India News (इंडिया न्यूज़), राणा यशवन्त, बातों बातों में : देश के सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार 28 हफ्ते की प्रेग्नेंसी के अबॉर्शन की इजाजत दी है। वह भी कानून के दायरे से बाहर जाकर अदालत ने महिला के निवेदन पर मुहर लगाई है, कानून कहता है कि 24 हफ्ते तक की प्रेग्नेंसी को एमटीपी यानी मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी की इजाजत मिल सकती है, अगर गर्भवती महिला शादीशुदा, बलात्कार पीड़ित, दिव्यांग या नाबालिग है, लेकिन गर्भ 24 हफ्ते से ज्यादा का है तो एमटीपी की इजाजत तभी मिल सकती है, जब भ्रूण बिगड़ रहा हो,यानी बच्चे के नहीं बचने या फिर उसके स्वस्थ नहीं होने की स्थिति हो। कोर्ट मेडिकल बोर्ड की सलाह पर अबॉर्शन की अनुमित दे सकता है, सुप्रीम कोर्ट ने जिस महिला को अबॉर्शन की इजाजत दी है, उसका केस भ्रूण बिगड़ने का नहीं है। महिला बलात्कार पीड़ित है औऱ वह नहीं चाहती है कि जिस आदमी ने उसके साथ जघन्य अपराध किया उसके बच्चे की वह मां बने।

जस्टिस बीवी नागरत्ना की भूमिका काफी सराहनीय

इस मामले में जस्टिस बीवी नागरत्ना की भूमिका काफी सराहनीय रही, यह मामला 19 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट के सामने आया औऱ उस दिन छुट्टी थी, बावजूद इसके जस्टिस नागरत्ना और जस्टिस उज्जल की बेंच उस रोज बैठी, कोर्ट ने पीड़िता की फ्रेश मेडिकल रिपोर्ट कराने का आदेश दिया, अगले दिन यानी रविवार को रिपोर्ट आ गई, सोमवार को बेंच ने पीड़िता को अबॉर्शन का आदेश दे दिया, अपने फैसले में जस्टिस नागरत्ना ने कहा कि “एक महिला का दुष्कर्म होना, अपने आप में कष्टदायक है, इसके बाद अगर वह प्रेग्नेंट हो जाए तो यह पुराने घावों की याद दिलाता रहता है”,जाहिर है कोर्ट ने 28 महीने की प्रेग्नेंसी को टर्मिनेट करने की इजाजत इसलिए दी है, क्योंकि वह उस घाव से महिला को मुक्ति दिलाना चाहता था। अदालत को बलात्कार की पीड़ा से मुक्ति एक बच्चे को जन्म से अधिक महत्वपूर्ण लगी, इस लिहाज से यह एक ऐतिहासिक फैसला माना जाएगा, वैसे कोर्ट ने यह आदेश भी दिया कि अगर अबॉर्शन के बाद भ्रूण जीवित पाया जाता है तो उसको जीवित रखने के लिए जो भी सुविधाएं जरुरी हों वो दी जाएं।

गुजरात हाई कोर्ट होते लेटलतीफी के लिए फटकार

दरअसल यह मामला सुप्रीम कोर्ट में गुजरात हाई कोर्ट होते हुए आया, जस्टिस नागरत्ना ने गुजरात हाई कोर्ट को मामले की सुनवाई में लेटलतीफी के लिए फटकार लगाई, दरअसल हुआ ये कि पीड़ित महिला का जनवरी मे बलात्कार हुआ , इसके बाद वह गर्भवती हो गई, लेकिन महिला बच्चे को जन्म देना नहीं चाहती थी, यानी अबॉर्शन करवाना चाहती थी, समय बीतता चला गया औऱ कानून कहता है कि जब प्रेग्नेंसी 24 हफ्ते की हो जाए तो कोर्ट से आदेश लेना होगा, लिहाजा पीड़िता कोर्ट पहुंची, उसने 7 अगस्त को गुजरात हाई कोर्ट में एमटीपी के लिए अर्जी डाली, अदालत ने 8 अगस्त को सुनवाई की और प्रेग्नेंसी के स्थिति जानने के लिए एक मेडिकल बोर्ड बनाने का आदेश दिया, 10 अगस्त को बोर्ड की रिपोर्ट आ गई, हाई कोर्ट ने 11 अगस्त को प्रेग्नेंसी स्टेटस रिपोर्ट को रिकॉर्ड पर लिया और मामले की अगली तारीख 23 अगस्त दे दी, इस बीच 17 अगस्त को यह पता चला कि कोर्ट ने महिला की अर्जी खारिज कर दी है, मतलब उसे बच्चे को जन्म देना होगा, अबॉर्शन नहीं हो सकता, इस आदेश की कॉपी हाई कोर्ट ने जारी नहीं की, लेकिन पीड़िता 19 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट अपनी अर्जी लेकर पहुंच गई औऱ दो जजों की बेंच ने शनिवार होने के बावजूद सुनवाई की।

भारतीय अदालतों में एक नजीर

उसी रोज पीड़िता की स्थिति को देखते हुए जस्टिस नागरत्ना ने गुजरात हाई कोर्ट को कहा था कि ” ऐसे मामलों में जब एक एक दिन महत्वपूर्ण होता है तो फिर सुनवाई की तारीख क्यों टाली गई, होना तो यह चाहिए था कि 11 अगस्त को ही जिस रोज प्रेग्नेंसी रिपोर्ट आ गई थी, कोर्ट को तत्काल सुनवाई करनी चाहिए थी, ऐसे मामले में सुनवाई 12 दिन कैसे टाली जा सकती है? यह मामला भारतीय अदालतों में एक नजीर है, 24 हफ्ते की प्रेग्नेंसी लिमिट पार करने के बाद भी एक महिला को अबॉर्शन की इजाजत मिली, भ्रूण के खराब नहीं होने के बावजूद मिली औऱ कानूनी दायरे से बाहर जाकर मिली, देश की सबसे बड़ी अदालत का यह फैसला भारतीय कानून में एक नजीर है, एक महिला की गरिमा औऱ उसकी इच्छा उस जीवन से महत्वपूर्ण है जो उसके गर्भ में पल रहा है, बलात्कारी के बच्चे को जन्म नहीं देने का पीड़िता का फैसला उसका निजी अधिकार है, जिसकी अदालत ने रक्षा की।

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