अजीत मैंदोला, Delhi News : क्या राज्यों को जीते बिना लोकसभा का चुनाव जीता जा सकता है? ये एक ऐसा सवाल है जो कांग्रेस को लेकर आज कल चर्चा में बना हुआ है। क्योंकि पांच राज्यों मे हुई करारी हार के बाद भी कांग्रेस अभी भी पुराने ढर्रे पर ही चल रही है। राज्यों की उसे कोई चिंता नही है। कांग्रेस के रुख से ऐसा लगता है कि राज्य अगर नही भी जीते तो कोई बात नही। क्योंकि पांच राज्यों की हार के बाद कांग्रेस ने जो भी फैसले किये उनसे यही सन्देश गया कि कांग्रेस शायद ही अपने को बदलेगी। और ना ही पार्टी में कोई बदलाव होगा। पार्टी ने लगातार हो रही हार पर चिंता के बजाए संकल्प शिविर आयोजित किया।
मतलब हार पर कोई चर्चा नही,कोई चिंता नही बस केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार को कैसे टारगेट करना है इसी को लेकर संकल्प लिया गया। दूसरा कार्यकर्ताओं में जोश भरने के लिये पार्टी में बदलाव के लिये कई लुभावन घोषणाएं की। लेकिन इन पर अमल के आसार कम ही है। इसके बाद तीन राष्ट्रीय स्तर की समितियों का गठन किया गया। उसमे वही चेहरे मोहरे हैं जो 2019 से कांग्रेस चला रहे हैं। ये समितिया भारत जोड़ने से लेकर कई ऐसी योजनाएं बनाएंगी जिससे 2024 में भारी जीत हांसिल हो। अब यही बड़ा सवाल है कि क्या इतने भर से जीत जाएंगे?
जानकारों की माने तो राज्यों के जीते बिना जीत के दूर दूर तक कोई आसार नही है। दूसरा जानकार कह रहे हैं कांग्रेस भारत जोड़ो यात्रा में किसे जोडेगी। क्योंकि अभी जो माहौल देश मे बन रहा है उसमें कांग्रेस की यात्रा बीजेपी के हित मे जा सकती है। क्योंकि साम्प्रदायिक बनाम धर्मनिरपेक्षता का मुद्दा बीजेपी को सूट करता है। कांग्रेस देश मे बढ़ रही साम्प्रदायिक हिंसा के लिये भले ही बीजेपी को टारगेट कर रही हो,लेकिन उसका कोई असर नही पड़ रहा है। उल्टा कांग्रेस ऐसा कर बीजेपी के जाल में फंस रही है। अब ये पार्टी नेताओं को तय करना है कि वह किन मुद्दों के साथ भारत को जोड़ने की बात करते हैं।
क्योंकि यह तय है कि राहुल गांधी के फिर से अध्य्क्ष बनने के बाद उनकी अगुवाई में ही पार्टी भारत जोड़ो अभियान शुरु करेगी। संकल्प शिविर राहुल को ही मजबूती देने के लिये किया गया था। तमाम राज्य हारने के बाद भी राहुल गांधी अपनी रणनीति में किसी प्रकार के बदलाव के मूड में नही है। उनकी रणनीति अभी तक यही रही है कि वह राज्यों पर कम ध्यान देते हैं, उनका एक मात्र लक्ष्य प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और सरकार की नीतियों पर हमला करना रहा है। चुनावों के समय ही थोड़ा बहुत वह राज्यों में दिलचस्पी लेते हैं। यही कांग्रेस के लिये बड़ी चिन्ता ओर कमजोर होने की वजह बन रहा।
संकल्प शिविर में तमाम बातें हुईं लेकिन 2019 से लगातार हो रही हार पर कोई नेता बोला ही नही। बोलने का सीधा मतलब राहुल और प्रियंका निशाने पर आते। क्योंकि दोनों भाई बहन ही लगातार फेसले कर रहे हैं। जब हार पर चर्चा ही नही हुई तो फिर आम आदमी पार्टी के बढ़ते जनाधार की भी किसी ने बात नही की। जबकि कांग्रेस के लिये आम आदमी पार्टी लगातार बड़ी चुनोती बनती जा रही है। चुनाव भले ही वह न जीत पाये लेकिन नुकसान कांग्रेस का ही कर रही है। राहुल या पार्टी के नेता लगातार हो रही हार को कोई बात नही कह कर टाल रहे हों,लेकिन इन्ही हार के चलते नेताओं में असुरक्षा का भाव बढ़ता जा रहा है।
साथ ही आलाकमान ओर वरिष्ठ नेताओं का भय भी खत्म हो रहा है। लोकसभा चुनाव से पहले आधा दर्जन से ज्यादा राज्यों में चुनाव होने हैं। इन राज्यों की हार जीत ही लोकसभा का रुख काफी हद तक तय करेगी। इसके बाद भी कांग्रेस आलाकमान राज्यों को लेकर गंभीर नही है। इसका ही नतीजा है कि कांग्रेस छोड़ने वालों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। हार्दिक पटेल,सुनील जाखड़ ओर कपिल सिब्बल जैसे नेता अगर पार्टी छोड़ रहे हैं तो वजह लगातार राज्यों में हो रही हार ही है। जिन राज्यों में चुनाव हुए थे पार्टी उनमें से कुछ में जीत सकती थी। जैसे पँजाब,उत्तराखंड, असम,केरल,गोवा आदि। लेकिन पार्टी आलाकमान ने इन राज्यों के आपसी झगड़ो को निपटाने में नाकाम रहा।
नतीजन पार्टी एक भी राज्य नही जीत पाई। उम्मीद की जा रही लगातार हार से सबक ले आलाकमान कड़े फैसले कर पार्टी में बड़ा बदलाव करेगा, लेकिन ऐसा कुछ होता दिख नही रहा है। इसका नतीजा यह है कि बचे हुए मात्र दो राज्यों राजस्थान और छतीसगढ़ में नेताओं में आलाकमान का डर खत्म हो गया। राजस्थान में तो अपने नेता, विधायक और मंत्री ही अपनी सरकार की खिलाफत में ही लगे हुये हैं। पार्टी फोरम में बात रखने के बजाए बातें सार्वजनिक की जा रही हैं। किसी मे कोई डर नही रह गया। यह स्थिति तब है कि जब कि कांग्रेसी जानते हैं अगर एक जुट हो कर बीजेपी से मुकाबला नही किया तो आगे फिर वापसी मुश्किल हो जाएगी।
राजस्थान और छतीसगढ़ ही एक मात्र ऐसे राज्य है जो पार्टी के लिये ऑक्सीजन का काम कर सकते है। लेकिन दुःखद पहलु यह है कि आलाकमान का बागी नेताओं के खिलाफ कोई कड़ा फैसला नही करना अब पार्टी के लिये नुकसानदायक साबित हो रहा है। राजस्थान में मुख्यमंत्री गहलोत और छत्तीसगढ़ में बघेल साढ़े तीन साल से गैरों से ज्यादा अपनों से जूझ रहे हैं। उनकी सरकार के लोकप्रिय फैसले भी आपसी झगड़ो के चलते लोकप्रिय नही हो पा रहे हैं।
मजेदार बात यह है कि अपने मुख्यमन्त्री और सरकार का विरोध करने वाले नेता आलाकमान के कंधे में बंदूक रख हमला बोलते हैं। आलाकमान की शिथिलता ही पार्टी को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचा रही है। क्योंकि विपक्ष को हमले का मौका मिल जाता है। पँजाब और उत्तराखंड की हार से सबक लिया होता तो शायद राजस्थान और छत्तीसगढ़ में गुटबाजी पर अंकुश लग सकता था। एक उम्मीद वाले मध्य्प्रदेश का चुनाव भी इन राज्यों के साथ होना है।
वहाँ पर फिलहाल सब कुछ पूर्व मुख्यमन्त्री कमलनाथ पर छोड़ा हुआ है। वहाँ पर भी गुटबाजी है, लेकिन अभी सिर नही उठा रही है। राज्यसभा चुनाव बाद शायद आवाज उठें। पार्टी अभी भी यह तय नही कर पा रही है कि राज्यों को लेकर वह क्या करे?जो नेता जैसे समझा रहा है वैसे ही आलाकमान चल रहा है। इस साल हिमाचल और गुजरात मे चुनाव होना है। दोनो राज्यों में ऐसा कोई चेहरा नही है जिसके दम पर पार्टी चुनाव लड़ सके। अनुभवीन प्रभारी लगाए गए हैं। इसलिये गुजरात मे हार्दिक पटेल जैसे नेता ने पार्टी छोड़ दी। गुजरात के लिये पार्टी के पास कोई योजना नही है।
सूत्रों की माने तो यूपी के बाद हिमाचल में प्रियंका गांधी और उनकी टीम जितवाने की कोशिश करेगी। लगातार हार के बाद पार्टी सबक सीखने को तैयार नही है। पार्टी को उम्मीद वाले राजस्थान,मध्य्प्रदेश ओर छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों को लेकर अभी से ताकत झोंकनी होगी। सत्ता वाले राजस्थान और छत्तीसगढ़ में पार्टी और सरकार के खिलाफ बयान और माहौल बनाने वालों के खिलाफ अभी से कड़ा एक्शन लेना होगा।
दो नावों में पांव रखने से पार्टी लगातार नुकसान झेलती आई है। हालांकि इन राज्यों से पहले गुजरात,हिमाचल ओर कर्नाटक में भी चुनाव हैं। लेकिन हालात देखते हुए इन राज्यों में बहुत उम्मीद दिख नही रही है। राज्यों को जीते बिना 24 में चुनाव लड़ने का महत्व खत्म हो जायेगा। राज्यों की जीत ही दिल्ली की कुर्सी दिलवा सकती है।
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