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Dayananda Saraswati and Indian Renaissance भारतीय पुनर्जागरण 19वीं शताब्दी की है देन

Dayananda Saraswati and Indian Renaissance

अनुपमा आर्य, अंबाला :

Dayananda Saraswati and Indian Renaissance : यूरोपीय पुनर्जागरण इटली में 16वीं शताब्दी में आरंभ हुआ जबकि भारतीय पुनर्जागरण 19वीं शताब्दी की देन है। भारतीय जाति अफगान, मुगल और अंग्रेजों के दमन सहती रही और इसी यातना ने वैदिक काल से चली आ रही संस्कृति को बुरी तरह से रौंद डाला। वास्तव में भारतीय पुनर्जागरण का उद्देश्य भी यही रहा कि अपनी प्राचीन सभ्यता और संस्कृति के गौरव और गरिमा को पुनर्स्थापित किया जाए।

इतिहास गवाह है कि पुनर्जागरण में बहुत से तत्वों में अह्म भूमिका निभाई परंतु सबसे महत्वपूर्ण रहे सामाजिक धार्मिक सुधारों की शुरूआत राजा राम मोहन राय ने की – परंतु जहां तक विदेशी शासन का प्रश्न था – जहां तक हमारे अस्तित्व का सवाल है, जहां तक प्राचीन ग्रंथो का गौरव था, जहां तक दूर-दृष्टि की बात थी, राय कोई क्रांतिकारी बात न कर पाए – दूसरी तरफ दयानन्द – जिन्होंने भारतीय स्वतंत्रता खैरात में न मांग कर मौलिक अधिकार के रूप में मांगी – जिन्होंने नारा दिया – ‘‘वेदों की ओर लौटो’’ वो वेदों से निकाल कर ऐसी बातें प्रकाश में लाए जिनको आधुनिक जगत में भी मान्यता प्राप्त है।

तभी तो उन्हें -‘‘दूरदृष्टा सुधारक’’ कहा जाता है। कई नई संकल्पनाएं जैसे मानवाधिकार, सुशासनतंत्र, लोकपाल आदि इनका नाम लिए बिना दयानंद ने अपने ग्रंथों और भाषणों में इनका प्रयोग किया। दयानन्द अपने समय से कहीं आगे थे।जब 1906 में कांग्रेस के मंच से दारा भाई नैरोजी ने ‘‘स्वराज्य’’ शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग किया तो उनसे पूछा गया कि ये शब्द उन्होंने कहां से लिया तो उन्होंने बताया कि यह शब्द मैंने दयानन्द के ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश से लिया। 10 अप्रैल 1875 को बम्बई में स्थापित पहली आर्य समाज जिसकी स्थापना लोकतांत्रिक सिद्धांतों के आधार पर हुई। आर्य समाज एक वैचारिक क्रांति रहा, एक वैज्ञानिक सोच का परिणाम, जिसकी मान्यताओं, सिद्धांतों व आदर्शों में मूल भावना रही – आस्तिकता, धार्मिक, नैतिकता, मानवता और प्राणी मात्र का कल्याण।

दयानन्द कैसे दूरदृष्टा रहे?

चाहे धार्मिक क्षेत्र हो, सामाजिक या राजनैतिक सभी में उनके सिद्धांत समय से कहीं आगे, जहां तक धार्मिक क्षेत्र का सवाल है, दयानन्द ने अपने ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम संस्करण की रचना तीन मास में की। जीवन के सभी पहलुओं की विवेचना की परंतु भूमिका में लिखा – ‘‘श्रद्धा के आधार पर कुछ भी स्वीकार मत करो, बल्कि जांचों, परखो और फिर निष्कर्ष पर पहुंचो।’’ यानि दयानन्द तार्किकता का पाठ पढ़ाया। आर्य समाज के दस नियम आज भी सार्थक हैं जैसे पांचवा नियम कहता है कि सब काम धर्मानुसार यानि सत्य और असत्य का विचार करके करने चाहिए। 9वां सिद्धांत कहता है कि ‘‘सबको अपनी ही उन्नति में संतुष्ट न रहकर, सबकी उन्नति में अपनी उन्नति समझनी चाहिए’’। आज भी उनका ये विचार ‘‘अविधा का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिए।’’ आर्य समाज का चौथा व पांचवां नियम बुद्धि स्वातन्त्रय का पक्षपाती है।

यूरोप में जो कार्य बेकन, वाल्टरी जैसे विचारकों ने किया, भारत में वो दयानन्द ने किया – मन्तव्य कि सत्य के ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में सदा उधत रहना चाहिए। जहां तक सामाजिक क्षेत्र की बात है वहां भी दयानंद के विचार युगदृष्टा के रहे उनके अनुसार वर्ण निर्धारण करने की कसौटी जन्म नहीं वरन् किसी विशिष्ट कार्य को करने की मानसिक क्षमता है और इससे भी बढ़कर भयंकर ब्राह्मणवाद के गढ़ में यह घोषणा करना अपने तीसरे नियम मेें कि ‘‘वेद का पढ़ना, पढ़ाना सब आर्यों का परम धर्म है’’ जन्म से न कोई अछूत है और न हीन। उस समय यह मंत्र था – ‘‘स्त्री शूद्रों वाधीयाताम्’’ मध्यकाल का सर्वमान्य गन्तव्य था पर दयानंद ने इसका विरोध किया और विद्या प्राप्ति का अधिकार मनुष्य मात्र को देते हुए कहा – पांचवें अथवा आठवें वर्ष से आगे ‘‘कोई अपने लड़के और लड़कियों को घर में न रखें।

पाठशाला में अवश्य भेजें जो न भेजे वह दंडनीय हो।’’ आगे वो कहते हैं – ‘‘पाठशाला में विद्याध्ययन करते समय सब विद्यार्थियों को एक समान भोजन, वस्त्र और निवास और शिक्षा दी जानी चाहिए चाहे वो राजकुमार हो वह दरिद्र की संतान।’’ सामाजिक समानता की बात करते हुए आर्य समाज के नियम में कहते हैं – ‘‘सबसे प्रीतिपूर्वक, धर्मानुसार, यथायोग्य बरतना चाहिए।’’ जहां तक राजनैतिक क्षेत्र का विषय है जैसा कि पहले कहा कि स्वराज्य शब्द का प्रयोग उन्होंने उस समय किया जब इस शब्द का प्रयोग करना मानो अपनी मृत्यु को निमंत्रण देना था।

उनकी राजनीतिक धारणाएं भी कालजयी है। उनका आर्य समाज लोकतांत्रिक सिद्धांतों पर आधारित होने वाली उस समय की पहली संस्था थी राजतंत्रीय शासन में रहते हुए भी वह सही मायनों में प्रजातंत्रीय आदर्श का सपना संजोए, एक आदर्श राज्य एक सुशासन स्थापित करना चाहते थे क्यूंकि दयानन्द ने उस परिस्थितियों में वैचारिक क्रांति का शंखनाद किया, वही वैचारिक क्रांति राजनैतिक क्रांति लाने में सहायक हुई। ग्राम पंचायतों जैसी स्वशासन की संस्थाएं अंग्रेजी हकूमत द्वारा नष्ट कर दी गई थी, जन-प्रतिनिधियों की सदस्यता वाली संस्थाएं भी न थी।

वैदिक युग से लेकर मनु, भीष्म और कौटिल्य आदि मेें वंशानुगत राजतंत्र का समर्थन किया था परंतु दयानन्द ने उसमें प्रजातंत्रीय अंशों को शामिल कर, प्रजातंत्र का स्वप्न संजोया। विकेन्द्रीयकरण का समर्थन किया, राजा को दैवीय न बताया। वो अपने समय से कहीं आगे थे, भले ही उन्होंने राज्य के प्रधान के लिए राजा शब्द का प्रयोग किया परंतु उसे राजा द्वारा वरण किया हुआ निर्वाचित राजा बताया। तीन सभाएं – रार्जाय सभा, धर्माय सभा और विर्धाय सभा का विधान बताया।

सिर्फ सुशासनतंत्र की विशेषताएं ही नहीं बताईं, ये भी बताया कि वो सफल कैसे होगा। विधि के शासन पर बल दिया। निष्पक्ष न्यायपालिका, स्थानीय सरकार, सुशासन तंत्र पर अत्यधिक जोर दिया। में होगा। सबसे पहले वैचारिक स्वतंत्रता का शंखनाद करने वाले दयानन्द ही थे। इतिहासकार बाब्ले लिखते हैं कि ‘‘आधुनिक भारत की वास्तविक आधारशीला दयानन्द ने रखी’’।

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Sameer Saini

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