अजीत मेंदोला, नई दिल्ली:
केंद्र की मोदी सरकार के खिलाफ पूरे विपक्ष को साथ ले कर सड़क में उतरना (Congress’s mass movement against Modi Government) कांग्रेस के लिये बड़ी चुनोती बन गया है। गत 20 अगस्त को 19 दलों के नेताओं ने भरोसा दिया था कि 20 सितम्बर से 30 सितम्बर तक पूरे देशभर में मोदी सरकार की खिलाफत की जायेगी, लेकिन एक माह पूरे होने पर विपक्ष का जोश ठंडा पड़ता दिख रहा है। यूपीए के घटक दल में केवल तमिलनाडू में द्रमुक सरकार ने 20 सितम्बर से राज्य भर में केंद्र सरकार के खिलाफ आंदोलन की घोषणा की है।
बाकी महाराष्ट्र, झारखंड, समेत कांग्रेस शासित राज्यों में भी कोई विशेष उत्साह नही है। बंगाल में टीएमसी भी रुचि नहीं ले रही है। हालांकि कांग्रेस को पूरी उम्मीद है कि मोदी सरकार के खिलाफ चलाया जाने वाला अभियान सफल रहेगा। दिग्विजय सिंह की अगुवाई में बनी समिति ने भी अभी अकेले मैदान में उतरने के बजाए विपक्ष को साथ लेने पर ही जोर दिया है। लेकिन सबको साथ लेना आसान दिख नही रहा है। कांग्रेस कोशिश तो कर रही है कि वह किसानों व महंगाई के मुद्दे पर विपक्ष की अगुवाई करते दिखे, लेकिन राज्य की राजनीति इसमें आड़े आ रही है। किसानों के मुद्दे पर भी कांग्रेस को चल रहे किसान आंदोलन पर ही निर्भर रहना पड़ रहा है। अलग से आंदोलन करने के बजाए कांग्रेस किसानों के 27 सितम्बर को किये जाने वाले भारत बंद का समर्थन करेगी।
दरअसल असल झगड़ा विपक्ष के नेतृत्व का हो गया है। लगातार हार और अंसन्तुष्ठ नेताओं की सक्रियता के बाद कांग्रेस की अंतरिम अध्य्क्ष सोनिया गांधी ने पिछले महीने मानसून सत्र में सक्रियता दिखा फिर से विपक्ष को एक जुट कर बड़ा आंदोलन करने की रणनीति बनाने की कोशिश की। सोनिया के आग्रह पर ल्लूस्र के शरद पंवार, शिवसेना के उद्दव ठाकरे और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी समेत 19 दलों के नेता 20 अगस्त की बैठक में मौजूद रहे। 11सूत्री मांग पत्र सरकार को दिया गया। महंगाई, कृषि कानून, जम्मू कश्मीर, कोरोना हर मुद्दे पर मोदी सरकार की खिलाफत कर सड़कों पर उतरने का फैसला किया गया था।
कांग्रेस उम्मीद कर रही कि विपक्ष साथ खड़ा रहेगा, लेकिन बैठक वाले दिन ही यूपी की प्रमुख पार्टी सपा, बसपा ने दूरी बना ली थी। आम आदमी पार्टी बैठक में बुलाई नही गई थी। मतलब साफ था कि दिल्ली और यूपी जैसे राज्य में कांग्रेस को अकेले ही जूझना पड़ेगा। इसलिये सोनिया गांधी ने राष्ट्रीय मुद्दों को उठाने के लिये पहले ही दिग्विजय सिंह की अगुवाई में 8 सदस्यों की समिति बना दी। इस समिति में प्रियंका गांधी को भी रखा गया। जिससे यूपी में दिग्विजय सिंह उनकी मदद कर सकें। इस समिति की पहली बैठक मंगलवार को हुई। उसमें कोई बड़ी रणनीति कांग्रेस ने नही बनाई।
अभी विपक्ष ओर किसान आंदोलन पर ही निर्भर रहने का फैसला किया गया। कांग्रेस की परेशानी यह है कि वह अकेले कुछ कर पाने की स्थिति में है नही। कांग्रेस ने पिछले साल भी सड़कों पर उतरने की कोशिश की थी। मुद्दे थे महिला उत्पीड़न,महंगाई और किसान। लेकिन किसानों के मुद्दे को छोड़ जिस यूपी के लिये महिला उत्पीड़न का मुद्दा उठाया गया था वहीं कांग्रेस ने तय दिन कोई प्रदर्शन नही किया। किसानों के खुद धरने पर बैठने के बाद कांग्रेस ने किसानों का हस्ताक्षरयुक्त ज्ञापन राष्ट्रपति को सौंपा। तीन कृषि कानूनों को वापस लेने की मांग की।
उस दिन राहुल और प्रियंका पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के साथ सड़को पर उतरे। एक बार के लिये लगा कि कांग्रेस को सड़क पर लड़ाई लड़ने का मुद्दा मिल गया। पूरी कांग्रेस जोश में दिखाई दी। लेकिन दिसम्बर 2020 का यह जोश असम, केरल समेत पांच राज्यों के चुनाव परिणामो ने ठंडा कर दिया। कांग्रेस केरल जैसे राज्य में चुनाव हार गई। राहुल गांधी के नेतृत्व को चुनौती मिलने लगी। कांग्रेस के घटक दल नए नेतृत्व की तलाश करने लगे। बंगाल की सीएम ममता बनर्जी खुद अगुवाई करने निकल पड़ी। इस बीच 23 अंसन्तुष्ठ नेताओं की भी सक्रियता बढ़ गई।
सोनिया गांधी को लग गया था कि राहुल के नेतृत्व को चुनोती देने की कोशिश की जा रही है। उन्होंने विपक्ष को एक करने की कोशिश तो की, लेकिन सड़क में उतरने से पहले ही कई मामलों में बदलाव आ गया। ममता बनर्जी उपचुनाव चाहती थी चुनाव आयोग ने उसकी अनुमति दे दी। अब वह केंद्र की राजनीति में शायद ही दिलचस्पी लें। कोरोना समाप्ति की ओर है। टीकाकरण ने मोदी के गिरते ग्राफ को ऊपर ले जाना शुरू कर दिया। किसानों को राजी करने के लिये फसल के दाम बढ़ा दिए। किसान आंदोलन भी धीरे धीरे राजनैतिक रंग लेने लगा।
राकेश टिकैत यूपी में अपने बयानों से पार्टी बनते दिख रहे हैं। जानकार मान रहे हैं कि राकेश टिकैत अपने पिता महेंद्र सिंह टिकैत की तरह अचानक कभी भी आंदोलन समाप्त करने की घोषणा कर सकते हैं। 1988 में उनके पिता ने भी वोट क्लब में चल रहे किसान आंदोलन के अचानक समाप्ति की घोषणा कर दी थी। ऐसे में कांग्रेस कहीं ना कहीं फिर अकेली पड़ती दिख रही है। सोनिया गांधी ने उन दिग्विजय सिंह की कांग्रेस मुख्यालय में वापसी कराई है जिनको राहुल गांधी ने हटा दिया था। अब ऐसे में दिग्विजय सिंह के सामने भी बड़ी चुनोती है कि वह अपने अनुभव व संबधों के सहारे मोदी सरकार के खिलाफ कितना बड़ा आंदोलन खड़ा कर सकते हैं।
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