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जिसे परिवार का पेट भरने के लिए एक अफ़गानिस्तानी पिता अपनी चार साल की बेटी को बेचने का सौदा करने जा रहा

इंडिया न्यूज, नई दिल्ली

कितना मजबूर बाप होगा जिसे परिवार का पेट भरने के लिए बेटी को किसी साहूकार को बेचना पड़े। सुनते ही कलेजा जैसे मुंह को आ जाता है। लेकिन, अफगानिस्तान में ये कहानी तो सामने आ गई। लेकिन, अनगिनत दर्द भरी दास्तां ऐसी भी होंगी जो आतंक के तालिबानी जश्न और अट्टहास में कहीं सिसक-सिसक के दम तोड़ रही होंगी। बहरहाल, यहां हम उस कहानी को जानते हैं जिसमें एक पिता अपनी चार साल की बेटी को बेचने का सौदा करने जा रहा है।

कौन है वो बदनसीब पिता

इस अफगान पिता की बेबसी का खुलासा ह्यटाइम्स आफ लंदनह् ने अपनी रिपोर्ट में किया है। यह रिपोर्ट ह्यन्यूयॉर्क पोस्टह् ने भी पब्लिश की है। बाप का नाम है मीर नाजिर। नाजिर 15 अगस्त के पहले तक अफगान पुलिस में छोटे कर्मचारी थे। तालिबान मुल्क पर काबिज हुए तो नौकरी चली गई। जो बचत थी, वो खत्म हो गई। घर भी किराए का है। परिवार में कुल सात लोग हैं। अब इनका पेट कैसे भरें?

कौन पालेगा परिवार

लंदन टाइम्स के रिपोर्टर एंथनी लॉयड से मीर ने कहा- सात लोगों का परिवार है। सबसे छोटी बेटी का नाम साफिया है। उसकी उम्र चार साल है। तालिबान आए तो मेरी पुलिस की नौकरी चली गई। अब परिवार का पेट कैसे पालूं, खाना कहां से लाऊं मुल्क की इकोनॉमी भी तो तबाह हो चुकी है। कहीं से कोई उम्मीद नहीं है। बेटी को बेचने से बेहतर होता कि मैं खुद मर जाता। लेकिन, क्या मेरी मौत के बाद भी परिवार बच जाता? उन्हें कौन रोटी देता? यह बेबसी में लिया गया फैसला है।

शायद साफिया की तकदीर संवर जाए

नम आंखों की ज्यादतियों को रोकने की नाकाम कोशिश करते हुए मीर आगे कहते हैं- एक दुकानदार मिला। उसे बाप बनने का सुख नहीं मिला। उसने मुझे आफर दिया कि वो मेरी साफिया को खरीदना चाहता है। वो उसकी दुकान पर काम भी करेगी। हो सकता है, मुस्तकबिल (भविष्य) में उसकी तकदीर संवर जाए। मैं तो अब पुलिसकर्मी से हम्माल और मजदूर बन गया हूं। वो दुकानदार मेरी बेटी को 20 हजार अफगानीस (इंडियन करंसी के हिसाब से करीब 17 हजार रुपए) में खरीदना चाहता है। इतनी कम कीमत पर बेटी को बेचकर क्या करूंगा? मैंने उससे 50 हजार अफगानीस (भारतीय मुद्रा में करीब 43 हजार रुपए) मांगे हैं।

तालिबान के बाद गरीबी नया दुश्मन

नाजिर इस कहानी को आगे बढ़ाते हैं। कहते हैं- साफिया पर उस दुकानदार से मेरी बातचीत चल रही है। मैं उसे क्या दे पाउंगा हो सकता है इस पैसे से मैं पूरे परिवार को बचा लूं। उस दुकानदार ने मुझसे वादा किया है कि अगर मैंने भविष्य में उसके पैसे लौटा दिए तो वो मुझे मेरा लख्त-ए-जिगर (कलेजे का टुकड़ा) लौटा देगा। खुशी है कि मुल्क में अब जंग थम गई है, लेकिन गरीबी और भुखमरी नया दुश्मन है।
बात को मंजिल तक पहुंचाते हुए नाजिर निढाल हो जाते हैं। कुछ रुककर कहते हैं- मैं भी आप जैसा ही हूं। ये मत समझिए कि मैं अपनी साफिया से प्यार नहीं करता। लेकिन, मजबूर हूं और कोई विकल्प भी तो नहीं।

India News Editor

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