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SC on Bilkis Bano Case: बिलकिस बानो केस पर सुप्रीम कोर्ट का बड़ा फैसला, कहा- याचिका सुनवाई योग्य

Mudit Goswami • LAST UPDATED : January 8, 2024, 11:56 am IST

India News (इंडिया न्यूज), SC on Bilkis Bano Case: बिलकिस बानो केस पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि याचिका सुनवाई योग्य है। अदालत का मानना है कि बिलकिस बानो द्वारा 11 दोषियों की सजा को चुनौती देने वाली याचिका पूरी तरह सही है।

बता दें कि इस केस की सुनवाई न्यायमूर्ति बीवी नागरत्ना और न्यायमूर्ति उज्जल भुइयां की पीठ ने की। अदालत ने 12 अक्टूबर को बानो समेत अन्य द्वारा दायर याचिकाओं पर आदेश सुरक्षित रखने के बाद अपना फैसला सुनाया था। इसके अलावा अदालत ने केंद्र और राज्य सरकार को निर्णय लेने की प्रक्रिया वाली मूल फाइलें जमा करने का निर्देश दिया था। मालूम हो कि 11 दोषियों  अगस्त 2022 में गुजरात की जेल से रिहा कर दिया गया था।

कोर्ट ने क्या कहा?

सुप्रीम कोर्ट का मानना है कि 13 मई, 2022 का फैसला (जिसने गुजरात सरकार को दोषी को माफ करने पर विचार करने का निर्देश दिया था) अदालत के साथ “धोखाधड़ी करके” और भौतिक तथ्यों को छिपाकर प्राप्त किया गया था  कोर्ट ने कहा कि दोषियों ने साफ हाथों से अदालत का दरवाजा नहीं खटखटाया था।

सुप्रीम कोर्ट का मानना है कि राज्य, जहां किसी अपराधी पर मुकदमा चलाया जाता है और सजा सुनाई जाती है, वह दोषियों की माफी याचिका पर निर्णय लेने में सक्षम है। सुप्रीम कोर्ट का मानना है कि गुजरात राज्य दोषियों की सजा माफी का आदेश पारित करने में सक्षम नहीं है, लेकिन महाराष्ट्र सरकार सक्षम है।

केस से जुड़ी कुछ अहम जानकारी

1.इन लोगों को पिछले साल स्वतंत्रता दिवस पर गुजरात सरकार ने एक अप्रचलित कानून की मदद से रिहा कर दिया था, जिससे विपक्ष, कार्यकर्ताओं और नागरिक समाज में निंदा और आक्रोश की लहर दौड़ गई थी। बिलकिस बानो ने कहा कि उन्हें रिहाई के बारे में कोई जानकारी नहीं दी गई।

2.एक बार रिहा होने के बाद, लोगों का नायक की तरह स्वागत किया गया। उनमें से कुछ को भाजपा सांसद और विधायक के साथ मंच साझा करते देखा गया। दोषियों में से एक, राधेश्याम शाह ने तो वकालत भी शुरू कर दी थी, जिसे सुनवाई के दौरान अदालत के ध्यान में लाया गया।

3.सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस बी वी नागरत्ना और उज्जल भुइयां की पीठ ने बिलकिस बानो द्वारा दायर याचिका समेत अन्य याचिकाओं पर 11 दिन की सुनवाई के बाद अक्टूबर में अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था। कोर्ट ने केंद्र और गुजरात सरकार से सजा माफी से जुड़े मूल रिकॉर्ड पेश करने को कहा था.

4.गुजरात सरकार ने 1992 की छूट नीति के आधार पर पुरुषों को रिहा करने की अनुमति दी थी, जिसे 2014 में एक कानून द्वारा हटा दिया गया है जो मृत्युदंड के मामलों में रिहाई पर रोक लगाता है।

5.राज्य ने एक पैनल से परामर्श किया था जिसमें राज्य की सत्तारूढ़ भाजपा से जुड़े लोग शामिल थे, जब शीर्ष अदालत ने उसे एक दोषी, राधेश्याम शाह की याचिका पर निर्णय लेने के लिए कहा था।

6.पैनल ने अपने फैसले को सही ठहराते हुए उन पुरुषों को “संस्कारी (सुसंस्कृत) ब्राह्मण” कहा था, जो पहले ही 14 साल जेल की सजा काट चुके हैं और अच्छा व्यवहार दिखा चुके हैं।

7.दोषियों की रिहाई के खिलाफ कई याचिकाएं दायर की गईं। याचिकाकर्ताओं में तृणमूल कांग्रेस की महुआ मोइत्रा, सीपीएम पोलित ब्यूरो सदस्य सुभाषिनी अली, स्वतंत्र पत्रकार रेवती लौल और लखनऊ विश्वविद्यालय की पूर्व कुलपति रूप रेखा वर्मा और अन्य शामिल हैं।

8.”दोषियों की मौत की सज़ा को आजीवन कारावास में बदल दिया गया था। ऐसी स्थिति में उन्हें 14 साल की सजा के बाद कैसे रिहा किया जा सकता है? अन्य कैदियों को रिहाई की राहत क्यों नहीं दी जाती है?” शीर्ष अदालत ने सुनवाई के दौरान सवाल करते हुए टिप्पणी की थी कि गुजरात सरकार शीघ्र रिहाई को लेकर असमंजस में है।

9.गुजरात सरकार की ओर से अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल एसवी राजू ने कहा कि चूंकि लोगों को 2008 में दोषी ठहराया गया था, इसलिए उन पर 1992 की नीति के तहत विचार किया जाना चाहिए।

10.बिलकिस बानो 21 साल की थीं और पांच महीने की गर्भवती थीं, जब साबरमती एक्सप्रेस में आग लगने के बाद भड़के सांप्रदायिक दंगों के दौरान भागते समय उनके साथ सामूहिक बलात्कार किया गया था, जिसमें 59 कार सेवक मारे गए थे। उनकी तीन साल की बेटी दंगों में मारे गए परिवार के सात सदस्यों में से एक थी।

क्या है मामला 

2002 के गुजरात दंगों के दौरान अपने परिवार के साथ सुरक्षित भागने की कोशिश के दौरान बानो 21 साल की थी और पांच महीने की गर्भवती थी, जब उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया गया था। 11 दोषियों ने उसके परिवार के सात सदस्यों की भी हत्या कर दी थी। जिसमें उसकी तीन साल की बेटी भी शामिल थी। मामले की सुनवाई गुजरात से मुंबई स्थानांतरित कर दी गई और केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) ने मामले की जांच की। 2008 में मुंबई की एक विशेष अदालत ने 11 लोगों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई। इस फैसले को 2017 में बॉम्बे हाई कोर्ट की एक खंडपीठ ने बरकरार रखा था।

 

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