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महाभारत का वो योद्धा जो बिना सामने आये लड़ रहा था युद्ध, किसी को नहीं दिया दिखाई, पांडव-कौरव दोनों के साथ किया ये काम?

Prachi Jain • LAST UPDATED : October 22, 2024, 10:15 am IST

India News (इंडिया न्यूज), Vidur In Mahabharat: विदुर महाभारत के सबसे बुद्धिमान और नीतिज्ञ पात्रों में से एक थे। वे हस्तिनापुर के प्रधानमंत्री, पांडवों और कौरवों के चाचा, और एक कुशल राजनीतिज्ञ थे। विदुर ने जीवनभर धर्म और न्याय के मार्ग पर चलने का प्रयास किया, लेकिन इसके बावजूद उन्होंने महाभारत के युद्ध में हिस्सा नहीं लिया। इस निर्णय के पीछे कुछ गहरी धार्मिक, राजनीतिक, और व्यक्तिगत कारण थे। आइए जानते हैं पूरी कहानी:

1. न्यायप्रियता और धर्म की रक्षा

विदुर हमेशा न्याय, धर्म और सत्य के प्रति प्रतिबद्ध थे। वे हस्तिनापुर के प्रधानमंत्री होने के नाते, राजदरबार के महत्वपूर्ण फैसलों में अपनी भूमिका निभाते थे। वे पांडवों और कौरवों के बीच शांति स्थापित करना चाहते थे, क्योंकि वे जानते थे कि युद्ध विनाशकारी होगा और इससे केवल परिवार की हानि होगी।

उन्होंने कई बार धृतराष्ट्र और दुर्योधन को समझाने की कोशिश की, कि पांडवों के साथ अन्याय न करें और राज्य का उचित बंटवारा करें। लेकिन उनकी नीतियों को नजरअंदाज कर दिया गया।

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2. राजधर्म और निष्पक्षता

विदुर, धर्मराज यम के अवतार माने जाते हैं। उनका जीवन हमेशा धर्म का पालन करने में बीता। उन्होंने राजधर्म का पालन करते हुए निष्पक्षता बनाए रखी। महाभारत के युद्ध में, दोनों पक्षों के प्रति उनकी निष्पक्षता एक बड़ी वजह थी कि वे युद्ध में किसी एक पक्ष के साथ खड़े नहीं हो सके।

चूंकि विदुर के लिए न्याय और धर्म सबसे ऊपर थे, वे अपने भाइयों या भतीजों के साथ युद्ध में जाने को गलत मानते थे। उन्हें लगा कि युद्ध का हिस्सा बनना उन्हें अपनी नीतियों के खिलाफ जाने के बराबर होगा।

3. धृतराष्ट्र और दुर्योधन के व्यवहार

विदुर ने कई बार धृतराष्ट्र को युद्ध से बचने की सलाह दी थी, लेकिन धृतराष्ट्र ने हमेशा अपने बेटे दुर्योधन का समर्थन किया। दुर्योधन विदुर को अपना शत्रु मानता था क्योंकि विदुर हमेशा पांडवों का पक्ष लेते दिखते थे, जो कि न्यायसंगत था।

विदुर ने देखा कि धृतराष्ट्र ने हमेशा अपने बेटे के प्रति अंध प्रेम में गलत फैसले लिए, जिससे हस्तिनापुर का पतन हो सकता था। इसलिए, विदुर ने धृतराष्ट्र और दुर्योधन के अनुचित व्यवहार से खुद को अलग कर लिया।

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4. नीति और शांतिदूत की भूमिका

विदुर ने महाभारत युद्ध से पहले कई बार शांतिदूत की भूमिका निभाई। उन्होंने कोशिश की कि युद्ध को रोका जा सके, लेकिन उनकी सलाह अनसुनी रह गई। वे जानते थे कि युद्ध से सिर्फ विनाश और दुख मिलेगा। उनका उद्देश्य था शांति की स्थापना, लेकिन जब उन्होंने देखा कि उनकी कोशिशें असफल हो रही हैं, तो उन्होंने युद्ध से खुद को दूर रखना बेहतर समझा।

5. धृतराष्ट्र की सेवा

विदुर ने हमेशा अपने बड़े भाई धृतराष्ट्र की सेवा की और उसे अंधकार से बाहर लाने का प्रयास किया। जब युद्ध शुरू हुआ, विदुर ने धृतराष्ट्र के साथ रहने और उसकी सहायता करने का निर्णय लिया, ताकि उसे युद्ध के बाद के परिणामों से बचाया जा सके।

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निष्कर्ष:

विदुर का महाभारत युद्ध में हिस्सा न लेने का फैसला उनके नैतिक, धार्मिक और राजनीतिक सिद्धांतों से प्रेरित था। वे हमेशा न्याय, धर्म और शांति के पक्षधर रहे, और उन्हें पता था कि युद्ध से केवल विनाश ही होगा। इसलिए उन्होंने तटस्थता बनाए रखी और युद्ध के बाद धृतराष्ट्र और राज्य की सेवा में जुटे रहे। विदुर की भूमिका महाभारत में एक आदर्श नीतिज्ञ और धर्म के प्रतीक के रूप में देखी जाती है।

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