राजेश बादल
वरिष्ठ पत्रकार
इन दिनों राजनीतिक दलों की ओर से चुनाव के दरम्यान लुभावने वादों पर बहस तेज है। कुछ वर्षों से राजनीतिक दल मतदाताओं के खाते में धन जमा कराने का वादा करने लगे हैं। इससे पहले लंबे समय तक मतदान से ठीक पहले रुपए और शराब बांटने का सिलसिला चलता रहा है। चूंकि अब पुलिस और आबकारी विभागों की सख्ती तथा आयकर विभाग की निगरानी के चलते खुल्लम-खुल्ला नोट फॉर वोट देना आसान नहीं रहा है। पकड़े जाने पर दल और पार्टी की बदनामी से पराजय का खतरा भी है। ऐसे में सियासी पार्टियां सत्ता में आने पर ऐसी घूस का लालच देने से नहीं चूकतीं।
यह सिलसिला दक्षिण भारतीय राज्यों में तो दशकों से चल रहा है। कहीं खुलेआम साड़ियां बांटी जाती थीं तो किसी राज्य में फोन बंटते थे। कुछ उदाहरण ऐसे थे, जिनमें एक परिवार को उम्मीदवार दुपहिया वाहन देता था। घोषणा पत्रों में भी में लैपटॉप से लेकर साइकिल तक देने का वादा किया जाता है। जो दल चुनाव जीतने के बाद अस्पताल में दवाएं और डॉक्टर नहीं देता, स्कूलों में अच्छी पढ़ाई और शिक्षक नहीं देता, सड़क नहीं देता, पानी नहीं देता, बुनियादी सुविधाएं नहीं देता, वो स्पेशल ट्रेन चलकर बूढ़ों को तीर्थ कराता है, लेपटॉप बांटता है, जूते बांटता है, बंदूकों के लाइसेंस बांटता है, लड़कियों को कन्यादान-किट उपहार में देता है। हमारी चुनाव प्रणाली को कोई ऐतराज नहीं होता। मतदाता के तौर पर राजनीतिक दलों की गलतियों को हम भूल जाते हैं। हम जैसे-जैसे साक्षर और आधुनिक हो रहे हैं, दिमागी तौर पर और सिकुड़ते जा रहे हैं।
इस तरह के प्रपंचों से यदि वे सरकार बना लेती हैं तो भी पूरी तरह से वादों पर अमल नहीं करतीं।
यह वोटर के साथ दोहरे छल का नमूना है। कभी-कभार किसी पार्टी ने वचनपत्र पर अमल करते हुए खातों में पैसा ट्रांसफर करना शुरू कर भी दिया तो वह दो-चार महीने ही चलता है। केंद्र सरकार और राज्यों की आर्थिक हालत वर्षों से कोई बहुत उम्दा नहीं है। कर्ज और कर की प्राणवायु पर लोकतंत्र की सांसें टिकी हैं। गांवों में अस्पतालों, स्कूलों, अच्छे शिक्षकों, डॉक्टरों, सड़कों और साफ पानी का बंदोबस्त करने के लिए उनके पास पैसा ही नहीं होता। यह हालत आने वाले दिनों की चिंताजनक तस्वीर पेश करती है। दिल्ली उच्च न्यायालय ने हाल ही में एक शानदार टिप्पणी की है। कोर्ट ने कहा है कि नागरिकों के अधिकार पहनने के आभूषण नहीं हैं। लोगों को इनका उपयोग करना चाहिए। अदालत ने नकद राशि मतदाताओं के खातों में डालने के ऐलानों पर चुनाव आयोग और केंद्र सरकार से कैफियत मांगी है। न्यायालय ने एक याचिका पर यह स्पष्टीकरण तलब किया है। इसमें कहा गया है कि जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा-123 के तहत यह भ्रष्टाचार की श्रेणी में आता है। भारतीय संविधान भी श्रम और उत्पादकता तय किए बिना नकद बांटने की मंशा का समर्थन नहीं करता। यदि सारी पार्टियों ने ऐसा करना शुरू कर दिया तो यह आलसियों का देश बन जाएगा और बिना मेहनत पेट भरने का आदी हो जाएगा। (वैसे काफी हद तक हम भारतीय ऐसे ही हैं) याचिका दाखिल करने वालों का कहना था कि 2019 के चुनाव में एक राष्ट्रीय और एक प्रादेशिक पार्टी ने अपने घोषणापत्रों में न्याय योजना के तहत 72,000 रुपए साल हर मतदाता को देने का वादा किया था। इसकी व्याख्या की जाए तो माना जाना चाहिए कि किसी घर में माता-पिता और नौजवान बेटा-बेटी हैं तो करीब-करीब तीन लाख रुपए साल उन्हें घर बैठे मिलेंगे। एक मध्यम श्रेणी परिवार 25000 रुपए में अपना गुजारा आराम से कर लेता है।
करोड़ों परिवार तो इतना भी नहीं कमाते। मुफ्त का पैसा उन्हें नाकारा बनाता है। दिल्ली उच्च न्यायालय ने इस संबंध में निर्वाचन आयोग को भी आड़े हाथों लिया है। उसने कहा है कि आयोग केवल नोटिस और आदेश जारी न करे। उसे कार्रवाई करने का पूरा अधिकार है और उसे यही करना भी चाहिए। लेकिन क्या सिर्फ न्यायालय इस चुनावी भ्रष्टाचार को रोक सकता है ? दशकों से चुनाव के दौरान सीमा से अधिक खर्च होता है। उम्मीदवारों ने पैसे बहाने के नए चोर दरवाजे खोज लिए हैं। राजनीति सेवा का क्षेत्र नहीं, उद्योग हो गया है। विधानसभा की एक सीट पर दो से पांच करोड़ और लोकसभा की सीट पर पांच से पच्चीस करोड़ तक चुनाव में खर्च होते हैं। आयोग को दिए गए खर्च के ब्यौरे में सब कुछ सीमा के अंदर दिखाया जाता है। फाइलों का पेट भरने के लिए दो-चार चेतावनी, दो-चार स्पष्टीकरण आयोग के रिकॉर्ड में आ जाते हैं। फिर सब भूल जाते हैं। मान लीजिए एक उम्मीदवार चुनाव में 10 करोड़ रुपए खर्च करता है तो जीतने के बाद उसकी तीन प्राथमिकताएं होती हैं-एक; वो दस करोड़ रुपए वापस निकाले। दो; अगले चुनाव में खर्च के लिए बीस फीसदी खर्च बढ़ाकर यानी बारह करोड़ सुरक्षित करे और तीन; पांच साल तक अपना गुजारा भत्ता निकाले जो करीब एक करोड़ रुपए साल का होता है। कुल मिलाकर 27 करोड़ उसे वापस चाहिए। चुनाव आयोग के पास इसे रोकने या काबू पाने का कोई उपकरण नहीं है। पर यह भी सच है कि चुनाव आयोग के सख्त रवैये की बदौलत ही मुल्क में कई बार निर्वाचन प्रक्रि या की गाड़ी पटरी पर लौटी है। भारतीय लोकतंत्र टी।एन। शेषन के दौर का भी साक्षी है और उनके बाद मतदाताओं ने जीवीजी कृष्णमूर्ति को भी चुनाव आयोग की अगुआई करते भी देखा है।
यदि एक बार आयोग ठान ले तो कोई राजनीतिक दल या सरकार उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकती। पर, यदि आयोग समर्पण कर दे तो चुनाव सुधारों के सारे प्रयास बांझ हो जाएंगे। जिस मुद्दे पर उच्च न्यायालय का द्वार खटखटाया गया है, वह दरअसल चुनाव आयोग का काम है। जब-जब भारतीय चुनाव आयोग ने अपनी नैतिक और विधायी शक्ति का इस्तेमाल करने में कंजूसी की है, तब-तब राजनीति को विकृत करने वाले तत्वों का हौसला बढ़ा है। जिस पर जिम्मेदारी हो, वही अगर बचने लगे तो भारतीय मतदाता किसके पास जाए।
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