एजुकेशन

शिक्षा की दो नई प्रवृत्तियां

अरविन्द मोहन
महामारी, टीकाकरण और राजनैतिक उठापटक की भारी भरकम खबरों के बीच अगर बारहवीं की परीक्षा और बच्चों को दिए जाने वाले अंक सम्बन्धी खबरों को मीडिया में जगह मिल गई तो उसका खैर ही मानना चाहिए। लेकिन इसी दौरान आई शिक्षा सम्बन्धी दो महत्वपूर्ण और बड़ी रिर्पोटों का दब जाना चिंता पैदा करता है और कायदे से उन पर लम्बी चर्चा होनी चाहिए- जी हां, अगर टीवी चैनल उन पर बहस कराते तो निश्चित रूप से उनकी जात भी बदलती और दर्शकों का भी भला होता. ये दो, सरकार द्वारा 70 मानकों पर तैयार स्कूल रैंकिंग रिपोर्ट और उच्चतर शिक्षा से संबन्धित पांच साल वाली रिपोर्ट है. पहली रिपोर्ट बताती है कि पंजाब के सरकारी स्कूल देश में सबसे अच्छा चल रहे हैं तो दूसरी बताती है कि उच्चतर शिक्षा में लड़कियों की हिस्सेदारी बडी तेजी से बढी है और इंजीनियरिंग की पढाई का जोर कम हुआ है। पहली पर तो दिल्ली के शिक्षा मंत्री मनीष सिसोदिया ने थोड़ा हो हल्ला मचाया भी लेकिन उसे भी मीडिया में जगह नहीं मिली। मनीष दिल्ली के सरकारी स्कूलों को दुरुस्त करने की कोशिश में मन से जुटे हुए हैं इसलिए वे दिल्ली को पांचवें स्थान पर देखकर जरूर निराश होंगे जबकि बच्चों के अंक और नतीजों में काफी सुधार हुआ है। दिल्ली के उप मुख्यमंत्री की मुख्य शिकायत पंजाब में सरकारी स्कूलोँ को सुधारने के नाम पर पैसे वालों और निजी कम्पनियों के हवाले करने और आंकड़ों मेें हेराफेरी की थी। और इस रिपोर्ट के आने के बाद पंजाब के प्रधान सचिव, शिक्षा कृष्ण कुमार ने यह दावा किया भी कि उन्होंने भवन निर्माण से लेकर स्कूलों में अन्य सुविधाएं जुटाने में आम लोगों, सान्सदों-विधायकों के कोष, पंचायतों और कम्पनियों की मदद ली, शिक्षकों की तैनाती और तबादले की नीति में सख्ती की और करोना काल मेँ कम्प्यूटर और इंटरनेट के जरिए घर बैठे सिखया जैसी योजना चलाई। कुछ साल पहले जब यह लेखक दलित शिक्षा सम्बन्धी एक कार्यशाला में हिस्सा लेने उच्च अध्ययन संस्थान शिमला गया था तब पंजाब में दलितों के बीच काम करने वाले एक स्वयंसेवी संस्था के सर्वेक्षण की रिपोर्ट पेश की गई। उसमें कहा गया था कि सरकारी धन, पंचायतों और सांसद-विधायक निधि के धन से पंजाब के सरकारी से सारे सरकारी स्कूलोँ के भवन वगैरह एकदम चाक चौबन्द हैं, अध्यापकों की कमी नहीं है, दोपहर का भोजन मिलता है लेकिन स्कूलों में ज्यादातर दलित बच्चोँ के ही आने से उनका विकास बहुत एकांगी और असंतुलित हो रहा है। बड़ी जातियों के बच्चे अंगरेजी मीडियम वाले प्राइवेट स्कूलों में जाते हैं।
पंजाब के शिक्षा सचिव कृष्ण कुमार ने भी अपनी सफलता के पीछे बुनियादी सुविधाओें की भरमार से ज्यादा चार साल पहले प्राथमिक स्तर से ही शिक्षा का माध्यम बदलकर अंगरेजी करने को मुख्य कारक माना। उन्होंने बताया कि अब हम सिर्फ चालीस फीसदी साधन ही सरकार की तरफ से दे रहे हैं और हमने 19298 स्कूलों में से 67.2 फीसदी को निजी सहयोग से स्मार्ट स्कूलों में बदल दिया है और गुरुद्वारों से अपील से लेकर हर तरह के सहयोग से यह उपलब्धि हासिल की है। पंजाब के बाद चंडीगढ़ का नम्बर है। इसके बाद तमिलनाडु और फिर केरल वगैरह हैं। तमिलनाडु मिड डे मिल और बच्चों के दाखिले के मामले में काफी समय से काम कर रहा है और उसे इसका फल मिला है। पंजाब से लगे हिमाचल का रिकार्ड भी अच्छा है लेकिन सरकारी प्रयास में निजी क्षेत्र की भागीदारी और अंगरेजी माध्यम ऐसे फामूर्ले हैं जिन्होंने पंजाब को सबसे ऊपर पहुंचा दिया है। पंजाब को इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए तय 150 अंकों में पूरे 150 अंक मिले हैं। इसी पंजाब की शिक्षा के पच्चीस साल पहले के आंकडों पर गौर करते हुए यह खुशी और हैरानी हो रही थी कि उच्च शिक्षा और मेडिकल-इंजीनियरिंग की पढाई में लडकियों की हिस्सेदारी तेजी से बढ़ रही थी और देश के बाकी राज्यों के आंकड़ों से वह काफी आगे था। तब एक जानकार ने इस तथ्य की तरफ ध्यान दिलाया कि डाक्टरी, इंजीनियरिंग और अध्यापन जैसे पेशों में लड़कियों का यही अनुपात न होना पंजाबी समाज की इस मानसिकता को बताता है कि वह औरतों से काम कराना नहीं चाहता और डाक्टर या इंजीनियर बहु या पत्नी होना शान की चीज मानता है। स्नातक होने के बाद लडके अपने काम धन्धे में लग जाते हैैं जबकि शादी का इंतजार करती लड़कियां एम.ए. और दूसरी बडी डिग्रियां लेती जाती हैं। लड़कियों की पढ़ाई का एक सच यह भी था।
और इसकी याद शिक्षा मंत्रालय की उच्चतर शिक्षा सम्बन्धी पांच साला रिपोर्ट में लडकियों का दाखिला लड़कों से ज्यादा तेजी से बढ़ने, कामर्स की पढाई में लड़कियों का लड़कों की बराबरी में आना और मेडिकल पढाई में आगे निकल जाने की उत्साहजनक रिपोर्ट देखने के बाद आई। पाच साल में उच्चतर शिक्षा में दाखिले अगर 11.4 फीसदी बढे तो लडकियों के दाखिले में 16.2 फीसदी वृद्धि हो गई। सबसे ज्यादा बढोत्तरी तो पीएचडी के दाखिले में हुई(60 फीसदी) जिसे नौकरी की मजबूरी, बेरोजगारी का समय काटने का जतन या शोध की बढती भूख में से क्या माना जाए हर कोई बता सकता है। कामर्स की पढ़ाई मेँ पांच साल में दस फीसदी का फासला भरकर लडकियाँ लडकोें की बराबरी पर आ गई हैं। जेंडर पैरिटी इंडक्स भी तेजी से सुधरा है। लड़कों का सकल पंजीकरण दर 2015-16 के 25.4 फीसदी से बढकर अगर 26.9 फीसदी हुआ है तो इसी अवधि में लडकियों का पंजीकरण दर 23.5 से बढकर 27.3 फीसदी हो गया है। और इस जेंडर वाली बात से इतर यह सूचना भी महत्वपूर्ण है कि पांच साल में बीटेक और एमटेक में दाखिले कम हो गए हैं। शिक्षा से सम्बन्धित कई और खबरें आई है-दुनिया के प्रमुख शिक्षण संस्थाओं की रैंकिंग से लेकर गुजरात के स्कूली शिक्षा में सबसे फिसड्डी होने, दाखिलोँ के मामले में बिहार में काफी सुधार होने जैसी खबरों के साथ करोना काल में दोपहर का भोजन बन्द होने से गरीब बच्चोँ की तकलीफ तक के। लेकिन ये दो रपटें बहुत महत्व की हैं और इनकी दो बातों का सर्वाधिक महत्व हैं। इसमें पंजाब द्वारा प्राथमिक शिक्षा का अंगरेजी माध्यम का अपनाने से मिली सफलता चिंता का विषय होना चाहिए. और अगर पच्चीस साल पहले की तरह अभी भी लड़कियों की उच्च और तकनीकी शिक्षा का एक उद्देश्य बड़े घर में शादी और शान की गिनती कराने भर के लिए कोई बड़ी डिग्री का चलन बढ रहा है तो यह चिंता का कारण है। यह आशंका इस चलते भी है क्योंकि कामकाजी आबादी में औरतों की हिस्सेदारी इसी तरह बढती नजर नहीं आती। हाल के वर्षों में तो उसमें कमी ही आई हैं।
Prachi

Sub-Editor at India News, 9 years work experience in Aaj Samaj as a sub editor

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