India News (इंडिया न्यूज़), दिल्ली: नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ विपक्षी मोर्चे की तरफ से लाया गया अविश्वास प्रस्ताव लोकसभा में शक्ति का परीक्षण नहीं है बल्कि अगले आम चुनावों के लिए विपक्ष के भीतर विश्वास भरने का प्रयास है. नतीजा सबको मालूम है. जिस सत्ताधारी गठबंधन के पास तीन सौ से अधिक सांसद हों उसकी सरकार को गिराने की विपक्ष सोच भी नहीं सकता, हां संसदीय प्रणाली में सरकार को घेरने और अपना पक्ष देश के सामने रखने के हथियार का इस्तेमाल करने से वह चूकना नहीं चाहता था. सो किया. एक मकसद में विपक्षी मोर्चा कामयाब हो गया, यह तो आप कह सकते हैं लेकिन वह बाहर खुद को बांध पाएगा यह सवाल उसके लिए ब ड़ी चुनौती है.
दिल्ली सर्विस एक्ट पर चर्चा के दौरान गृह मंत्री अमित शाह ने कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे को खरी बात कही. वह ये कि खरगे साहब आप जिनके लिए इस बिल का विरोध कर रहे हैं, वे आपके साथ रहनेवाले नहीं हैं. अरविंद केजरीवाल का साथ कांग्रेस ने इसलिए दिया ताकि उसके ऊपर यह तोहमत नहीं लगे कि वह नए विपक्षी मोर्चे के बिखराब का कारण है. मगर अरविंद केजरीवाल का मतलब पूरा नहीं हुआ. अमित शाह यही कह रहे थे कि केजरीवाल ने अपने मतलब से आपको यहां तक खींच तो रखा है लेकिन अगर आप ये सोचते हैं कि दिल्ली औऱ पंजाब में वे आपके साथ सीटों का बंटवारा करेंगे या मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ आपको लड़ने के लिए छोड़ देंगे तो भूल जाइए.
यही स्थिति पश्चिम बंगाल औऱ केरल में दिखती है. पश्चिम बंगाल में अधीर रंजन चौधरी पहले ही कह चुके हैं कि प्रदेश में कांग्रेस की लड़ाई तृणमूल कांग्रेस औऱ लेफ्ट के साथ है औऱ रहेगी. लेकिन इससे कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि ममता बैनर्जी बंगाल में कांग्रेस को मनमाफिक सीट देने के मूड में हरगिज नहीं हैं. जिस पार्टी को पिछले लोकसभा चुनाव में महज दो सीटें मिलीं उसको चार-पांच सीटों से अधिक देने पर ममता सहमत हों ऐसा संभव नहीं है. केरल में हमेशा से लेफ्ट औऱ कांग्रेस आमने सामने रहे हैं. पिछले चुनावों में बीजेपी ने वहां 15 फीसदी वोट तो हासिल किए लेकिन सीट नसीब नहीं हुई. केरल में प्रदेश सरकार लेफ्ट की जरुर है लेकिन 2019 के लोकसभा चुनावों में 20 लोकसभा सीटों में से 19 कांग्रेस की अगुआई वाले गंठबंधन ने जीती थीं. 2014 के मुकाबले 8 सीटों का फायदा कांग्रेस ने उठाया था. ऐसे में कांग्रेस के नेता ना तो अपनी सीट छोड़ेंगे औऱ ना ही लेफ्ट समझौते में दी गई सीटों से संतुष्ट होगा.
उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव और जयंत चौधरी के बीच सीटों को लेकर खटपट की खबरें आ रही हैं. जयंत आरएलडी के लिए दर्जन भर सीटें मांग रहे हैं. इसका आधार वे जाट सीटों और ओबीसी के वोटरों की तादाद को बना रहे हैं. मसलन मुजफ्फरनगर, बागपत, कैराना, बुलंदशहर, अमरोहा, हाथरस, मथुरा औऱ फतेहपुर सीकरी जैसी सीटें महत्वपूर्ण हैं. अखिलेश इतनी सीटों पर दांव खेलना नहीं चाहते. यूपी में कांग्रेस को भी सीटें देनी होंगी अगर नया मोर्चा मिलकर लड़ता है तो. ऐसे में सीटों का बंटवारा कहने में भले आसान दिखे लेकिन असलियत में वह बीरबल की खिचड़ी है.
वैसे बीजेपी की नजर भी आरएलडी पर है अगर जयंत चौधरी बीजेपी की शर्तों पर साथ आते हैं तो. इसके लिए उनको बमुश्किल तीन सीटों से संतोष करना पड़ेगा. लेकिन पते की बात ये है कि जयंत चौधरी को यह लगने लगा है कि अगर सत्ता से अधिक दिन तक दूर रहे तो रही सही जमीन भी निकल जाएगी. इसलिए बीजेपी के साथ भी वे अंदरखाने माहौल समझने की कोशिश कर रहे हैं.
बिहार एक अलग तरह की चुनौती है विपक्ष के नए मोर्चा के लिए. नीतीश कुमार ने हाल फिलहाल में आरजेडी के मंत्रियों के फैसलों को जिसतरह से रद्द किया है, उससे आरजेडी के अंदर एक खीझ है लेकिन उसको सार्वजनिक तौर पर वह नहीं कह पा रही है. यह नीतीश कुमार का प्रेशर टैक्टिक्स भी हो सकता है सीटों के बंटवारे में अपना हक मजबूत रखने के लिए. आरजेडी का जनाधार है, इसलिए वह उतनी सीटें नीतीश को नहीं देगी जितनी उन्होंने 2019 में बीजेपी के साथ ले रखी थी. ऊपर से कांग्रेस और लेफ्ट दलों को भी उनका अपना हिस्सा चाहिए. इसलिए मामला हथेली पर सरसों जमाने जैसा दिख रहा है.
संसद में अविश्वास प्रस्ताव लाकर विपक्ष ने सरकार को सदन में मणिपुर पर पक्ष रखने के लिए खींचा भले हो, सदन में विपक्षी एकजुटता दिखती ही क्यों ना हो, जमीन पर वह टुकड़े-टुकड़े नजर आ रही है.
(लेखक राणा यशवन्त इंडिया न्यूज़ के संपादक हैं)
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