What is the importance of Shradh in life : श्राद्ध के सोलह दिनों में लोग अपने पितरों को जल देते हैं तथा उनकी मृत्युतिथि पर श्राद्ध करते हैं। ऐसी मान्यता है कि पितरों का ऋण श्राद्ध द्वारा चुकाया जाता है। वर्ष के किसी भी मास तथा तिथि में स्वर्गवासी हुए पितरों के लिए पितृपक्ष की उसी तिथि को श्राद्ध किया जाता है। पूर्णिमा पर देहांत होने से भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा को श्राद्ध करने का विधान है। श्राद्ध का अर्थ है श्रद्धा से जो कुछ दिया जाए। पितृपक्ष में श्राद्ध करने से पितृगण वर्षभर तक प्रसन्न रहते हैं।
धर्म शास्त्रों में कहा गया है कि पितरों का पिण्ड दान करने वाला गृहस्थ दीघार्यु, पुत्र-पौत्रादि, यश, स्वर्ग, पुष्टि, बल, लक्ष्मी, पशु, सुख-साधन तथा धन-धान्य आदि की प्राप्ति करता है। पितृ पक्ष में पितरों की मरण-तिथि को ही उनका श्राद्ध किया जाता है। सर्वपितृ अमावस्या को कुल के उन लोगों का श्राद्ध किया जाता हैं जिन्हें हम नहीं जानते हैं। इसके अलावा, अमावस्या और पूर्णिमा के दिन में पितरों को याद किया जाता है।
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शास्त्रों के अनुसार मनुष्य जीवन में तीन ऋण मुख्य है। ये हैं ‘देव ऋण’, ‘ऋषि ऋण’, और ‘पितृ ऋण’। इनमें से देव ऋण यज्ञादि द्वारा, ऋषि ऋण स्वाध्याय और पितृ ऋण को श्राद्ध द्वारा उतारा जाता है। इस ऋण का उतारा जाना जरूरी होता है क्योंकि जिन माता-पिता ने हमें जन्म दिया, हमारी उम्र, आरोग्य और सुख-समृद्धि के लिए कार्य और तकलीफें उठाईं उनके ऋण से मुक्त हुए बगैर हमारा जन्म निरर्थक है।
पितृ पक्ष में जब सूर्य कन्या राशि में होता है, तब पितृ लोक से पृथ्वी पर पितर इस आशा के साथ आते हैं कि उनके पुत्र-पौत्र उन्हें पिंडदान कर संतुष्ट करेंगे। ऐसा न होने पर अतृप्त इच्छा लेकर लौटे पितर दुष्ट या बुरी शक्तियों के अधीन हो जाते हैं, जिसके चलते बुरी शक्तियों द्वारा पितरों के माध्यम से परिवारजनों को कष्ट देने की आशंकाएं बढ़ जाती हैं।इसके चलते घर में कलह, झगड़े, पैसे का न रुकना, नौकरी का अभाव, गंभीर बीमारी, हालात अनुकूल होने के बाद भी शादी का न होना या टूटना, बच्चे न होना, या विकलांग बच्चों का होना आदि परेशानियां होने लगती हैं। लेकिन पितृपक्ष में अपने पितरों का श्राद्ध करने से उनकी अतृप्त इच्छाओं के पूर्ण होने से, उनकी मुक्ति के साथ ही परिवारजनों को भी उनकी तकलीफों से मुक्ति मिल जाती है।
श्राद्ध केवल पिता ही नहीं बल्कि अपने पूर्वजों का भी किया जाता है। जब कोई आपका अपना शरीर छोड़कर चला जाता है तब उसके सारे क्रियाकर्म करना जरूरी होता है, क्योंकि ये क्रियाकर्म ही उक्त आत्मा को आत्मिक बल देते हैं और वह इससे संतुष्ट होती है। प्रत्येक आत्मा को भोजन, पानी और मन की शांति की जरूरत होती है और उसकी यह पूर्ति सिर्फ उसके परिजन ही कर सकते हैं।
परिजनों से ही वह आशा करती है। श्राद्ध में पितरों को आशा रहती है कि हमारे पुत्र-पौत्रादि हमें पिण्ड दान तथा तिलांजलि प्रदान कर संतुष्ट करेंगे। इसी आशा के साथ वे पितृलोक से पृथ्वीलोक पर आते हैं। यही कारण है कि हिंदू धर्म शास्त्रों में प्रत्येक हिंदू गृहस्थ को पितृपक्ष में श्राद्ध अवश्य रूप से करने के लिए कहा गया है। अन्य कई कार्य भी श्रद्धापूर्वक किए जाते हैं। लेकिन यहां श्राद्ध का तात्पर्य पितृ पक्ष (अश्विन कृष्ण पक्ष प्रतिपदा से अमावस्या तक) में पितरों के निमित्त किए जाने वाले तर्पण और पिंडदान से है।
पौराणिक कथा के अनुसार जोगे तथा भोगे दो भाई थे। दोनों अलग-अलग रहते थे। जोगे धनी था और भोगे निर्धन। दोनों में परस्पर बड़ा प्रेम था। जोगे की पत्नी को धन का अभिमान था, किंतु भोगे की पत्नी बड़ी सरल हृदय थी।पितृ पक्ष आने पर जोगे की पत्नी ने उससे पितरों का श्राद्ध करने के लिए कहा तो जोगे इसे व्यर्थ का कार्य समझकर टालने की चेष्टा करने लगा, किंतु उसकी पत्नी समझती थी कि यदि ऐसा नहीं करेंगे तो लोग बातें बनाएंगे। फिर उसे अपने मायके वालों को दावत पर बुलाने और अपनी शान दिखाने का यह उचित अवसर लगा। अत: वह बोली- ‘आप शायद मेरी परेशानी की वजह से ऐसा कह रहे हैं, किंतु इसमें मुझे कोई परेशानी नहीं होगी।मैं भोगे की पत्नी को बुला लूंगी। दोनों मिलकर सारा काम कर लेंगी।’ फिर उसने जोगे को अपने पीहर न्यौता देने के लिए भेज दिया। दूसरे दिन उसके बुलाने पर भोगे की पत्नी सुबह-सवेरे आकर काम में जुट गई। उसने रसोई तैयार की। अनेक पकवान बनाए फिर सभी काम निपटाकर अपने घर आ गई। आखिर उसे भी तो पितरों का श्राद्ध-तर्पण करना था। इस अवसर पर न जोगे की पत्नी ने उसे रोका, न वह रुकी। शीघ्र ही दोपहर हो गई। पितर भूमि पर उतरे। जोगे-भोगे के पितर पहले जोगे के यहां गए तो क्या देखते हैं कि उसके ससुराल वाले वहां भोजन पर जुटे हुए हैं। निराश होकर वे भोगे के यहां गए। वहां क्या था?मात्र पितरों के नाम पर ‘अगियारी’ दे दी गई थी। पितरों ने उसकी राख चाटी और भूखे ही नदी के तट पर जा पहुंचे। थोड़ी देर में सारे पितर इकट्ठे हो गए और अपने-अपने यहां के श्राद्धों की बढ़ाई करने लगे। जोगे-भोगे के पितरों ने भी अपनी आपबीती सुनाई। फिर वे सोचने लगे- अगर भोगे समर्थ होता तो शायद उन्हें भूखा न रहना पड़ता, मगर भोगे के घर में तो दो जून की रोटी भी खाने को नहीं थी। यही सब सोचकर उन्हें भोगे पर दया आ गई। अचानक वे नाच-नाचकर गाने लगे- ‘भोगे के घर धन हो जाए। भोगे के घर धन हो जाए।’ सांझ होने को हुई। भोगे के बच्चों को कुछ भी खाने को नहीं मिला था। उन्होंने मां से कहा- भूख लगी है। तब उन्हें टालने की गरज से भोगे की पत्नी ने कहा- ‘जाओ! आंगन में हौदी औंधी रखी है, उसे जाकर खोल लो और जो कुछ मिले, बांटकर खा लेना।’ बच्चे वहां पहुंचे, तो क्या देखते हैं कि हौदी मोहरों से भरी पड़ी है। वे दौड़े-दौड़े मां के पास पहुंचे और उसे सारी बातें बताईं। आंगन में आकर भोगे की पत्नी ने यह सब कुछ देखा तो वह भी हैरान रह गई। इस प्रकार भोगे भी धनी हो गया, मगर धन पाकर वह घमंडी नहीं हुआ। दूसरे साल का पितृ पक्ष आया। श्राद्ध के दिन भोगे की स्त्री ने छप्पन प्रकार के व्यंजन बनाएं। ब्राह्मणों को बुलाकर श्राद्ध किया। भोजन कराया, दक्षिणा दी। जेठ-जेठानी को सोने-चांदी के बर्तनों में भोजन कराया। इससे पितर बड़े प्रसन्न तथा तृप्त हुए।
(What is the importance of Shradh in life)
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