इंडिया न्यूज, नई दिल्ली:
कैलाश सत्यार्थी (Kailash Satyarthi on itv Network) एक भारतीय बाल अधिकार और शिक्षा अधिवक्ता हैं, जो बाल श्रम के खिलाफ एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं। साल 1980 में सत्यार्थी ने बचपन बचाओ आंदोलन (बचपन बचाओ आंदोलन) की स्थापना की और कारखानों, ईंट भट्टों और कालीन बनाने की कार्यशालाओं में छापेमारी शुरू की, जहां बच्चे और उनके माता-पिता अक्सर अल्पकालिक ऋण के बदले दशकों तक काम करने की प्रतिज्ञा लेते हैं।
सत्यार्थी का संगठन 144 देशों के 83,000 से अधिक बच्चों के अधिकारों की रक्षा करने में सफल रहा है। इंडिया न्यूज और आज समाज हिंदी अखबार के संपादकीय निदेशक आलोक मेहता ने कैलाश सत्यार्थी से चर्चा की।
आलोक मेहता
जब आपने 80 के दशक में अभियान की शुरूआत की। जब बाल मजदूर जो बंधुआ बने हैं, को मुक्त कराने की कोशिश की। उस समय ऐसी कौन सी घटनाएं थी, जिन्होंने आपको प्रभावित किया। आज लोगों को मालूम भी होना चाहिए कि उस समय क्या स्थितियां थीं।
कैलाश सत्यार्थी
जब हमने ये अभियान शुरू किया तब न केवल भारत बल्कि दुनिया में बाल मजदूरी कोई मुद्दा नहीं था हालांकि समस्या बहुत बड़ी थी। लोग सोचते थे कि ये रोजमर्रा की चीज है। ये गरीब बच्चों के लिए एक जरूरत है, उनके परिवारों के लिए। यही एक मानसिकता बनी हुई थी। ये हमने 80 के दशक में शुरू किया लेकिन इसकी चिंगारी मेरे स्कूल समय के पहले दिन ही जगी। मैं पांच साल का था और अपने गांव विदिशा के सरकारी स्कूल में पढ़ता था। जब स्कूल गया तो रास्ते में सीढ़ियों पर देखा कि एक बच्चा मेरी उम्र का ही अपने पिता के साथ जूतों पर पॉलिस कर रहा है।
हमारी तरफ काम की लालसा से देख रहा है। मैं सोचता था कि हर बच्चे को एक दिन स्कूल जाना पड़ता है। तो मेरे दिमाग में ये खटका और यह सवाल मैंने अपने शिक्षक से पूछा कि हम सब स्कूल में हैं और एक बच्चा बाहर बैठा है हमारे साथ क्यों नहीं है। तो उन्हें भी आश्चर्य हुआ। उन्होंने समझाया कि गरीब हैं मजदूरी करके पेट पालते हैं। शायद संतुष्ट हो जाता, लेकिन वापसी में फिर उस बच्चे को देखा। कई दिन तक ये सिलसिला चलता रहा। मेरे मां और भाई ने लगभग यही जवाब दिया, लेकिन मैं संतुष्ट नहीं हुआ।
हिम्मत करके जब एक दिन स्कूल से लौट रहा था तो रूक गया। बच्चे और उसके पिता से पूछा कि ये स्कूल क्यों नहीं जाता। लड़का शर्मिला था पिता बोला बाबू जी हम इसी काम के लिए पैदा हुए हैं। जात पात भी जानकारी मुझे नहीं थी, मैं सदमे में आया कि क्या कुछ लोग इसी काम के लिए पैदा हुए हैं और हम लोग स्कूल जाने के लिए पैदा हुए हैं। फिर नजरिया बदलने लगा और नजर ढाबों आदि पर गई। तभी एक चिंगारी मन में जगी कि कुछ गड़बड़ जरूर है। 1980-81 से शुरूआत की तो कंफ्यूजन था कि क्या करें, कैसे करें।
माता-पिता ने मुझे पढ़ा लिखाकर इंजीनियर बना दिया। इंजीनियर बनकर पढ़ाया भी, लेकिन उथल-पुथल बनी रही। फिर पत्रिका शुरू की, संघर्ष जारी रहेगा के नाम से। एक दिन अचानक ही बहुत ही दयनीय हालत का व्यक्ति फटेहाल हमारे दरवाजे पर आया।
उसने दरवाजा खटखटाया, उसका नाम वासल खान था। वह पंजाब से चलकर इसी उम्मीद से आया था कि उसकी बहन वासो जो ईंट-भट्ठों पर पैदा हुई थी, जिसे वेश्यालय में बेचा जाना था। वह हमारी पत्रिका के माध्यम से हम तक पहुंचा। किसी तरह हम दोस्तों के साथ सरहिंद पहुंचे, वहां हमारी पिटाई भी हुई। वासलखान को पकड़ लिया। नंगे पांव, फटे कपड़ों में हम भागकर दिल्ली पहुंचे। कानून की मदद से मार्च 1981 में साबो और 34 लोग और छूटे।
आलोक मेहता
आपके अध्ययन के अनुसार कितने बच्चे या अन्य थे देश में जो बंधुआ रहे होंगे।
कैलाश सत्यार्थी
नहीं ऐसा कोई अध्ययन तो नहीं किया। केवल अच्छी बात यह थी कि गांधी शांति प्रतिष्ठान ने बंधुआ परिवारों पर एक अध्ययन कराया, उस पर जब ये इंदिरा जी का 20 सूत्री कार्यक्रम आया। उस अध्ययन से ये पता लगा कि लगभग 24 लाख लोग हैं जो खेतों में काम करते हैं। ईंट-भट्ठों और अन्य जगह ये जगह दोगुनी-तिगुनी रही होगी।
कुल मिलाकर अंदाजा था कि देश में डेढ़-दो करोड़ बच्चे तो मजदूरी करते ही होंगे। इसके बाद जब सरकारें आई तो उन्होंने इस मुद्दे को स्वीकार करना शुरू किया। 1986 में बाल मजदूरी के खिलाफ पहला कानून बना। बचपन बचाओ आंदोलन की शुरूआत से सामाजिक जागरूकता आई। कानून का सहारा भी लिया।
आलोक मेहता
हमारा देश कहिए या अन्य कई देश। जहां बच्चों और कन्यायों को पूजा जाता है। इन्हें देश की धरोहर कहा जाता है। और ऐसी ही जगह जहां बच्चों और कन्याओं का शोषण हो। इसके बारे में आपका क्या दृष्टिकोण है।
कैलाश सत्यार्थी
देश कोई भी हो, धर्म मानवता को जोड़ने की कला है, लेकिन धर्म के साथ आडंबर और अंधविश्वास इसी मानवता को तोड़ता है। सीधी सी बात है कि यदि हम एक ही ईश्वर की संतान हैं तो फिर अलग कैसे।
आलोक मेहता
आपके अभियान से कानून से या जागरूकता से बच्चों को कैसी राहत मिली है। या हम ये दिखाना चाहते हैं कि ये नहीं होना चाहिए। आपके प्रयासों का क्या फल मिला। ये भी बताएं।
कैलाश सत्यार्थी
अभी पूरी तरह जीत नहीं हुई है, लेकिन कुछ लक्ष्य हासिल हुए हैं। भारत में अंगे्रजों का कानून था, अब अपना बना है। शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाने के लिए 165 सांसदों को जोड़कर मुद्दा बनाया। इसमें सोनिया जी मनमोहन जी से भी मिले, समर्थन जुटाया। इससे शिक्षा मौलिक अधिकार बनी। अब कानून भी बना। पहले लॉकडाउन में एक अध्ययन कराया। एक हफ्ते में भारत में चाइल्ड पोर्नोग्राफी (बच्चों में अश्लील सामग्री) की खपत दोगुनी हो गई। ये ट्रेंड अन्य देशों में भी रहा। इसके लिए हमने सरकार को लिखा।
आलोक मेहता
बाल मजदूरी और बच्चों की शिक्षा के विषय पर आपको भारत का भविष्य कैसा दिखता है।
कैलाश सत्यार्थी
मैं बच्चों और युवकों के बीच में काम करता हूं। जितनी आगे बढ़कर काम करने की ललक हमारे देश में शिक्षा के प्रति बढ़ी है वह काबिलेतारीफ है। मुझे ये भी भरोसा है कि हमारा भविष्य उज्ज्वल ही नहीं उज्ज्वलतम है। हमारे देश के बच्चों और जवानों ने दूसरे देशों को डॉक्टरों, इंजीनियरों के माध्यम से समृद्ध बनाया। हमें युवाओं पर बहुत भरोसा है।
आलोक मेहता
आप बच्चों के बीच में जाते हैं। आप ऐसे स्थानों में जाते हों जहां कुछ गाकर या गुनगुनाकर उत्साह जगाते हों या जागृत करते हों तो कुछ यहां भी गुना दीजिए।
कैलाश सत्यार्थी
यूं तो हमारे कई गीत चलते हैं। अभी हाल ही में हमनें कन्याकुमारी से बाल यौन शोषण के खिलाफ यात्रा शुरू की। इसका समापन राष्ट्रपति भवन में हुआ था। इसके लिए मैंने ही एक गीत लिखा था, निकल पड़े हैं, निकल पड़ें हैं, हम निकल पड़े हैं। सांसों में तुफान लिए हम निकल पड़े हैं। दिल में हिंदुस्तान लिए हम निकल पड़े हैं।
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