India News (इंडिया न्यूज़),Budhi Diwali: जब भारत के अधिकांश हिस्सों में दिवाली का त्योहार मनाया जाता है, वहीं हिमाचल प्रदेश के कुछ हिस्सों में यह त्यौहार एक महीने बाद, अमावस्या को मनाया जाता है, जिसे बूढ़ी दीवाली कहा जाता है। विशेष रूप से कुल्लू, सिरमौर, और शिमला जिलों के कुछ इलाकों में यह त्योहार बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। इस साल यह पर्व 30 नवंबर को मनाया जाएगा। बूढ़ी दीवाली की कई पौराणिक कथाएँ और लोककथाएँ जुड़ी हुई हैं, जो इसे विशेष बनाती हैं।
बूढ़ी दीवाली के पीछे सबसे प्रमुख मान्यता है कि त्रेता युग में, जब भगवान राम अयोध्या लौटे थे, तब हिमाचल के दूर-दराज के क्षेत्रों में यह खबर एक महीने बाद पहुंची। यहां के लोगों ने जब राम के अयोध्या लौटने की खुशखबरी सुनी, तो उन्होंने दीवाली की तरह मशालें जलाकर और नाच-गाकर अपनी खुशी जाहिर की। बाद में इसे “बूढ़ी दीवाली” कहा जाने लगा। यही परंपरा आज भी जारी है। बूढ़ी दीवाली की एक और मान्यता भगवान परशुराम से जुड़ी है। कहा जाता है कि जब भगवान परशुराम अपने शिष्यों के साथ भ्रमण कर रहे थे, तो एक दैत्य ने उनके ऊपर हमला किया। भगवान परशुराम ने उस दैत्य का वध किया और इस घटना की खुशी में यहां के लोग मशालों के साथ खुशी मना रहे थे, जिसे आज भी बूढ़ी दीवाली के दिन मनाया जाता है।
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बूढ़ी दीवाली में मशालों की जलाने की परंपरा है। लोग देवदार और चीड़ के पेड़ों की लकड़ी से मशालें जलाकर अपने घरों और गांवों को रोशन करते हैं। इसके साथ ही, पारंपरिक नृत्य और लोकगीतों का आयोजन भी किया जाता है। बूढ़ी दीवाली के दिन बढ़ेचू नृत्य (एक प्रकार का पारंपरिक नृत्य) और हुड़क नृत्य जैसी गतिविधियों का आयोजन होता है।
इस दिन लोक गीत गाए जाते हैं, जैसे शिरगुल देवकी की गाथा, और पुरेटुआ गीत। इसके अलावा, स्वांग और नाटियां भी किए जाते हैं। त्योहार के दौरान लोग एक दूसरे को मूड़ा, शाकुली, चिड़वा, और अखरोट जैसे पारंपरिक व्यंजन बांटकर बधाई देते हैं। यह त्योहार तीन से पांच दिन तक चलता है, और इस दौरान मेहमानों की आतिथ्य सत्कार की जाती है। लोग अपने छोटे-बड़ों का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं और अपने घरों में दीपक जलाते हैं। इस अवसर पर सभी परिवार एकजुट होते हैं और एक-दूसरे के साथ समय बिताते हैं।
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हिमाचल प्रदेश के इन पहाड़ी इलाकों में सर्दियों में भारी बर्फबारी होती है और तापमान माइनस में चला जाता है। इस समय सड़क संपर्क टूटने के कारण लोगों को अयोध्या से भगवान राम के लौटने की खबर देर से मिलती थी। जब यह खुशी की खबर लोगों तक पहुंची, तो उन्होंने मशालें जलाकर और नाच-गाकर दीवाली मनाई। यही कारण है कि यह पर्व दीवाली के एक महीने बाद मनाया जाता है।
बूढ़ी दीवाली का पर्व सतयुग से जुड़ा हुआ है और इस पर्व के दौरान श्रीमद्भगवद्गीता की गाथाएं भी गाई जाती हैं। वृत्तासुर नाम के राक्षस के वध की कहानी भी इस पर्व से जुड़ी है। देवताओं ने इस राक्षस का वध महर्षि दधीची के अस्थि पिंजर से बने दिव्यास्त्र से किया था। इसके बाद मार्गशीर्ष अमावस्या को लोग मशालें जलाकर नाचने लगे, जो आज भी बूढ़ी दीवाली के रूप में मनाई जाती है। बूढ़ी दीवाली न केवल एक धार्मिक पर्व है, बल्कि यह हिमाचल प्रदेश की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर और लोक परंपराओं का प्रतीक भी है। इस त्योहार के माध्यम से लोग न केवल भगवान राम और भगवान परशुराम की पूजा करते हैं, बल्कि अपनी संस्कृति और विरासत को भी संजोते हैं। यह पर्व हर साल अपने विशेष नृत्य, गीत, और परंपराओं के साथ एक नई ऊर्जा और उल्लास के साथ मनाया जाता है।
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