होम / Justice System: न्यायपालिका में राजनीतिक मामलों का अंबार, आम जनता की लगी लंबी कतार

Justice System: न्यायपालिका में राजनीतिक मामलों का अंबार, आम जनता की लगी लंबी कतार

Shanu kumari • LAST UPDATED : March 17, 2024, 3:22 pm IST

India News (इंडिया न्यूज़), आलोक मेहता | Justice System: देश की अदालतों में 5 करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं। उनमें से करीब 80,000 सुप्रीम कोर्ट में बताए जाते हैं। लेकिन पिछले कुछ महीनों से राजनैतिक विवादों , संसद या विधान सभाओं के निर्णयों , सदस्यों , सरकारों के मामले , आर्थिक अपराधों के साथ जांच एजेंसियों , घोटालों और उनसे जुड़े नेताओं और अधिकारियों के प्रकरणों को निरंतर प्राथमिकता मिल रही है। यही नहीं संवैधानिक संस्थाओं चुनाव आयोग या पूर्व न्यायाधीशों के आयोगों के निर्णयों पर भी नामी वकील अदालत में पेश हो रहे हैं।

अदालत में ये मामले

राजनैतिक दलों के विभाजन , फिर असली या बदली पार्टी की पहचान, उसकी संपत्ति, चंदे के धंधे के मामले आ रहे हैं। आर्थिक उदारीकरण के बाद देशी विदेशी कंपनियों को केंद्र या राज्य सरकारों या पब्लिक सेक्टर कंपनी से ठेके दिए जाने, किसी न किसी तकनीकी या भ्र्ष्टाचार के मुद्दे सुप्रीम कोर्ट के सामने आ जाने से लगता है कि अब गांव से महानगरों तक पीने के पानी, सांस लेने लायक शुद्ध हवा से लेकर जेल जाने या सजा की प्रक्रिया महीनों वर्षों तक लटकने के लिए अदालत के दरवाजे पहुँचने का सिलसिला क्या कभी थम सकेगा ?

राजनैतिक सत्ता का उपयोग

इन दिनों लोक सभा चुनाव के लिए मैदान तैयार हो गए हैं। लेकिन लगता है कि कई नेता, संस्थाएं अदालत के जरिये चुनावी मुद्दे तय करना चाहते हैं। दिल्ली के अरविन्द केजरीवाल या बिहार के लालू यादव या कांग्रेस के नेता राहुल गांधी अथवा बंगाल की ममता बनर्जी सहित कई नेता, उनके समर्थक केंद्रीय जांच एजेंसियों – सी बी आई , ई डी , इंकम टैक्स की जांच, कार्रवाई के विरुद्ध राजनैतिक सत्ता का उपयोग कर रहे है। यही नहीं संसद द्वारा पारित नागरिकता अधिकार कानून , चुनाव आयुक्तों की नियुक्तियों, जम्मू कश्मीर को फिर से 370 की धाराओं में बांधने , नक्सली या आतंकवादी गतिविधियों से जुड़े लोगों को मानव अधिकार के नाम पर राहत दिलवाने, वैधानिक चुनावी बांड्स को रोकने के लिए बड़े वकीलों के जरिये तत्काल सुनवाई के प्रयास कर रहे हैं।

सामान्य नागरिकों के मामले लटके

यह भी दिलचस्प है कि इनमें कई बड़े वकील स्वयं किसी राजनैतिक दल से भी जुड़े हुए हैं और देश के कानून मंत्री तक रह चुके हैं। संभव यह भी रहा हो कि निचली अदालतों में जजों की नियुक्तियों की अंतिम स्वीकृति उनके मंत्री काल में दी गई हो और कुछ वर्षों बाद वे ऊँची अदालत तक पहुँच गए हों। इसमें कोई शक नहीं कि अदालतों के फैसले कानून के प्रावधानों के आधार पर होंगे। लेकिन इस राजनीतिक खींचातानी के दौर में सामान्य नागरिकों के मामले क्या वर्षों तक लटके रहेंगे ?

इतने मामले विचाराधीन

सरकारी रिकॉर्ड के अनुसार लंबित मामलों में से 61 लाख से अधिक 25 उच्च न्यायालयों के स्तर पर तथा जिला और अधीनस्थ अदालतों में 4.46 करोड़ से अधिक मामले विचाराधीन हैं। भारतीय न्यायपालिका की कुल स्वीकृत संख्या 26,568 न्यायाधीशों की है। जहां शीर्ष अदालत में न्यायाधीशों की स्वीकृत संख्या 34 है। वहीं उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की स्वीकृत संख्या 1,114 है। जिला और अधीनस्थ न्यायालयों में न्यायाधीशों की स्वीकृत संख्या 25,420 है।
स्वाधीनता के बाद बनाए गए भारत के संविधान की उद्देशिका को हमारे संविधान की आत्‍मा समझा जाता है। इसमें चार आदर्शों – न्‍याय, स्‍वतंत्रता, अवसर की समानता और बंधुता की प्राप्ति कराने का संकल्‍प व्‍यक्‍त किया गया है।

न्यायिक प्रणाली का एक प्रमुख ध्येय

इन चार में भी ‘न्‍याय’ का उल्‍लेख सबसे पहले किया गया है। हमारी न्यायिक प्रणाली का एक प्रमुख ध्येय है कि न्याय के दरवाजे सभी लोगों के लिए खुले हों। हमारे मनीषियों ने सदियों पहले, इससे भी आगे जाने अर्थात् न्याय को लोगों के दरवाजे तक पहुंचाने का आदर्श सामने रखा था। न्याय-प्रशासन में पुस्तकीय ज्ञान के साथ-साथ व्यवहार-बुद्धि का प्रयोग भी अपेक्षित होता है। बृहस्पति-स्मृति में कहा गया है- ‘केवलम् शास्‍त्रम् आश्रित्‍य न कर्तव्‍यो विनिर्णय:। युक्ति-हीने विचारे तु धर्म-हानि: प्रजाय‍ते’। अर्थात् केवल कानून की किताबों व पोथियों मात्र के अध्ययन के आधार पर निर्णय देना उचित नहीं होता। इसके लिए ‘युक्ति’ का ‘विवेक’ का सहारा लिया जाना चाहिए, अन्यथा न्याय की हानि या अन्याय की संभावना होती है।

ये भी पढ़े:- बढ़ रही अरविंद केजरीवाल की मुश्किल, ED ने अब इस मामले में भेजा समन

हमारे संविधान निर्माताओं ने आदर्श यह तय किया था कि न्याय के आसन पर बैठने वाले व्यक्ति में समय के अनुसार परिवर्तन को स्‍वीकार करने, परस्‍पर विरोधी विचारों या सिद्धांतों में संतुलन स्‍थापित करने और मानवीय मूल्‍यों की रक्षा करने की समावेशी भावना होनी चाहिए। न्यायाधीश को किसी भी व्यक्ति, संस्था और विचार-धारा के प्रति, किसी भी प्रकार के पूर्वाग्रह तथा पूर्व-संचित धारणाओं से सर्वथा मुक्त होना चाहिए। न्याय करने वाले व्यक्ति का निजी आचरण भी मर्यादित, संयमित, सन्देह से परे और न्याय की प्रतिष्ठा बढ़ाने वाला होना चाहिए।

व्यवस्था की कमी?

न्‍याय व्‍यवस्‍था का उद्देश्‍य केवल विवादों को सुलझाना नहीं, बल्कि न्‍याय की रक्षा करने का होता है और न्याय की रक्षा का एक उपाय, न्याय में होने वाले विलंब को दूर करना भी है। ऐसा नहीं है कि न्याय में विलंब केवल न्यायालय की कार्य-प्रणाली या व्यवस्था की कमी से ही होता हो। वादी और प्रतिवादी, एक रणनीति के रूप में, बारंबार स्‍थगन का सहारा लेकर, कानूनों एवं प्रक्रियाओं आदि में मौजूद कमियों के आधार पर मुकदमे को लंबा खींचते रहते हैं। अदालती कार्रवाई और प्रक्रियाओं में मौजूद समस्याओं का निराकरण करने में न्यायपालिका को, सजग रहते हुए अधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभानी आवश्यक हो जाती है। राष्ट्रीय एवं अंतर-राष्ट्रीय स्तर पर होने वाले प्रयासों को अपनाकर राजनैतिक मामलों के लिए कोई सीमाएं भी तय करनी होगी।

ये भी पढ़े:- PM Modi आंध्र प्रदेश में शुरू करेंगे चुनावी अभियान, चंद्रबाबू नायडू, पवन कल्याण के…

Get Current Updates on News India, India News, News India sports, News India Health along with News India Entertainment, India Lok Sabha Election and Headlines from India and around the world.