India News (इंडिया न्यूज), The Story of Kumbh Mela of 1954: प्रयागराज का कुंभ मेला विश्व का सबसे बड़ा धार्मिक आयोजन माना जाता है। हर बार यह मेला श्रद्धालुओं की भारी भीड़ और पवित्र स्नानों के कारण सुर्खियों में रहता है। लेकिन, साल 1954 का कुंभ मेला आज़ाद भारत के इतिहास में एक ऐसी त्रासदी के रूप में दर्ज है, जिसे भुलाया नहीं जा सकता। इस हादसे में 1000 से अधिक लोग मारे गए और 2000 से ज्यादा घायल हो गए। यह दुखद घटना आज़ाद भारत के पहले कुंभ मेले के दौरान हुई, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद की उपस्थिति में भगदड़ मच गई।

कुंभ 1954 की वो अनसुलझी कहानी

1947 में आज़ादी मिलने के बाद, 1954 में प्रयागराज (तत्कालीन इलाहाबाद) में पहली बार कुंभ मेले का आयोजन हुआ। इससे पहले, 1948 में अर्धकुंभ आयोजित किया जा चुका था। प्रधानमंत्री नेहरू के गृहनगर में यह आयोजन उनके लिए विशेष महत्व रखता था। मौनी अमावस्या के दूसरे शाही स्नान के दिन प्रधानमंत्री नेहरू और राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने स्नान के लिए त्रिवेणी संगम पर पहुंचने का निर्णय लिया।

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त्रासदी की शुरुआत

3 फरवरी 1954 की सुबह करीब 10:20 बजे नेहरू और राजेंद्र प्रसाद की कार त्रिवेणी रोड से होकर किला घाट की ओर बढ़ी। उनके दर्शन के लिए उमड़ी भीड़ ने भारी भगदड़ मचा दी। मेले में प्रवेश कर रही भीड़ और बाहर निकल रही भीड़ आमने-सामने आ गई, जिससे स्थिति बेकाबू हो गई। इस दौरान लोग खाई में गिरने लगे, और पास के एक कुएं में लाशों का ढेर लग गया।

नेहरू की उपस्थिति और सरकारी अव्यवस्था

एनएन मुखर्जी, जो उस समय आनंद बाजार पत्रिका के फोटो जर्नलिस्ट थे, ने इस त्रासदी को अपनी आंखों से देखा और अपने कैमरे में कैद किया। उन्होंने अपने संस्मरण में लिखा कि प्रशासनिक अधिकारी केवल नेहरू और राजेंद्र प्रसाद के स्वागत की तैयारियों में व्यस्त थे। हादसे की भयावहता ऐसी थी कि एनएन मुखर्जी को लाशों के ऊपर से चलकर तस्वीरें लेनी पड़ीं।

सरकारी अव्यवस्था का आलम यह था कि हादसे के कई घंटे बाद तक शीर्ष अधिकारी घटना स्थल से दूर अपने सरकारी आवासों पर चाय-नाश्ते में व्यस्त थे। एनएन मुखर्जी ने बताया कि जब वे दोपहर 1 बजे अपने कार्यालय पहुंचे, तो उनके सहकर्मी उनके जीवित लौटने पर हैरान थे।

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सरकार की प्रतिक्रिया और सच्चाई को छिपाने का प्रयास

इस भयावह त्रासदी को छिपाने के लिए तत्कालीन सरकार ने इसे ‘कुछ भिखारियों की मौत’ कहकर प्रचारित किया। हालांकि, मुखर्जी की तस्वीरों में साफ दिखा कि मृतकों में महिलाएं महंगे कपड़े और गहने पहने थीं, जो संपन्न परिवारों से थीं।

सरकार ने मारे गए लोगों के शव उनके परिवारों को सौंपने के बजाय सामूहिक रूप से जला दिए। मुखर्जी ने बताया कि उन्होंने “अपनी मृत दादी को आखिरी बार देखने” का बहाना बनाकर पुलिसकर्मी को मनाया और चुपके से शवों के सामूहिक दाह संस्कार की तस्वीरें खींचीं।

एनएन मुखर्जी की तस्वीरें और मीडिया का दबाव

मुखर्जी की खींची तस्वीरें आनंद बाजार पत्रिका में प्रकाशित हुईं, जिसने सरकार की लापरवाही को उजागर किया। हालांकि, कांग्रेस सरकार ने इस खबर को दबाने की पूरी कोशिश की। मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत ने मुखर्जी को अपशब्द कहे और तस्वीरों के छपने पर नाराजगी जाहिर की। इसके बावजूद, इस घटना ने सरकार को भविष्य में कुंभ मेले की बेहतर तैयारियों के लिए बाध्य किया।

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प्रधानमंत्री मोदी की टिप्पणी और विवाद

2019 में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कौशांबी में एक जनसभा में इस घटना का जिक्र किया और इसे दबाने के सरकारी प्रयासों की आलोचना की। इसके बाद, नेहरू के समर्थकों और मीडिया ने इसे खारिज करने के प्रयास किए। बीबीसी और अन्य मीडिया ने यह साबित करने की कोशिश की कि नेहरू घटना के समय प्रयागराज में नहीं थे।

सबक

1954 के कुंभ में हुई इस त्रासदी ने प्रशासनिक लापरवाही और अव्यवस्थाओं को उजागर किया। यह घटना इस बात का सबक बनी कि इस प्रकार के विशाल आयोजनों में सुरक्षा और भीड़ प्रबंधन को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जानी चाहिए। हालांकि, इस त्रासदी को छिपाने के लिए तत्कालीन सरकार ने हर संभव प्रयास किया, लेकिन एनएन मुखर्जी जैसे साहसी पत्रकारों की वजह से सच्चाई सामने आ सकी।

आज, कुंभ मेला भारत की सांस्कृतिक धरोहर का प्रतीक है, लेकिन 1954 की यह त्रासदी हमें यह याद दिलाती है कि बेहतर प्रशासन और जवाबदेही सुनिश्चित करना कितना महत्वपूर्ण है।

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