Congress : ”पनौती’ की चुनौती, किसकी बपौती ?

India News ( इंडिया न्यूज़ ), Congress : ‘पनौती’ जैसे शब्द सियासत को हल्का करते हैं। वहीं कांग्रेस को ऐसे शब्दों से किनारा करने की ज़रूरत है। जहां शब्द बनाते हैं, बिगाड़ते हैं, मिटाते भी हैं। जब ‘पनौती’ जैसे शब्दों की जनता की अदालत में पेशी हुई, तो आप ख़ारिज हो सकते हैं। वहीं कांग्रेस की परंपरा में नेहरू-इंदिरा जैसे मुखर और प्रखर प्रवक्ता हैं। ‘मौत का सौदागर’, ‘चायवाला’, ‘नीच आदमी’ जैसे बयानों ने जिस पार्टी का बंटाधार किया हो, उसे ‘पनौती’ जैसे शब्दों से बचना चाहिए। वहीं ‘चौकीदार’ को ‘चोर’ का तीर आपके सीने पर घाव गंभीर कर चुका है। वहीं इतिहास से सबक़ लीजिए, दीवार पर लिखी इबारत को पढ़ना सीखिए साथ ही पॉलिटिक्स में नकारात्मक नहीं, सकारात्मक बनिए।

वहीं कबीर कहते हैं- “ऐसी वाणी बोलिए मन का आप खोए, औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए”। शीतल होने और शीतल रखने के लिए वाणी पर संयम ज़रूरी है। ‘पनौती’ जैसे शब्द विचारों का दिवालियापन हैं। वहीं विपक्ष में रह कर सरकार की घेराबंदी सियासी धर्म है, पर ज़ुबान हल्की हो जाए तो अधर्म हो जाता है। देश की सबसे पुरानी पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी वक़्त के साथ परिपक्व होते नज़र आते हैं, लेकिन बीच बीच में लटक, अटक और भटक जाते हैं। बता दें कि भारत एक ऐसा मुल्क़ है जिसने मनमोहन के लिए ‘मौनमोहन’ और इंदिरा के लिए ‘गूंगी गुड़िया’ जैसे शब्द स्वीकार नहीं किए।

राहुल गांधी ने पीएम मोदी के लिए ‘पनौती’ शब्द का किया इस्तमाल

वहीं राहुल गांधी जब ‘पनौती’ जैसे शब्द इस्तेमाल करते हैं तो अंधविश्वास के आसमान पर जाते नज़र आते हैं। स्टेडियम में किसी के रहने या ना रहने से टूर्नामेंट हारे-जीते जाते तो पसीना बहाने की ज़रूरत ही क्या है। राजनीति में शिष्टाचार वाली आलोचना में साधना है। ज़ुबान कटीली हो तो शब्दबाण निकलते हैं, ज़हरीली हो तो सियासी करियर के प्राण निकलते हैं। शब्दकोष आपके व्यक्तित्व की प्राणवायु हैं।

वहीं ‘पनौती’ जैसे शब्द का इस्तेमाल कलंक का कीचड़स्नान है। शब्द निकले तो जेपी-लोहिया बना गए, सिमटे तो स्वामी-मणि को खा गए। पॉलिटिक्स की सफलता आपके नैरेटिव पर निर्भर है। ‘पनौती’ जैसा नैरेटिव सेट करेंगे जो जनता राहुल गांधी से सवाल करेगी। सवाल होगा कि इंदिरा गांधी की जयंती के दिन टीम इंडिया की हार को आप क्या कहेंगे ? तंज़ कीजिए चलेगा, शब्दबाण चलाइए चलेगा, सरकार को घेरिए चलेगा पर सियासत की ‘पनौती’ कब चुनौती बन कर आपको नेपथ्य में धकेल दे, अंदाज़ा भी नहीं होगा।

राहुल गांधी को भी  ‘ESCAPE VELOCITY’ की ज़रूरत

वहीं शब्दों से वाक्य, वाक्य से अंदाज़, अंदाज़ से सियासी भविष्य तय होता है। बता दें कि साल 2017 में राहुल गांधी कांग्रेस अध्यक्ष बने। वहीं अध्यक्ष रहते हुए कांग्रेस ने 14 विधानसभा और एक लोकसभा चुनाव लड़ा। 14 राज्यों में से कांग्रेस सिर्फ चार राज्यों में ही सरकार बना पाई। राजनीति में जब शब्द ‘बैकफ़ायर’ करते हैं तो बहुत ख़तरनाक हो जाते हैं। ‘पनौती पॉलिटिक्स’ सवाल करेगी, सवाल ये कि ख़ुद अध्यक्ष रहते राहुल गांधी ने अपनी पार्टी को कितने चुनाव जिताए और कितनों में हार का सामना करना पड़ा।

‘पनौती’ पलीता लगाने वाला शब्द है, सपनों को पलीता, व्यक्तित्व को पलीता, भविष्य को पलीता। शब्दों की गरिमा होती है, भूलना नहीं चाहिए। वहीं साल 2013 के एक दलित सम्मेलन में राहुल गांधी ने एक विवादित बयान दिया था- दलितों को अपना स्तर उठाने के लिए पृथ्वी से कई गुना अधिक बृहस्पति ग्रह की ‘ESCAPE VELOCITY’ जैसी ताक़त की ज़रूरत है। वहीं राहुल गांधी को भी शब्दों में ताक़तवर होने के लिए ‘ESCAPE VELOCITY’ की ज़रूरत है।

मेरा मानना है कि 19 नवंबर 2023 को अहमदाबाद में अपने PM को देख कर टीम इंडिया का हौसला यक़ीनन बढ़ा होगा। बता दें कि ‘पनौती’ का हिंदी में अर्थ है अशुभ या अपशकुन। पिछले 9 साल में देश के गांवों और शहरों में 12 करोड़ शौचालय बने, 49 करोड़ लोगों ने बैंक खाते खुलवाए, 40.82 करोड़ लोगों को 23.2 लाख करोड़ का क़र्ज़ मिला, साढ़े 9 करोड़ घरों में रसोई गैस कनेक्शन पहुंचा, साढ़े चार करोड़ लोगों का मुफ़्त इलाज हुआ, हर घर जल योजना में 12 करोड़ परिवारों को पीने का साफ़ पानी मिला। वहीं इस लेख को पढ़ने वालों से मेरा सवाल है कि देश के लिए ये आंकड़े क्या वाक़ई ‘पनौती’ हो सकते हैं ?

बड़े नेता की ज़ुबान पार्टी का भविष्य तय करती है

बता दें कि राजनीति का स्तर शब्दों से बना करता है। बड़े नेता की ज़ुबान पार्टी का भविष्य तय करती है। नेहरू, इंदिरा, चंद्रशेखर, अटल जैसों के शब्दों ने उनके साथ साथ पार्टी का क़द बढ़ाया। वहीं डॉक्टर मनमोहन सिंह ने कम बोल कर जब सुषमा के साथ शाब्दिक युद्ध लड़ा तो इतिहास बन गया। याद है ना 15वीं लोकसभा की बहस, जिसमें उस वक़्त के PM मनमोहन सिंह ने बीजेपी को घेरने के लिए ग़ालिब को पढ़ते हुए कहा, “हमको उनसे वफ़ा की है उम्मीद, जो नहीं जानते वफ़ा क्या है।” बदले में सुषमा ने बशीर बद्र की रचना के साथ पलटवार करके कहा- “कुछ तो मजबूरियां रही होंगी, यूं ही कोई बेवफ़ा नहीं होता।” सियासत में भाषा का स्तर और बोली का वज़न हल्का पड़ा को बड़ा नुक़सान करता है।

कांग्रेस तो दिग्विजय, सिब्बल, मणिशंकर जैसों की ज़ुबान का भुगतान कर ही रही है। ‘पनौती पॉलिटिक्स’ को डिक्शनरी से हटाना कांग्रेस के लिए ज़रूरी है। नीतियों पर घेरिए, सरकार पर सवाल उठाइए- ये जायज़ भी है और विपक्ष का धर्म भी। लेकिन ज़ुबान का वज़न कम करके आप ख़ुद का नुक़सान कर रहे हैं, नुक़सान से बचिए।

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