विश्वनाथ सचदेव
वरिष्ठ स्तंभकार
न्याय की कसौटी यह है कि न्याय हो ही नहीं, होता हुआ दिखे भी। ऐसा होगा, तभी जनता में व्यवस्था के प्रति विश्वास होगा। यह कसौटी उन सारे संदर्भो में लागू होती है, जब कहीं कुछ अन्याय होता है। ऐसा ही एक प्रकरण पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के लखीमपुर में सामने आया, जब प्रदर्शनकारी किसानों के एक शांत जुलूस पर कुछ गाड़ियों ने पीछे से आकर हमला कर दिया।
इस प्रकरण के जो वीडियो सामने आए हैं, उनसे यह हमला ही लगता है। हमला करने वालों में एक केंद्रीय मंत्नी के बेटे का नाम भी है। फिलहाल बेटा पुलिस की हिरासत में है। कानूनी प्रक्रिया जारी है, लेकिन सवालिया निशान शुरूआती दौर में ही लगने लगे थे। ज्ञातव्य है कि संबंधित मंत्नी केंद्रीय गृह राज्यमंत्नी हैं। मामले की जांच के शुरू में ही जब आरोपी को हाथ लगाने में पुलिस हिचकिचाहट दिखा रही थी, तभी यह भी कहा जाने लगा था कि पुलिस मामले को दबाने की कोशिश कर रही है। मंत्नी-पुत्न पर हत्या, हत्या का प्रयास जैसी गंभीर धाराओं के अंतर्गत आरोप लगे हैं। यह भी पहले दिन से ही पता चल गया था कि जिस गाड़ी से किसान कुचले गए, वह गाड़ी संबंधित मंत्नी के पुत्न के नाम पर रजिस्टर्ड है। ऐसे में आरोपी की गिरफ्तारी पहला कदम होना चाहिए था, पर इस मामले में पुलिस ने यह कदम तब उठाया जब चारों तरफ से हमला होने लगा। देश के गृह मंत्नालय की जिम्मेदारी होती है सारे देश में कानून-व्यवस्था को बनाए रखने की।
गृह मंत्नालय से जुड़ी सारी एजेंसियां गृह मंत्नी, गृह राज्यमंत्नी के अधीन हुआ करती हैं। यह एजेंसियां ईमानदारीपूर्वक काम करें, काम कर सकें, इसके लिए जरूरी है कि उन पर मंत्नालय की ओर से कोई दबाव न हो। इसीलिए यह सवाल उठा था कि मामला जब देश के गृह राज्य मंत्नी के बेटे का हो तो क्या उन्हें पद पर बने रहना चाहिए? नैतिकता का तकाजा था कि संबंधित मंत्नी अपने पद से स्वयं ही इस्तीफा दे देते, या फिर प्रधानमंत्नी उन्हें कहते कि जब तक मामले का निपटारा नहीं हो जाता तब तक वे पद-भार छोड़ दें।
पुलिस निर्भय होकर अपना काम कर सके, इसके लिए ऐसा होना जरूरी था। पर दुर्भाग्य से, ऐसा हुआ नहीं। यह सही है कि आज हमारी राजनीति में नैतिकता के लिए कहीं कोई जगह नहीं बची। फिर भी यह अपेक्षा बनी रहती है कि शायद हमारे किसी नेता को अपना कर्तव्य याद आ जाए। ऐसा भी नहीं है कि हमारे नेताओं ने कभी नैतिकता का परिचय नहीं दिया। लालबहादुर शास्त्नी जब देश के रेल-मंत्नी थे तो एक रेल-दुर्घटना की नैतिक जिम्मेदारी स्वीकारते हुए उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया था। ऐसा ही एक उदाहरण लालकृष्ण आडवाणी ने भी प्रस्तुत किया था, जब उन पर भ्रष्टाचार का आरोप लगा था।
तब उन्होंने यह कह कर अपने पद से त्यागपत्न दे दिया था कि जब तक मैं आरोप-मुक्त नहीं हो जाता, मुझे मंत्रिमंडल में बने रहने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है। जब तक मंत्रियों पर इस तरह के तार्किक आरोप तो लगते रहे हैं, यूं तो हर मंत्नी को पद से हटते रहना होगा। हां, नैतिकता का तकाजा यही है। हमारे मंत्रियों का व्यवहार ऐसा होना चाहिए कि विरोधी उन पर झूठा आरोप लगाने से डरें। यही आदर्श स्थिति है। लखीमपुर खीरी-कांड में देश के गृह राज्यमंत्नी पर कोई सीधा आरोप नहीं लगा है। पर निशाने पर उनका पुत्न है। उनके पद पर रहते यह संदेह तो बना ही रहेगा कि उनके अंतर्गत काम करने वाला पुलिस महकमा स्वतंत्नतापूर्वक निर्भयता से काम कैसे करेगा? फिर, इस गृह राज्यमंत्नी पर तो जनता को धमकाने का आरोप भी है। लखीमपुर की वारदात के कुछ ही दिन पहले उन्होंने सरेआम अपने विरोधियों को धमकी देते हुए कहा था कि आज भले ही वे सांसद या मंत्नी हों, पर इससे पहले भी वे कुछ थे, इसे न भूलें। यह धमकी देकर वे अपना कौन-सा अतीत याद दिलाना चाहते हैं? वर्षो पहले उन पर हत्या का आरोप लगा था, अभी तक उस मामले का निर्णय नहीं सुनाया गया है।
इस कांड का रिश्ता उनकी बाहुबली वाली छवि से है। यह बाहुबली वाला लांछन हमारी राजनीति का एक कलंक है। न जाने कितने बाहुबली हमारी विधानसभाओं और संसद के सदस्य हैं। हो सकता है इन में से कइयों के आरोप झूठे हों। पर जो झूठे नहीं हैं, उनका क्या? और फिर जब कोई राजनेता अपने विरोधियों को अपने अतीत की याद दिलाता है तो यह सवाल तो उठता ही है कि ऐसा राजनेता क्यों और कब तक सत्ता में बने रहने का अधिकारी है? नैतिकता का तकाजा तो यह है कि जब कोई राजनेता अपने अतीत की याद दिलाकर अपने विरोधियों को धमकी देता है, तभी उसे पद से हटा दिया जाए।
राजनेता हमारे आदर्श होने चाहिए। पर हमारी राजनीति को देखते हुए तो यह बात कहना भी अपना मजाक उड़वाना है। फिर भी नैतिकता की बात करना जरूरी है। बार-बार होनी चाहिए यह बात। क्या पता, कब किसी दस्तक से दीवार में कोई खिड़की खुल जाए। जब तक खिड़की नहीं खुलती, राजनीति की घुटन भरी कोठरी में ठंडी हवा का झोंका नहीं आता, यह कहते रहना होगा कि नैतिकता-विहीन राजनीति जनतांत्रिक व्यवस्था का नकार है। कब सीखेंगे हमारे राजनेता सही व्यवहार का मतलब?
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