इंडिया न्यूज, नई दिल्ली:
First Phase Polling In UP: आज उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव के पहले चरण का विगुल बज चुका है। (UP First Phase Election) पहले चरण में 10 फरवरी 2022 को पश्चिमी उत्तर प्रदेश की 58 सीटों पर मतदान हो रहा है, जिसमें से 24 सीटों में जाट मतदानकर्ता निर्णायक भूमिका में हैं। 2017 के अगर विधानसभा चुनाव को देखा जाए तो उस समय भाजपा को जिताने में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट समुदाय का सबसे ज्यादा योगदान था। चलिए जानते हैं पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट समुदाय क्यों मायने रखते हैं? भाजपा के लिए पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट वोट क्यों जरूरी हैं?।
खेती के साथ राजनीति में भी आगे जाट (First Phase Polling In UP)
- जाट समुदाय मुख्य रूप से खेती के लिए जाने जाते हैं, लेकिन जाट राजनीतिक क्षेत्र में भी खुद को मजबूत रखने के लिए जाने जाते हैं। (Jat Vote Are So Matter In Western UP) पश्चिमी उत्तर प्रदेश में विधानसभा की 76 विधानसभा सीटों में जाट समुदाय की आबादी करीब 12 फीसदी से 15 फीसदी के बीच है। वहीं, सिर्फ बागपत, मुजफ्फरनगर, शामली, बिजनौर, मेरठ, अलीगढ़, मथुरा और मुरादाबाद जिलों में फैली 24 सीटों की बात करें तो विधानसभा सीट में जाटों की संख्या 35 फीसदी तक है। (What Is Jat Equation)
- 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी प्रमुख चुनावी पार्टी बनकर उभरी थी। 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव और 2017 के विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी ने यहां क्लीनस्वीप करते हुए जीत दर्ज की है।
मुस्लिम वोटों पर रालोद की पकड़ कब पड़ी कमजोर?
- पूर्व प्रधानमंत्री और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके चौधरी चरण सिंह को जाट समुदाय का सबसे बड़ा नेता माना जाता है। 1969 में हुए विधानसभा चुनाव में चरण सिंह की भारतीय क्रांति दल ने 402 में से 98 सीटें जीती थीं। इस दौरान पार्टी का वोट शेयर 21.29 फीसदी था।
- इस दौरान उन्हें पश्चिमी उत्तर प्रदेश की जाट, मुस्लिम समेत सभी जातियों का भरपूर साथ मिला। यह इस बात से भी जाहिर होता है कि 1987 में उनके निधन के बाद तक के चुनावों में उनकी पार्टी का वोट शेयर 20 फीसदी के करीब बना हुआ था।
- इसके बाद अजीत सिंह अपने पिता चौधरी चरण सिंह के पारंपरिक वोटों को नहीं संभाल पाए और वे सिर्फ जाटों के नेता बनकर रह गए। इसके बाद रही सही कसर 2013 के मुजफ्फरनगर के दंगे ने पूरी कर दी। इससे सामाजिक विभाजन पैदा हुआ और रालोद का पारंपरिक जाट वोट भाजपा में शिफ्ट हो गया।
- इसके चलते 2014 के लोकसभा चुनाव में रालोद के उस समय प्रमुख रहे अजीत सिंह और उनके बेटे अपनी सीट तक नहीं बचा पाए और चुनाव हार गए। वहीं 2017 के विधानसभा चुनाव में रालोद को मात्र एक सीट से ही संतोष करना पड़ा था।
जाट और मुस्लिमों के साथ आने की कितनी संभावना?
- किसान आंदोलन के बाद से ऐसा लग रहा है कि रालोद ने क्षेत्र में अपनी जमीन वापस पा ली है और जाटों और मुसलमानों को एक साथ आने का ग्राउंड तैयार किया है।
- जाट और मुस्लिम को चौधरी चरण सिंह और रालोद का पारंपरिक वोट बैंक माना जाता है। यदि यह पूरी से काम करता है तो कई विधानसभा सीटों पर पहले चरण में यह निर्णायक फैक्टर साबित हो सकता है।
- पश्चिम उत्तर में जाट 12 फीसदी से 15 फीसदी के करीब हैं तो वहीं मुस्लिम 24 फीसदी से 29 फीसदी के बीच हैं। ऐसे में इन दोनों समुदायों के एक साथ आने से सपा और रालोद गठबंधन को फायदा होने की उम्मीद है।
- जाट और मुस्लिम समुदाय के साथ आने पर संदेह भी है। 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों में जो विभाजन हुआ था उसका असर कितना कम हुआ है यह भी काफी मायने रखेगा।
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