ओली बन गए थे चीन का चापलूस, नए पीएम प्रचंड दिखाएंगे सूझ-बूझ : पीएम बदला, बदलेगा भारत-नेपाल का रिश्ता?

इंडिया न्यूज़ (दिल्ली) : कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल यानी (सीपीएन-माओवादी सेंटर) के शीर्ष नेता पुष्प कमल दहल प्रचंड नेपाल के नए प्रधानमंत्री बन गए हैं। ज्ञात हो, प्रचंड इससे पहले दो बार 2008-2009 और 2016-17 में भी नेपाल के प्रधानमंत्री पद पर रह चुके थे। प्रचंड की अगुवाई वाली सरकार को भारत विरोधी छवि रखने वाले पूर्व नेपाली प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली की पार्टी कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (यूनिफाइड मार्क्सिस्ट-लेनिनिस्ट) यानी (सीपीआई-यूएमएल) का भी समर्थन प्राप्त है। गौरतलब की बात यह है कि 275 सीटों वाली नेपाली संसद में ओली की पार्टी को 78 सीटें मिली हैं जो प्रचंड की पार्टी को मिली 32 सीटों के करीब ढाई गुना है। इसीलिए समझौते के तहत प्रचंड 2025 तक ही नेपाल के प्रधानमंत्री रह पाएंगे, उसके बाद ओली की बारी आ जाएगी। निश्चित तौर पर भारत की अपने पड़ोस के इन राजनीतिक घटनाक्रम पर गहरी नजर होगी क्योंकि ओली के शासन में नेपाल ने भारत के साथ सीमा विवाद छेड़ दिया था। चीन के मेहरबानियों की आस लगाई ओली सरकार ने भारतीय क्षेत्रों कालापानी, लिंपियाधुरा और लिपुलेख को नेपाल के नक्शे में शामिल कर लिया था और नए नक्शे को नेपाली संसद की भी मुहर लगवा ली थी। ऐसे में भारत के लिए इन तीनों क्षेत्रों को लेकर प्रचंड सरकार के रुख का बहुत महत्व होगा।

जानें, नेपाल-भारत का कथित सीमा विवाद

ज्ञात हो, महाकाली नदी भारत की पूर्वी जबकि नेपाल की पश्चिमी सीमा रेखा है। महाकाली नदी को ही शारदा नदी या काली नदी के नाम से भी जाना जाता है। यह उत्तराखंड के कालापानी से निकलकर उत्तर प्रदेश पहुंचती है और घाघरा नदी में मिलकर समाप्त हो जाती है। भारत में आने वाले ये तीनों क्षेत्र कालापानी, लिम्पियाधुरा और लिपुलेख, नेपाल और भारत के बीच बहने वाली महाकाली नदी के पूर्वी हिस्से में आते हैं। लेकिन नेपाल 1816 ईस्वी के सुगौली संधि का हवाला देकर दावा करता है कि इन तीनों के साथ-साथ आसपास के अन्य क्षेत्र भी उसका हिस्सा हैं। केपी शर्मा ओली की सरकार ने भले ही लिम्पियाधुरा, कालापानी और लिपुलेख को नेपाल के नक्शे में शामिल कर दिया हो, लेकिन नेपाल की तरफ से इसकी दावेदारी दशकों पहले से ही रही थी।

भारत ने सड़क बनाई नेपाल ने किया था विरोध

मसलन, 1994 में नेपाल के तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन अधिकारी ने अपनी भारत यात्रा के दौरान यह मुद्दा उठाया था और तीन वर्ष बाद जब तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री इंद्र कुमार गुजराल नेपाल गए, तब भी वहां की मनमोहन अधिकारी सरकार ने इसे मुद्दे को उठाया था। हालांकि, कुछ नेपाली राजनयिकों का यहां तक दावा है कि नेपाल ने 1962 का भारत-चीन युद्ध खत्म होने के बाद ही भारत से कहा था कि कालापानी से अपने सैनिक हटा ले। नेपाल की आपत्तियों की श्रृंखला में 8 मई, 2020 को नई कड़ी तब जुड़ी जब भारत के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने धाराचुला-लिपुलेख लिंक रोड का उद्घाटन किया। नेपाल ने उसका विरोध किया था। इससे पहले नेपाल ने कालापानी, लिपुलेख, लिंपियाधुरा समेत आसपास के अन्य क्षेत्रों को भारत के नक्शे में शामिल करने पर भी आपत्ति जताई थी।

ओली सरकार में दोनों देशों के रिश्तों में रही तनातनी

इस तरह, नेपाल दशकों से भारतीय क्षेत्र पर अपना दावा पेश करता रहा है लेकिन केपी शर्मा ओली की पिछली सरकार ने चीन के बहकावे में आकर इस विवाद को नए स्तर पर पहुंचा दिया जब उसने भारतीय क्षेत्रों को नेपाली नक्शे में शामिल कर लिया। नेपाल की जनता में भारत विरोधी भावना उभारने के लिए ओली सरकार ने नए नक्शे को संवैधानिक वैधता भी दिला दी। ओली भारत विरोध में इतना आगे चले गए कि उन्होंने भारत पर उनकी सरकार के खिलाफ साजिश रचने का आरोप तक मढ़ दिया। जून 2020 में नेपाल के एक प्रमुख समाचार पत्र कठमांडू पोस्ट ने ओली का बयान प्रकाशित किया। अखबार के मुताबिक ओली ने कहा, ‘अभी चल रहीं बौद्धिक चर्चाएं, नई दिल्ली से आ रही मीडिया रिपोर्ट, काठमांडू स्थित भारतीय दूतावास की गतिविधियां और अलग-अलग होटलों में चल रहीं बैठकों से समझना मुश्किल नहीं है कि कैसे मुझे हटाने की सक्रिय कोशिशें हो रही हैं।’ साफ है कि नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री ने खुलकर भारत विरोध का झंडा थाम लिया और जितना हो सका, भारत पर आरोप पर आरोप मढ़ते रहे। ओली ये सब चीन से नजदीकी की चाहत में उसी के इशारे पर करते रहे। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या प्रचंड की नई सरकार पर भी ओली के समर्थन की छाप देखी जाएगी?

सीमा विवाद पर प्रचंड का रुख

जानकारी दें, पुष्प कमल दहल ‘प्रचंड’ कथित सीमा विवाद पर कह चुके हैं कि इसे भारत-नेपाल के बीच कूटनीतिक और राजनीतिक बातचीत से ही सुलझाया जा सकता है। इसी वर्ष जुलाई में दिल्ली दौरे पर आए प्रचंड ने विदेश मंत्री एस. जयशंकर और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की थी। विदेश मंत्रीजयशंकर के साथ बैठक में प्रचंड ने कहा कि 1950 की संधि, सीमा विवाद और प्रतिष्ठित व्यक्तियों के समूह (ईपीजी) की समस्या का समाधान कूटनीतिक माध्यम से ही हो सकता है। प्रचंड ने भारत रवाना होने से पहले काठमांडू में भी कहा था, ‘मैं जोश के साथ भारत जा रहा हूं। यह दौरा बेहद ही महत्वपूर्ण है। मैं इस विश्वास के साथ जा रहा हूं कि यह नेपाल के लिए, गठबंधन के लिए, नेपाली लोगों के लिए सार्थक है। इसे लेकर मैं बेहद उत्साहित हूं।’ प्रचंड का यह दौरा मूलतः भारत-नेपाल के रिश्तों में मिठास लाने का ही प्रयास था।

पीएम बदला, बदलेगा भारत-नेपाल का रिश्ता?

आपको बता दें, प्रचंड ने नेपाल के संसदीय चुनाव के प्रचार अभियान में भी भारत के साथ कथित सीमा विवाद को लेकर काफी साकारात्मक रुख दिखाया था। उन्होंने नवंबर में उत्तराखंड से सटे नेपाल के धारचूला में कहा कि केवल नेपाल का नक्‍शा बदलने मात्र से हमें यह आधार नहीं मिल जाता है कि हम अपनी खोई हुई जमीन को भारत से फिर से हासिल कर लेंगे। प्रचंड ने कहा कि कथित नेपाली जमीन को हासिल करने के लिए भारत के साथ राजनयिक प्रयास करने होंगे। चुनाव प्रचार के दौरान ही नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री बाबूराम भट्टाराई ने भी ओली पर तीखा हमला बोला था। भट्टाराई ने ओली का नाम नाम लिए बिना कहा था कि किसी को भी देश की क्षेत्रीय एकजुटता को चुनावी अजेंडा नहीं बनाना चाहिए। भट्टाराई ने कहा कि फासीवाद से प्रभावित लोग ही राष्‍ट्रवाद को चुनावी अजेंडा बना सकते हैं। उन्‍होंने राष्‍ट्रीय एकजुटता को चुनावी एजेंडा नहीं बनाने की ओली को सलाह दी थी।

Ashish kumar Rai

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