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L K Adwani: आडवाणी के नेतृत्व में ऊंचाई पर पहुंची बीजेपी, इन्हें भारत रत्न मिलने के कई अर्थ!

L K Adwani: लालकृष्ण आडवाणी को आख़िरकार भारत रत्न मिल ही गया। और इस तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपना गुरु-ऋण चुकाया। लेकिन मोदी का यह कदम दरअसल लोकसभा में मोदी-3 के सामने आने वाली सभी बाधाओं और बाधाओं को दूर करने के लिए है। अन्यथा सरकार एक ही वर्ष में दस दिन के भीतर दो-दो भारत रत्न देने की घोषणा क्यों कर रही है?

इससे पहले 2015 में मोदी सरकार ने पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और काशी हिंदू विश्वविद्यालय के संस्थापक मदन मोहन मालवीय को एक ही साल में यह सम्मान दिया था। लेकिन घोषणा एक साथ ही की गई। उस वक्त मोदी सरकार की जीत हुई थी और उसका कार्यकाल पूरा होने में चार साल बाकी थे। लेकिन इस बार लोकसभा चुनाव में सिर्फ तीन महीने ही बचे हैं। इसलिए 23 जनवरी को कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देने की घोषणा की गई और उसके दस दिन बाद लाल कृष्ण आडवाणी को भारत रत्न देने की घोषणा की गई।

आडवाणी के नेतृत्व में ऊंचाइयों पर पहुंची बीजेपी

आडवाणी को भारत रत्न देने की जानकारी खुद प्रधानमंत्री ने 3 फरवरी को अपने सोशल मीडिया पर दी थी। प्रधानमंत्री ने यह भी बताया कि उन्होंने आडवाणी जी को फोन करके इस सम्मान के बारे में जानकारी दी है। लाल कृष्ण आडवाणी आज बीजेपी और उसके पूर्ववर्ती जनसंघ के सबसे वरिष्ठ नेता हैं और राम मंदिर आंदोलन के जनक भी हैं। 1980 में जब बीजेपी का जन्म हुआ तो उसने 1984 में पहला लोकसभा चुनाव लड़ा और उसे केवल दो सीटें मिलीं। लेकिन 1989 में जैसे ही लाल कृष्ण आडवाणी ने बीजेपी की कमान संभाली, बीजेपी ने लोकसभा में 85 सीटें जीत लीं। इसका श्रेय आडवाणी को गया क्योंकि वे उस समय पार्टी अध्यक्ष थे। इस जीत का श्रेय उनके उग्र हिंदुत्व झुकाव को दिया गया। इससे उनकी छवि एक जननेता के रूप में बनी। इससे पहले उन्हें बैक डोर नेता कहा जाता था।

‘चुप रहकर कूटनीति बनाने में बेजोड़ थे आडवाणी’

1960 के दशक में, दक्षिणपंथी राजनीतिक दल जनसंघ में दो युवा राजनेता उभरे, अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी। दोनों चतुर हैं और रणनीति और कूटनीति में माहिर हैं। लेकिन भाषण देकर जनता के बीच अपनी लोकप्रियता दर्ज कराने में जहां अटल बिहारी वाजपेई अव्वल थे, वहीं मौन रहकर कूटनीति बनाने में आडवाणी बेजोड़ थे। दोनों एक दूसरे के दोस्त और फॉलोअर्स हैं। इसीलिए 1977 में आपातकाल के बाद जब सभी विपक्षी दलों ने मिलकर जनता पार्टी का गठन किया तो जनसंघ का भी इसी जनता पार्टी में विलय हो गया। मोरारजी देसाई की सरकार में अटल बिहारी वाजपेई को विदेश मंत्रालय और लाल कृष्ण आडवाणी को सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय मिला। चूंकि जनसंघ का मूल संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) अपने कार्यक्रम बाहर से चला रहा था, इसलिए इस मुद्दे पर जनता पार्टी में फूट पड़ गई और मोरारजी सरकार चली गई।

वाजपेयी और आडवाणी ने अपनी छाप छोड़ी

लेकिन इस छोटे से कार्यकाल में भी जनता पार्टी की सरकार में शामिल वाजपेयी और आडवाणी ने नौकरशाही और मीडिया में अपनी और अपने समर्थकों की साख बनाई। इसलिए जब अप्रैल 1980 में जनसंघ के लोगों ने जनता पार्टी से अलग होकर भारतीय जनता पार्टी का गठन किया तो उसने अपना उदारवादी चेहरा सामने रखा। अटल बिहारी वाजपेई इसके अध्यक्ष बने। जनसंघ के कट्टरपंथियों को समाजवाद एवं उदारवाद की ओर रुझान पसंद नहीं था। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए लोकसभा चुनाव में यह देखने को मिला। जब बीजेपी परिदृश्य से बाहर हो गई थी और उसे सिर्फ दो सीटों से संतोष करना पड़ा था। दिलचस्प बात यह है कि पार्टी अध्यक्ष अटल बिहारी वाजपेयी खुद चुनाव हार गये थे। बीजेपी सिर्फ आंध्र की हनामकोडा और गुजरात की मेहसाणा सीट ही जीत सकी।

जनसंघ की तरह उग्र हिंदुत्ववादी नीतियों पर बीजेपी

नतीजा यह हुआ कि बीजेपी को अपने पूर्ववर्ती जनसंघ की तरह उग्र हिंदुत्ववादी नीतियों का पालन करना पड़ा। कांग्रेस की राजीव गांधी सरकार ने भी उसे इन नीतियों पर चलने का मौका दिया। पहले शाह बानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटकर और फिर हिंदुओं को संतुष्ट करने के लिए 1 फरवरी 1986 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद परिसर में राम मंदिर का ताला खोलकर। पहले फैसले से हिंदू दक्षिणपंथी सेनाओं ने राजीव गांधी सरकार पर मुस्लिम तुष्टिकरण का आरोप लगाया और दूसरे फैसले से उन्होंने हिंदू दक्षिणपंथियों का मनोबल बढ़ाया। प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने सोचा होगा कि ऐसे फैसलों से वह दोनों समुदायों को खुश कर देंगे, लेकिन यह उनका भ्रम साबित हुआ। दोनों समुदायों में कट्टरवाद को बढ़ावा दिया गया।

नतीजा यह हुआ कि जिन ताकतों से वह दूर हो गई थी, वे भाजपा के पीछे लामबंद होने लगीं। तब राजीव सरकार में वित्त मंत्री रहे वीपी सिंह ने बोफोर्स डील को लेकर सरकार को घेरा था। बाकी विपक्षी दल भी उनके पीछे हो लिए। इनमें बीजेपी और सीपीएम भी थी। 1989 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने 197 सीटें और वीपी सिंह के नेशनल फ्रंट ने 143 सीटें जीतीं। लेकिन नेशनल फ्रंट ने बीजेपी को 85 सीटें और सीपीएम को 33 सीटें जिताकर अपना बहुमत साबित कर दिया और तेलुगु देशम, लोकदल आदि पार्टियों के समर्थन से वीपी सिंह प्रधानमंत्री बने, लेकिन उनकी हालत बहुत दयनीय थी। वीपी सिंह दाएं-बाएं झूलते हुए कोई लाइन नहीं ले पा रहे थे। अंततः उन्होंने आग से खेला और अगस्त 1990 में उन्होंने पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण की सिफारिश करने वाले मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने की घोषणा की।

आडवाणी ने सोमनाथ से अयोध्या तक रथ यात्रा की घोषणा की

इससे पूरे देश में आग लग गयी। आरक्षण के खिलाफ ऊंची जाति के युवाओं का आंदोलन तेज होने लगा। यहां भी कांग्रेस नेता राजीव गांधी से बड़ी गलती हो गई। उन्होंने परोक्ष रूप से ऊंची जाति के युवाओं के आंदोलन का समर्थन किया। भाजपा इस बात से चिंतित हो गई कि हिंदुओं का मतदाता समूह जातियों के आधार पर बंट रहा है और तीन महीने बाद, 25 सितंबर 1990 को लाल कृष्ण आडवाणी ने सोमनाथ से अयोध्या तक रथ यात्रा की घोषणा की। तब इसे मंडल के बंटवारे के लिए बीजेपी का कमंडल आंदोलन कहा गया था। यह यात्रा 30 अक्टूबर 1990 को अयोध्या में समाप्त होनी थी। लेकिन वीपी सिंह के कहने पर बिहार के मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने 23 अक्टूबर को रथ रोक दिया और आडवाणी को समस्तीपुर में गिरफ्तार करवा दिया। ये आडवाणी और बीजेपी की जीत थी। क्योंकि जो हिंदू अगड़े और पिछड़े में बंटे हुए थे, वे एक हो गए। नतीजा ये हुआ कि 1991 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को 120 सीटें मिल गईं।

वाजपेयी ने 5 साल तक कुशलतापूर्वक सरकार चलाई

इसके बाद बीजेपी का रथ बढ़ता ही गया। 1996 में जब बीजेपी की सरकार बनी तो आडवाणी ने खुद से पहले अटल बिहारी वाजपेयी का नाम आगे बढ़ाया। लेकिन यह सरकार 13 दिन के अंदर ही गिर गई क्योंकि वाजपेयी सरकार बहुमत के आंकड़े से काफी पीछे रह गई थी। ये पहला मौका था जब बीजेपी ने सरकार बनाने का साहस दिखाया था। इसका नतीजा ये हुआ कि 1998 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी और उसके सहयोगियों को पूर्ण बहुमत मिल गया। लेकिन 13 महीने के अंदर ही ये सरकार दोबारा गिर गई और इसके बाद जब 1999 में चुनाव हुए तो बीजेपी गठबंधन को फिर से पूर्ण बहुमत मिला। वाजपेयी ने 5 साल तक कुशलतापूर्वक सरकार चलाई। तीनों सरकारों में आडवाणी गृह मंत्री रहे और 2002 में उन्हें उपप्रधानमंत्री बनाया गया। 2004 और 2009 में आडवाणी को बीजेपी का चेहरा माना गया। लेकिन इन दोनों लोकसभा चुनावों में बीजेपी हार गई।

आडवाणी के लिए मौके आते-जाते रहे

2014 में जब बीजेपी ने अपने दम पर बहुमत हासिल किया और उसके गठबंधन का आंकड़ा 300 के पार पहुंच गया, तब बीजेपी का चेहरा थे आडवाणी के शिष्य नरेंद्र मोदी। तब तक आडवाणी 84 साल के हो गए थे। उन्हें लोकसभा का टिकट भी नहीं मिला और मान लिया गया कि बीजेपी में आडवाणी युग का अंत हो गया। इसके बाद 22 जनवरी 2024 को वे राम लला के प्राण प्रतिष्ठा महोत्सव में भी नहीं जा सके, जिनके पिता आडवाणी माने जाते थे। उनके हाथ में अवसर आते-जाते रहे। क्योंकि जब वे पीएम बन सकते थे तो उनकी कट्टरपंथी छवि के कारण गठबंधन दल उन्हें स्वीकार नहीं करते। और जब बीजेपी अपने दम पर सत्ता में आई तो कमान उसके हाथ से छीन ली गई।

बीजेपी योद्धा को भारत रत्न

लेकिन फिर भी देर आए दुरुस्त आए! नरेंद्र मोदी सरकार ने उन्हें देश के इस सबसे बड़े सम्मान से सम्मानित कर उनके आंसू तो पोंछे ही, उनके समर्थकों की कल्पना की वजह भी खत्म कर दी। इसलिए इस बुजुर्ग योद्धा को भारत रत्न मिलने पर बधाई दी जानी चाहिए।

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Rajesh kumar

राजेश कुमार एक वर्ष से अधिक समय से पत्रकारिता कर रहे हैं। फिलहाल इंडिया न्यूज में नेशनल डेस्क पर बतौर कंटेंट राइटर की भूमिका निभा रहे हैं। इससे पहले एएनबी, विलेज कनेक्शन में काम कर चुके हैं। इनसे आप rajeshsingh11899@gmail.com के जरिए संपर्क कर सकते हैं।

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