आजकल ज्यादातर कपल वर्किंग होते हैं, ऐसे में पैरेंट्स बनने का फैसला वह देर से ही लेते है, लेकिन मेडिकल कंडीशन्स को ध्यान में रखते हुए ज्यादातर महिलाएं 30-32 की उम्र तक बच्चे के बारे में सोचने लगती हैं। डॉक्टर्स कहते हैं कि यदि महिलाएं पहले बच्चे को जन्म 30 साल की उम्र तक देती हैं तो दूसरे बच्चे को थोड़ा लेट प्लान करने में उतनी दिक्कत नहीं आती है लेकिन यदि पहली प्रेग्नेंसी ही 32-34 के बाद प्लान की जाती है तो फिर कपल को कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है और शिशु में भी बीमारी होने का खतरा बढ़ जाता है।

लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है कि एक स्वस्थ बच्चे को जन्म देना सिर्फ महिला की उम्र पर ही होता है, मेडिकल साइंस का मानना है कि यदि पुरुष भी 35 साल की उम्र के बाद पिता बनने का निर्णय लेते हैं तो बच्चे में कई मानसिक समस्याएं होने का खतरा बढ़ जाता है।

1.स्पर्म काउंड कम होना

2.स्पर्म की क्वालिटी खराब होना

3.स्पर्म की गतिशीलता कम हो जाना

4.स्पर्म के डीएनए में भी कई तरह की समस्याएं आने की संभावना होना

किस उम्र में बनना चाहिए पिता?

अगर मेडिकल कंडीशन और स्पर्म क्वालिटी को ध्यान में रखकर निर्णय लिया जाए तो एक पुरुष को 25 साल की उम्र तक पिता बनने का निर्णय लेना चाहिए, क्योंकि इस उम्र तक स्पर्म काउंट और मूवमेंट सबसे अधिक होता है।आज के समय में इस उम्र में तो युवा कॉलेज में पढ़ाई कर रहे होते हैं या कोई प्रफेशनल डिग्री ले रहे होते हैं तो इनके लिए ऐसा करन संभव नहीं होता, इसलिए 25 से 30 की उम्र में पिता बनने की कोशिश करनी चाहिए। क्योंकि मेडिकल साइंस के अनुसार, 25 साल की उम्र के बाद स्पर्म काउंड कम होने लगता है।

करियर में सेटल होने के बाद आप 30 से 35 साल की उम्र के बीच पैरेंट बनने का निर्णय जरूर लें क्योंकि 30 से 35 की उम्र में स्पर्म का मूवमेंट कम हुआ होता है जबकि स्पर्म क्वालिटी हाई होती है लेकिन 35 के बाद स्पर्म की क्वालिटी भी घटने लगती है।

40 के बाद पिता बन रहे है तो रखें इन बातो का ध्यान

1.40 की उम्र के बाद पिता बनने से स्पर्म काउंट और क्विलिटी दोनों में कमी आ जाती है, साथ ही स्पर्म का मूवमेंट भी स्लो हो जाता है इस कारण पहले तो गर्भधारण में ही समस्या होती है।

2.अधिक उम्र के कारण स्पर्म में डीएनए डैमेज होने की आशंका बढ़ जाता ही, इस कारण बच्चे के जन्म में समस्या हो सकती है।

3.अधिक उम्र में पिता बनने का प्रयास करने से होने वाले बच्चे में मानसिक बीमारियां जैसे, एडीएचडी, ऑटिज़म स्पैक्ट्रम डिसऑर्डर, डाउन सिंड्रोम, सीजोफ्रेनिया आदि होने का खतरा बढ़ जाता है।