India News (इंडिया न्यूज), How Cremation of Dead Bodies Done in Bishnoi Society: काले हिरण की पूजा करने वाला बिश्नोई समुदाय प्रकृति से बहुत प्यार करता है। गुरु जम्भेश्वर के 29 नियमों में वन संरक्षण और वन्यजीव संरक्षण महत्वपूर्ण है। यह समुदाय हिंदू धर्म का अंग है। लेकिन कई रीति-रिवाज ऐसे हैं, जो उन्हें थोड़ा अलग दिखाते हैं। ऐसी ही एक महत्वपूर्ण प्रथा है अंतिम संस्कार। बता दें कि बिश्नोई समुदाय में शव के लिए चिता नहीं बनाई जाती, बल्कि एक गड्ढा खोदा जाता है और शव को दफनाया जाता है। इस प्रक्रिया को मिट्टी लगाना कहते हैं। समुदाय के लोगों का कहना है कि यह रस्म पर्यावरण की बेहतरी के लिए है।
आपतो बता दें कि बिश्नोई समुदाय ज़्यादातर राजस्थान में रहता है। इसके बाद हरियाणा, फिर मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में रहता है। बिश्नोई एक संप्रदाय है और इसकी स्थापना 1485 में गुरु जम्भेश्वर ने बीकानेर के मुकाम गांव में की थी। इस संप्रदाय से जुड़ने वाले लोगों के लिए एक आचार संहिता बनाई गई थी, जिसमें 29 नियम थे। सबसे ज़्यादा ज़ोर जानवरों और पर्यावरण से प्रेम पर दिया जाता था। इस संप्रदाय के रीति-रिवाज़ भी अलग-अलग हैं, जिसमें अंतिम संस्कार भी शामिल है।
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कुख्यात गैंगस्टर लॉरेंस बिश्नोई और बाबा सिद्दीकी की हत्या के बाद बिश्नोई समुदाय एक बार फिर चर्चा में है। गुरु जम्भेश्वर ने बिश्नोई समुदाय में सभी रीति-रिवाज़ों को बहुत ही सरल तरीके से लागू किया। Bishnoism.org के मुताबिक, बिश्नोई संप्रदाय के रीति-रिवाज़ कई संप्रदायों से अलग हैं। हिंदुओं में जहां 12 दिन का शोक होता है, वहीं बिश्नोई संप्रदाय में तीन दिन का शोक होता है। संप्रदाय के संस्थापक गुरु जम्भेश्वर ने अपनी पैतृक भूमि पर गड्ढा खोदकर शव का अंतिम संस्कार करने को कहा।
बिश्नोई संप्रदाय के नियमों के अनुसार, किसी भी व्यक्ति की मृत्यु के बाद उसका दाह संस्कार नहीं किया जाता है। गुरु जम्भेश्वर महाराज ने इसका कड़ा विरोध किया था। इसका कारण वन संरक्षण है। माना जाता है कि शव को जलाने के लिए लकड़ियों की जरूरत होती है और इसके लिए हरे पेड़ों को काटा जाता है। समाज का मानना है कि शव को जलाने से वायु प्रदूषित होती है, जिसके कारण गुरु जम्भेश्वर महाराज ने समाज में अंतिम संस्कार के लिए शव को दफनाने का निर्णय लिया था। समाज आज भी इसका पालन कर रहा है।
बिश्नोई समाज में जब किसी की मृत्यु हो जाती है तो उसके शव को जमीन पर लिटा दिया जाता है। नियमों के अनुसार, फिल्टर किए गए पानी में गंगा जल मिलाकर शव को नहलाया जाता है। फिर उसे सूती कपड़े (कफन) से ढक दिया जाता है। कफन के कपड़े के किनारे को एक कोने से पकड़ कर रखा जाता है। पुरुष को सफेद शॉल, विवाहित महिला या कुंवारी महिला को लाल शॉल, विधवा को काले किनारी वाले शॉल तथा साधु को केसरिया कफन ओढ़ाया जाता है।
मृतक का बेटा या भाई शव को कंधे पर उठाकर दाह संस्कार स्थल तक ले जाता है। शव यात्रा में शामिल सभी लोग पैदल चलते हैं। मृतक की जमीन पर गड्ढा खोदकर शव को दफनाया जाता है। समाज के लोग उस गड्ढे को ‘घर’ कहते हैं। इसे सात फीट गहरा और दो या तीन फीट चौड़ा खोदा जाता है। शव को घर में लाने के बाद उसका मुंह उत्तर दिशा की ओर कर दिया जाता है। इस दौरान मृतक का बेटा शव के मुंह से कफन हटाकर कहता है ‘यह आपका घर है’। फिर मुंह को कफन से फिर से ढक दिया जाता है। उसके बाद हाथों से मिट्टी लगाकर शव को दफनाया जाता है।
शव को दफनाने के बाद गड्ढे के ऊपर पानी डाला जाता है और उस पर बाजरा छिड़का जाता है। फिर शव को ले जाने वाले सभी लोग उस पर स्नान करते हैं। अंतिम संस्कार में आए बाकी लोग पास में ही स्नान करते हैं, अपने कपड़े धोते हैं और दूसरे कपड़े पहनते हैं। घर वापस आकर कागोल की रस्म अदा करने के बाद नाई मृतक के परिवार के सदस्यों के सिर मुंडवाता है, जिसे खिजमत खूंटी कहते हैं। बिश्नोई समाज में शव का अंतिम संस्कार इसी तरह किया जाता है।
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