राजेश बादल (वरिष्ठ पत्रकार)
विजय रूपाणी बलि का बकरा बन गए। विडंबना है कि बीते दिनों अनेक चुनावों में गुजरात का विकास नजीर की तरह पेश किया जा रहा है। येन-केन-प्रकारेण जंग जीतने की जिद के चलते राष्ट्रीय प्राथमिकताएं हाशिए पर जा रही हैं। सियासी सोच में आई इस विकृति के कारण सभी राजनीतिक दलों के लिए पूरे साल चुनावी मूड में रहना विवशता बन गया है। इसी मजबूरी में बिना मूल्यांकन के सत्ता और संगठन को ताश के पत्तों की तरह फेंटने का सिलसिला चल पड़ा है।
लोकतंत्र के स्वास्थ्य को पहुंच रही क्षति शायद ही किसी को दिखाई दे रही हो। गुजरात का ताजा घटनाक्रम इसका साक्षी है। म्यांमार में जन्मे विजय रूपाणी चार बरस की उमर में हिंदुस्तान आए। उसके बाद किशोरावस्था से लगातार जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी से जुड़े रहे हैं। पार्टी ने उन्हें मुख्यमंत्री पद तक पहुंचाया। अगले बरस होने जा रहे विधानसभा चुनाव में पार्टी को लगा कि विजय के रहते विजय नहीं मिलेगी, लिहाजा एक झटके में उन्हें बाहर का दरवाजा दिखा दिया गया। परदे के पीछे कोरोना काल में तंत्र की विफलता और पाटीदार समुदाय का गुस्सा इसकी वजह मानी जा रही है। इन दो कारणों से दल के लिए अगले चुनाव में कामयाबी बेहद कठिन थी। विजय रूपाणी बलि का बकरा बन गए। विडंबना है कि बीते दिनों अनेक चुनावों में गुजरात का विकास नजीर की तरह पेश किया जा रहा है। ताजा घटनाक्रम किसी भी अनुभवी मुख्यमंत्री को प्रेरित करेगा कि वह विकास पर नहीं, चुनाव जीतने पर ही खुद को केंद्रित करे। विजय रूपाणी का उत्तराधिकारी उनसे अधिक प्रशासनिक अनुभव वाला होता तो एक बार इसे तार्किक बदलाव कहा जा सकता था।
मगर जब अगले निर्वाचन में सफलता ही मकसद हो तो इसे कोई भी उचित नहीं मानेगा। एक मुख्यमंत्री पांच साल तक अपने सपनों को नीतियों और कार्यक्रमों की शक्ल में साकार करता है। चौथे और पांचवें साल में सपनों की यह फसल काटने की नौबत आती है। अचानक इस पकी हुई फसल पर बुलडोजर दौड़ा देना परिपक्वता की निशानी नहीं है। नए नायक के रूप में भूपेंद्र सिंह पटेल सिर्फ साल भर में कौन से तीर मार लेंगे- यह समझने की बात है। हरदम केंद्रीय नेतृत्व की छवि के आधार पर सूबों में सत्ता नहीं मिलती। अलबत्ता ऐसे फेरबदल जनहित में ठीक नहीं होते। पूरब और पश्चिम के राज्यों में हालिया चुनाव इसका सबूत हैं। हर प्रतिक्रिया की विपरीत प्रतिक्रिया होती है और इस बदलाव से पार्टी के भीतर एक वर्ग अपने को खोल में बंद कर सकता है।
गुजरात से पहले उत्तराखंड में भी सत्तारूढ़ दल ने अपना मुख्यमंत्री बदला था। यह राज्य तो एक ऐसी प्रयोगशाला है, जहां मुख्यमंत्री का पद कब चला जाएगा-कोई नहीं बता सकता। इस प्रदेश में परिवर्तन को चुनाव के नजरिये से देखा गया था। असम में चुनाव के बाद चेहरा ही बदल दिया गया। उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश में क्षत्रपों के अड़ जाने से आलाकमान को अपनी तलवार म्यान में रखनी पड़ी। लेकिन परिवर्तन की इस मुहिम के पीछे छिपे संकेत अब अवाम भी समझने लगी है।
इनका उद्देश्य राष्ट्र में शिक्षा के उत्कृष्ट अवसर देना, बेरोजगारी दूर करना, संतुलित औद्योगिक विकास करना, किसानों की माली हालत बेहतर बनाना और पानी-बिजली जैसी समस्याओं को सुविधा में बदलने का नहीं है। प्रयोजन केवल अगले चुनाव में जीतना है। वैसे, जीतने का लक्ष्य कोई अपवित्न भाव नहीं है – बशर्ते वह जनता की सेवा करके हासिल किया जाए। इस मामले में भारतीय जनता पार्टी की विरोधी पार्टी कांग्रेस भी अपवाद नहीं है। पर, चूंकि धीरे-धीरे सत्ता से उसका फासला साल-दर-साल बढ़ता जा रहा है इसलिए उदाहरण तनिक पुराने हैं।
मध्यप्रदेश में प्रकाशचंद्र सेठी, श्यामाचरण शुक्ल, अर्जुन सिंह और मोतीलाल वोरा को भी ऐसे परिवर्तनों का शिकार होना पड़ा था। राजस्थान में हरिदेव जोशी, शिवचरण माथुर, हीरा लाल देवपुरा और जगन्नाथ पहाड़िया भी इसी तरह बदले गए थे। महाराष्ट्र में भी वसंतराव नाईक को छोड़ दें तो करीब-करीब सारे मुख्यमंत्री अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सके। हालांकि उनमें से अनेक का इस्तीफा केवल चुनाव जीतने के लिए नहीं लिया गया। तात्कालिक सियासी घटनाक्रम भी उसके लिए जिम्मेदार था। हां ऐसे अपवाद अवश्य हैं कि चुनाव पूर्व पार्टी ने मुख्यमंत्रियों को नहीं बदला इसलिए उसकी सत्ता चली गई। मध्यप्रदेश, असम और महाराष्ट्र ऐसे ही राज्यों की श्रेणी में हैं। शायद भाजपा इतिहास को दोहराते अपनी पार्टी में नहीं देखना चाहती। इसे कोई नकार नहीं सकता कि कुछ दशकों से पार्टी विधायक दल को बौना कर दिया गया है। वह अब मुख्यमंत्री नहीं चुनता बल्कि रस्म अदायगी करता है। यह संविधान की भावना के खिलाफ है। थोपा गया मुख्यमंत्री केंद्र की दया पर निर्भर होता है। ऐसे में जनसेवा और समग्र विकास की इच्छाएं दम तोड़ देती हैं।
सत्ता की मलाई चाटने और सुविधाओं की बंदरबांट में ही पूरा कार्यकाल निकल जाता है। दस साल तक एक बड़े सूबे के मुख्यमंत्री रहे मुझसे अक्सर कहते हैं कि चुनाव काम करके नहीं जीते जाते। यह कड़वी हकीकत है, लेकिन सियासत के लिए बेहद खतरनाक चेतावनी भी है।
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