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Opinion: संघ बीजेपी राजनीति की रपटीली राहें

India News (इंडिया न्यूज), आलोक मेहता: राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने सत्ता में आने से बहुत पहले दिसम्बर 1963 में ‘नवनीत’ पत्रिका के संपादक को एक इंटरव्यू में कहा था – ‘राजनीति की राहें रपटीली होती हैं। इन राहों पर चलते समय बहुत सोच समझकर चलना पड़ता है। थोड़े से असंतुलन से गिरने की नौबत आ जाती है। इसलिए इन राहों पर बहुत अधिक संतुलन बनाए रखना पड़ता है।‘ यह बात उनके प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए सच साबित हुई। गठबंधन से अधिक उन्हें अपनी पार्टी और संघ के कुछ नेताओं द्वारा बिछाए गए काँटों का सामना करना पड़ा। ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके निकटस्थ सहयोगी गृह मंत्री अमित शाह को लोक सभा चुनाव के दौरान और ऐतिहासिक ढंग से तीसरी बार बीजेपी को सत्ता में लाने के बावजूद अपनों से ही फूलों की मालाओं के साथ काँटों भरी बातों की कटोरी भी संभालना पड़ रही है।

बीजेपी के नेता कार्यकर्ता ही खुलकर कोई शिकायत या आरोप नहीं लगा रहे हैं, लेकिन चुनाव से पहले या बाद में अपना दुखड़ा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के शीर्ष नेताओं को पहुंचा रहे थे। शायद यही कारण है कि सीधे किसी का नाम लिए संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत और एक दो अन्य नेताओं ने हाल के लोक सभा चुनाव में पर्याप्त बहुमत नहीं मिलने पर कुछ तीखी टिप्पणियां कर दी। बर्षों से संघ बीजेपी के रिश्तों और राजनीति को देखने समझने के कारण मेरे जैसे पत्रकार को आश्चर्य नहीं हुआ। इसलिए यह अवश्य कहूंगा कि संघ ने अपनी लक्ष्मण रेखा सदा बनाए रखी है।

इस तरह की सार्वजनिक टिप्पणियों से वह अपने स्वयंसेवकों को दिलासा देते हैं कि उनकी आवाज नेतृत्व को पहुंचाई जा रही है। वहीँ मीडिया जो भी अर्थ लगाए यह सन्देश जनता को देते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार नागपुर संघ मुख्यालय के आदेश निर्देश पर नहीं चल रही है। चुनाव अभियान और अन्य मंचों पर भी राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी या कम्युनिस्ट तथा अन्य विरोधी दलों के नेता नागपुर और संघ के इशारों पर चलने के आरोप बीजेपी सरकार पर लगाते रहते हैं।

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मतलब यह कि बयानों से दोनों पक्षों का लाभ मिल जाए। अन्यथा संघ और जनसंघ भाजप के सपने तथा प्रमुख लक्ष्य नरेंद्र मोदी ने दस वर्षों में पूरे कर दिए। अयोध्या का भव्य राम मंदिर ही नहीं काशी, मथुरा के मंदिरों के कायाकल्प , जनसंघ बीजेपी के संस्थापक डॉक्टर श्यामाप्रसाद मुखर्जी जिस कश्मीर के लिए शहीद हुए उसे संविधान की अस्थाई धारा 370 की समाप्ति , तलाक प्रथा से मुक्ति , महिलाओं को संसद विधान सभा में 33 प्रतिशत आरक्षण का कानून जैसे प्रमुख उद्देश्य पूरे हो गए। समान नागरिक संहिता के कानून को उत्तराखंड में पारित करवाकर देश भर में लागू करने की तैयारी कर ली। जनता के अनेक कल्याण कार्यक्रमों के साथ हिदुत्व की विचारधारा को विश्व व्यापी पहुंचाने में सफलता दिलवाई। फिर निजी शिकायतों के अलावा संघ या पार्टी के कार्यकर्ता किस मुद्दे पर नरेंद्र मोदी का विरोध कर सकते हैं?

हाल में सरसंघचालक मोहन भागवत ने नागपुर में संघ के कार्यकर्ता विकास वर्ग के समापन कार्यक्रम में चुनाव, राजनीति और राजनीतिक दलों के रवैये पर कुछ बातें स्वयंसेवकों को कही, उस पर देश भर में चर्चा छिड़ गई। उन्होंने कहा- ‘जो मर्यादा का पालन करते हुए कार्य करता है, गर्व करता है, किन्तु लिप्त नहीं होता, अहंकार नहीं करता, वही सही अर्थों मे सेवक कहलाने का अधिकारी है। जब चुनाव होता है तो मुकाबला जरूरी होता है। इस दौरान दूसरों को पीछे धकेलना भी होता है, लेकिन इसकी एक सीमा होती है। यह मुकाबला झूठ पर आधारित नहीं होना चाहिए।लोकसभा चुनाव खत्म होने के बाद बाहर का माहौल अलग है। नई सरकार भी बन गई है। ऐसा क्यों हुआ, संघ को इससे मतलब नहीं है। संघ हर चुनाव में जनमत को परिष्कृत करने का काम करता है, इस बार भी किया, लेकिन नतीजों के विश्लेषण में नहीं उलझता। लोगों ने जनादेश दिया है, सब कुछ उसी के अनुसार होगा। क्यों? कैसे? संघ इसमें नहीं पड़ता। दुनियाभर में समाज में बदलाव आया है, जिससे व्यवस्थागत बदलाव हुए हैं। यही लोकतंत्र का सार है।’

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सरसंघ चालक मोहन भागवत के बाद अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य और मुस्लिम मोर्चे के प्रमुख इंद्रेश कुमार ने बयान दे दिया उन्होंने कहा ‘जो अहंकारी हो गए हैं, उन्हें 241 पर रोक दिया, जिनकी राम के प्रति आस्था नहीं थी, अश्रद्धा थी। उन सबको मिलकर 234 पर रोक दिया। यही प्रभु का न्याय है। राम सबके साथ न्याय करते हैं। 2024 के लोकसभा चुनाव को ही देख लीजिए। जिन्होंने राम की भक्ति की, लेकिन उनमें धीरे-धीरे अहंकार आ गया। उस पार्टी को सबसे बड़ी पार्टी घोषित कर दिया। उनको जो पूर्ण हक मिलना चाहिए, जो शक्ति मिलनी चाहिए, वो भगवान ने अहंकार के कारण रोक दी। उन्होंने कहा कि जिन्होंने राम का विरोध किया, उन्हें बिल्कुल भी शक्ति नहीं दी। उनमें से किसी को भी शक्ति नहीं दी। सब मिलकर (INDIA ब्लॉक) भी नंबर-1 नहीं बने, नंबर-2 पर खड़े रह गए। इसलिए प्रभु का न्याय विचित्र नहीं है, सत्य है, बड़ा आनंददायक है।”

उनका वक्तव्य मोदी सरकार और बीजेपी विरोधियों के लिए चुटकी लेने का हथियार जरुर बना , लेकिन असलियत यह भी है कि वह संघ के कट्टरपंथी विवादास्पद नेता माने जाते हैं। एक तरफ उन पर अजमेर शरीफ और मालेगांव में हुए बम विस्फोटों को अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग के गंभीर आरोप रहे , जिनका संघ और बीजेपी ने क़ानूनी बचाव किया , दूसरी तरफ संघ के मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के संयोजक के बावजूद उनके कुछ बयान पहले भी बीजेपी सरकारों के लिए सिरदर्द रहे। सबसे दिलचस्प बात यह है कि अब वह अयोध्या के बीजेपीई सांसद को जुल्मी करार दे रहे हैं , लेकिन पिछले वर्षों के दौरान उन्होंने और उनके साथियों ने इस जुल्म को रोकने के लिए क्या कोई प्रयास किए ? इसी तरह उनके मुस्लिम मंच ने चुनाव में किन राज्यों में मुस्लिम मतदाताओं के वोट बीजेपी को दिलाए?

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बहरहाल इस विवाद में महत्वपूर्ण तथ्य भी है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के पहले सरसंघचालक श्री गुरु एम् एस गोलवलकरजी ने तो 25 जून 1956 को संघ के मुखपत्र ऑर्गेनाइज़र में स्पष्ट कर दिया था कि “संघ कभी भी किसी राजनीतिक दल का स्वयंसेवी संगठन नहीं बनेगा। संघ और जनसंघ के बीच निकट का सम्बन्ध है। हम कोई बड़ा निर्णय परामर्श किए बिना नहीं लेते परन्तु इस बात का ध्यान रखते हैं कि हम दोनों की स्वायत्तता बनी रहे। ” इसी तरह पूर्व सरसंघचालक प्रोफेसर राजेंद्र सिंह और श्री एस सुदर्शनजी ने अपने कार्यकाल में मुझे जो इंटरव्यू दिए थे, उनमें भी यही कहा था कि सारे संबंधों के बावजूद हम बीजेपी के नियमित कामकाज या निर्णयों में हस्तक्षेप नहीं करते हैं।

वर्तमान सरसंघचालक डॉक्टर मोहन भागवत ने तो 18 सितम्बर 2018 को दिल्ली के एक कार्यक्रम में सार्वजनिक रुप से कहा था कि “आज के प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति संघ के स्वयंसेवक रहे हैं। इसलिए लोग कयास लगाते हैं कि नागपुर से फोन आता होगा और बात होती होगी, यह बिलकुल गलत बात है। एक तो राजनीतिक क्षेत्र में काम करने वाले कार्यकर्ता या तो मेरी उम्र के हैं या मुझसे सीनियर हैं और संघकार्य का जितना मेरा अनुभव है उससे कहीं अधिक अनुभव उनको राजनीति में है। इसलिए उनको अपनी राजनीति चलाने के लिए किसीकी सलाह की आवश्यकता नहीं है। उनकी राजनीति पर हमारा कोई प्रभाव नहीं और सरकार की नीतियों पर भी हमारा कोई प्रभाव नहीं है।” इसलिए लोकतंत्र में सबकी राय और विचार के साथ संघ नेताओं के चुनाव पर विचार हो सकते हैं। लेकिन क्या नरेंद्र मोदी जैसी प्रधानमंत्री को कोई कड़े निर्देश दे सकता है। राजनीति और चुनाव में हार जीत के साथ कई खतरे होते हैं। यह संभव नहीं कि सबको खुश रखा जा सके। विचारों, आदर्शों और कार्यक्रमों को लागु करने के बाद भी विशाल देश में हर मोड़ पर फूलों के साथ कांटें जरुर मिलते रह सकते हैं।

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Sailesh Chandra

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