा के बल पर वे साहसी थे, सद्संकल्प एवं समर्पण के धनी थे, असली शिष्य जिसमें लेश मात्र का कर्तृत्व अभिमान नहीं था। प्रभु स्मरण एवं प्रभु समर्पण ही उनके जीवन का सार था। इसी श्रद्धामय समर्पण के बल पर उन्होंने अपनी भावना को राम के प्रति गुरुत्वमय पराकाष्ठा पर पहुंचाया। गुरु के प्रति यह श्रद्धा ही शिष्य को उच्च आध्यात्मिकता तक पहुंचाती है। एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि श्रद्धा को प्रगाढ़ होने में वर्षों लग जरूर जाते हैं, पर गुरु की परीक्षायें तक उसमें बाधा खड़ी नहीं कर सकती हैं। श्रद्धा का कार्य है साधक को बाधाओं के पार ले जाना। यद्यपि कई बार परीक्षा काल में शिष्य गुरु की निकटता छोड़ने का मन बनाता है, पर श्रद्धा उसे ऐसा करने से रोकती है और शिष्य इन्हें भी पार कर जाता है, इस प्रकार वह श्रद्धावान व्यक्ति असली शिष्य बन गुरुकृपा का अधिकारी बनता है। प्रतीक्षा एवं परीक्षाओं के बीच से ही शिष्य का गुरुत्व सफल होता है। इसी स्तर की श्रद्धा से गुरु की कृपा बरसती है और शिष्य के अस्तित्व की सूक्ष्म गहनतम परतें खुलती हैं। परिणामत: गुरु शिष्य एकाकार होता है और गुरु के सम्पूर्ण आयाम उस शिष्य में फलीभूत होते दिखते हैं। गुरु पर्व इसी स्तर के शिष्यत्व जागरण वाला पर्व है।

गुरु पर्व है गुरुपूर्णिमा

सामान्यतया गुरुपूर्णिमा पर शिष्य अपने सद्गुरु के प्रति सम्मान और सत्कार व्यक्त करता है। आर्षग्रंथों में वर्णन है कि गुरुपूर्णिमा के अवसर पर ब्रह्मा, विष्णु और महेश की शक्तियां गुरु में प्रकट होती हैं, जिसके सहारे शिष्य में प्रगाढ़ भक्ति, शक्ति जागती है और भाग्य का उदय होता है। शिष्य को इस अवसर पर मिले गुरु के गहराई भरे आशीष से उसके रोग दूर होते हैं, समस्याएं सुलझती हैं और प्रायश्चित पूरा हो महानता का मार्ग प्रशस्त होता है। जिस प्रकार समुद्र इस दिन ज्वारोन्मुख होता है, ठीक ऐसे ही गुरुपूर्णिमा पर गुरु की आध्यात्मिक शक्तियां ज्वारोन्मुख हो उठती हैं। गुरु अन्दर से उमड़ पड़ता है और इस अवसर पर शिष्य की भी पात्रता अनेक गुना बढ़ी होती है। दोनों के बीच का यह सूक्ष्म आदान-प्रदान सदा-सदा के लिए गुरु-शिष्य दोनों को अनुदानों से कृतकृत्य कर देता है। इसीलिए ऋषियों ने इस अवसर को सावधानी से उपयोग का निर्देशन दिया है। इस अवसर को खोना नहीं चाहिए, गुरु से झोली फैलाकर मांगना चाहिए कि तेरा नाम जपने में बरकत हो और भक्ति में रस आए। गुरु के सम्मुख इस दिन बैठकर अपने अवगुणों को स्वीकार करते हुए ज्ञान और प्रकाश की कामना करनी चाहिए। यह शिष्यत्व की समीक्षा का भी पल है। शिष्य इस दिन जो कृपाएं हुईं उनके लिए धन्यवाद करे, आभार प्रकट करे कि मैं तुम्हारी कृपा का पात्र बना रहूं।

शिष्य का कर्त्तव्य क्या है

यह कटु सत्य है कि शिष्य के श्रद्धा की ऊंचाई देखकर गुरु का हृदय कमल की भांति खिल उठता है। इस प्रकार शिष्य की पात्रता को देखकर गुरु इस अवसर पर उसे किस गूढ़ विद्या का मालिक बना दे, इसकी कल्पना ही नहीं की जा सकती। शास्त्र कहता है कि श्रद्धा की सम्पत्ति की रक्षा करना हर शिष्य का काम है और शिष्य की अगाध श्रद्धा में फल-फूल लगाना गुरु का काम है। अत: श्रद्धा की अग्नि को गुरु सेवा के हर अवसर का उपयोग करते हुए बुझने न दें। गुरु के प्रति जितनी गहरी श्रद्धा होगी, उतनी ही शिष्य में गुरु इच्छा पूरी करने की हूक उठेगी। सेवा, साधना, दान के भाव जगेंगे और ज्ञान फलीभूत होता जाएगा। पर यह सब दिखावा मात्र न हो, व्यक्ति जितना दिखावा करेगा, उतनी अशांति आयेगी। शिष्य जितना श्रद्धावान-सीधा सरल होगा, उतनी ही शांति आयेगी। इस पर्व पर हर गुरु की परमात्मा से यही प्रार्थना रहती है कि हमारे शिष्य का अंत:करण श्रद्धा भरा हो, जिससे उसके जीवन व घर-परिवार में सुख-सौभाग्य बढ़े। शास्त्रमत है कि शिष्य और गुरु दोनों का सम्बन्ध सांसारिक न होकर, पूर्णत: आत्मिक व आध्यात्मिक होने के कारण ही युगों-युगों से मान्य है और जीवन व समाज को धन्य बना रहा है। गुरु-शिष्य का सम्बंध एक जन्म का नहीं होता, अपितु अनेक जन्मों का, जन्म-जन्मांतर का होता है।
शिष्य व गुरु के जन्म अवश्य बदल सकते हैं, पर दोनों के बीच जुड़ी प्रगाढ़ डोर कभी नहीं टूटती। शिष्य को शिखर आरोहण कराना गुरु का संकल्प होता है। भले जन्मों लगे। अज्ञान और अंधकार का परदा सद्गुरु ही हटाते हैं, गुरु ही ज्ञान देकर व्यक्ति को सत्य-असत्य का बोध कराते हैं। सद्गुरु ही शिष्य में आत्मचिन्तन, आत्मविश्लेषण और आत्मसाक्षात्कार की इच्छा पैदा करते हैं। बस गुरु से यह सब कुछ प्राप्त करने के लिए उनके प्रति पूर्ण श्रद्धा, विश्वास, आस्था बनाये रखना अत्यन्त आवश्यक है। उनके प्रति आदर-सम्मान की भावना, विनम्रता, उनके उपदेशों का श्रवण, उनके निदेर्शों का पालन, सेवा प्रकल्पों में अपने अंशदान का समर्पण व गुरु आदेशों का पालन ही वे सीढ़ियां हैं, जिनसे शिष्यत्व गहराता है। इस प्रकार गुरु द्वारा बताये मार्ग पर चलने से गुरु ज्ञान अमृत बनकर शिष्य के मन की मैल को धो डालता है। यही गुरु ज्ञान आत्मबोध करवाता है। कहते भी हैं कि ‘गुरु की तुष्टि से ही भगवान प्रसन्न होते हैं। गुरु को प्रसन्न किये बिना ईश्वर के दर तक पहुंचने की कोई सम्भावना नहीं होती। अत: शिष्य को सर्वदा गुरु का चिन्तन करना चाहिए, उसका आदेश मानना चाहिए, उनकी कृपा की याचना करनी चाहिए और अपने गुरु को सादर नमस्कार करना चाहिए।’
यस्य प्रसादाद् भगवत्प्रसादो यस्याप्रसादन्न गति कुतोत्रपि।
ध्यायन्स्तुवंस्तस्य यशस्तिसन्ध्यं वन्दे गुरो: श्रीचरणारविन्दम।।
गुरुपूर्णिमा शिष्यत्व की पूर्णता की अनुभूति का ही तो महोत्सव है। एक बात और गुरु कृपा पाने के लिए शिष्य में पात्रता के विकास की जरूरत है । शिष्य की पात्रता गुरु की मूल प्रकृति को आत्मसात करने की क्षमता जगाता है। पात्रता बढ़ने पर श्रद्धा की गहराई बढ़ती है। दूसरे शब्दों में श्रद्धा गहरी होने पर शिष्य की पात्रता गहरी हो जाती है। ये दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। जिससे गुरु अनुदान स्वत: मिलता है। भारत गुरुओं का देश है। गुरुओं ने विश्व भर में अपने सद्ज्ञान की रश्मियों से लाखों-करोड़ों के हृदयों को आलोकित किया है, उन्हें सत्यमार्ग पर प्रेरित किया है, उनके मन में भगवद्प्रेम की ज्योति प्रकाशित की है। इसलिए मानवता के उद्धारक हैं गुरु।
वास्तव में गुरु वह चाबी हैं, जिनसे शिष्य के भाग्य, काल-समय व ईश्वर के द्वार का ताला खुलता है। इसलिए कहते हैं संसार की तरफ लोक व्यवहार की आंखें कर लो और करतार की तरफ जाने के लिए सद्गुरु की शरण ग्रहण करो। गुरु ही शिष्य को उस पनघट पर ले जाते हैं, जहां वह अपने खाली घट को भर पाता है। गुरु दिव्यताओं, देवशक्तियों का स्त्रोत्र होता है। इसीलिए कहते हैं गुरु अकेला दिखता भर है, पर अकेला नहीं होता, उसके साथ देवता से लेकर ग्रह-नक्षत्र, परमात्मा आदि, तथा ऋ षि व गुरु परम्पराओं की शक्ति एक साथ समाहित होती है। तभी तो कहते हैं कि मनुष्य के जीवन में वह घड़ी बड़ी सुखद होती है, जब उसके जीवन में गुरु प्रकट होता है। अंदर शिष्यत्व की जिज्ञासाएं जगे और समाधान के लिए गुरु का सान्निध्य मिल जाय, तो जीवन सौभाग्य से भर उठता है। यह सौभाग्य सबके जीवन को धन्य बनाये, गुरु मिलन सफल हो, शिष्य श्रद्धा की गहराई का मूल्य आंक सके, जीवन धन्य बने यही गुरु पर्व पर हर गुरु की अनन्तकाल से कामना रही है।

Mukta

Sub-Editor at India News, 7 years work experience in punjab kesari as a sub editor, I love my work and like to work honestly

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