चूल्हा मिट्टी का, मिट्टी तालाब की, तालाब ठाकुर का।
भूख रोटी की, रोटी बाजरे की बाजरा खेत का, खेत ठाकुर का।
बैल ठाकुर का, हल ठाकुर का, हल की मूठ पर हथेली अपनी, फ़सल ठाकुर की।
कुआं ठाकुर का, पानी ठाकुर का, खेत-खलिहान ठाकुर के, गली-मुहल्ले ठाकुर के, फिर अपना क्या?
गांव ? शहर ? देश ?”
इस कविता का शीर्षक है ‘ठाकुर का कुआं’ और लिखने वाले हैं ओमप्रकाश वाल्मीकि। ओमप्रकाश वाल्मीकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुज़फ़्फ़रनगर में जन्मे, 17 नवंबर 2013 को कैंसर से देहरादून में मौत हो गई। आज उनके घर के नौजवान भी उनके बारे में कुछ ज़्यादा नहीं जानते। ये तो बात हुई ‘ठाकुर का कुआं’ लिखने वाले कवि की। अब आते हैं बिहार की सियासत पर। राष्ट्रीय जनता दल यानि लालू की पार्टी के राज्यसभा सांसद मनोज झा ने संसद में कविता क्या पढ़ी कि बिहार की सियासत ठाकुर के कुएं में उतर आई।
मनोज झा ने महिला आरक्षण बिल पर बहस के समय राज्यसभा में इस कविता का पाठ किया था। पांच दिन बाद आरजेडी और जेडीयू के कुछ राजपूत नेताओं को लग रहा है कि कविता से उनकी बिरादरी यानि राजपूतों का अपमान हो गया है। आनंद मोहन के बेटे चेतन आनंद, जेडीयू विधान परिषद सदस्य संजय सिंह जैसे नेताओं का मानना है कि मनोज झा ने क्षत्रिय समाज का अपमान किया है।
इस वोटबैंक पर चेतन आनंद, आनंद मोहन, नीरज बबलू, संजय सिंह, और अजय सिंह जैसे नेताओं की नज़र है। आरा, सारण, महाराजगंज, औरंगाबाद, वैशाली और बक्सर ज़िले में राजपूतों की पकड़ है। जेडीयू ने तो पहले से ही ललन सिंह को अपना अध्यक्ष बना कर साफ़ कर दिया है कि वो सवर्णों का साथ कभी नहीं छोड़ेगा। बिहार की राजनीति में सवर्णों पर हर किसी की नज़र है। ‘भूराबाल’ (भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण, लाला) साफ़ करो का कभी नारा लगा कर सवर्णों का विरोध करने वाले आरजेडी को भी अब सवर्णों के सहारे चुनावी वैतरणी पार करने की ज़रूरत महसूस होने लगी है।
एक तरफ़ ठाकुर यानि राजपूत हैं, दूसरी तरफ़ गोपालगंज, बक्सर, आरा, कैमूर, दरभंगा और मधुबनी के ब्राह्मण भी हैं। बिहार में ठाकुर और ब्राह्मण को नाराज़ करके कोई भी दल नहीं टिक सकता। 18 साल के चुनावी इतिहास पर ग़ौर करें तो पता चलता है कि राजपूत और ब्राह्मण वोटर्स का झुकाव बीजेपी और NDA की तरफ़ रहा है। हालांकि ठाकुरों का थोड़ा बहुत वोट आरजेडी-जेडीयू की तरफ़ भी शिफ्ट होता रहा। मनोज झा ने कविता क्या पढ़ी कि राजपूतों ने तलवार खींच ली।
लालू प्रसाद यादव, राबड़ी देवी, नीतीश कुमार और जीतन राम मांझी से पहले एक ज़माना था, जब बिहार में सवर्णों के शासन की तूती बोला करती थी। इतिहास के पन्ने पलटेंगे तो जानेंगे भूमिहार जाति से आने वाले श्री कृष्ण सिंह बिहार के पहले मुख्यमंत्री बने थे। उनके निधन के बाद राजपूत बिरादरी से चंद्रशेखर सिंह एकमात्र सीएम बने, जबकि ब्राह्मण मुख्यमंत्रियों की लंबी फ़ेहरिस्त है।
भागवत झा आज़ाद, जगन्नाथ मिश्र और बिंदेश्वरी दुबे ब्राह्मण जाति से बिहार के मुख्यमंत्री रहे। मतलब साफ़ है कि लालू के दौर से पहले बिहार में राजपूत और ब्राह्मणों का ही शासन रहा। वक्त बदला, सामाजिक न्याय के सियासी जुमले गढ़े गए। नतीजा दलित, पिछड़ों और मुस्लिमों का समीकरण अगड़ों पर भारी पड़ता गया।
ठाकुर का कुआं कविता ने भानुमति का पिटारा खोल दिया है। लालू, तेजस्वी, नीतीश जैसे नेता जानते हैं कि ठाकुर वोटबैंक किंग और किंगमेकर दोनों बना सकता है। बिहार में क़रीब 35 विधानसभा क्षेत्र ऐसे हैं जहां राजपूत वोटर्स अपने दम पर खेल पलट सकते हैं। ख़ास बात ये कि राजपूत वोट बैंक पर बिहार में कभी भी किसी एक दल का राज नहीं रहा। इसे हमेशा बंटा हुआ वोटबैंक माना गया।
पिछले कई चुनाव में इस वोट बैंक ने भारतीय जनता पार्टी की ओर रुझान दिखाया, जबकि शिवहर जैसे राजपूत बहुल क्षेत्र में आनंद मोहन के बेटे चेतन आनंद को आरजेडी के टिकट से जिताकर विधानसभा पहुंचाया। देखिए न, अगड़ों को साधने के लिए बिहार में महागठबंधन को एक ऐसे चेहरे की ज़रूरत थी, जिसे पूरे राज्य के लोग स्वीकार करें। आनंद मोहन इस कैटेगरी में पूरी तरह फिट बैठते नज़र आए और उनकी 15 साल बाद रिहाई करा दी गई।
रघुवंश प्रसाद सिंह और नरेंद्र सिंह के निधन के बाद आरजेडी में फ़िलहाल कोई बड़े राजपूत नेता नहीं है। जगदानंद सिंह राजपूत बिरादरी से आते जरूर हैं, लेकिन वे कभी भी राजपूत लीडर के रूप में स्वीकार नहीं किए गए। ऐसे में महागठबंधन में राजपूत नेताओं की चल रही कमी को आनंद मोहन दूर करते नज़र आए। सवाल बड़ा ये कि क्या इस वक्त ‘ठाकुर का कुआं’ पर आनंद मोहन जैसे नेताओं को नाराज़ करने की हिम्मत लालू की पार्टी में है।
बिहार की सत्ता में सामाजिक संतुलन के बिना शासन नहीं होता, यहां जातिवाद की सबसे बड़ी प्रयोगशाला जो है। बिहार की राजनीति का सुपरहिट फ़ार्मूला है जाति। बिहार में जातिगत विषमता है, इसलिए सियासत पेचीदा है। बिहार की जनता के बारे में एक जुमला काफ़ी लोकप्रिय है कि बिहारी जनता चुनाव के लिए मतदान नहीं करती, बल्कि जाति के लिए मतदान करती है। इस राज्य में आज़ादी के बाद 20 साल तक सवर्णों का राज रहा।
वक़्त गुज़रा, वक़्त बदला और बिहार में दलितों और पिछड़ों में राजनीतिक जागरुकता आई। ये वही वक़्त था जब कर्पूरी ठाकुर दलित और पिछड़े समाज की आवाज़ बन रहे थे। वक़्त का पहिया घूमता चला गया और लोहिया के चेले लालू, नीतीश, पासवान का युग आ गया। वही लोहिया जिन्होंने 1967 के चुनाव में नारा दिया- “संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़े पावें सौ में साठ।” लोहिया के तीन चेलों ने सामाजिक न्याय के नैरेटिव के साथ बिहार में लंबे वक़्त तक शासन किया।
वो बात अलग है कि साल और दशक बीतने के साथ तीनों चेलों की राहें जुदा होती गईं। पर सच ये भी है कि नीतीश-लालू-पासवान ने बिहार में पिछड़ों को उनकी ताक़त का भरपूर एहसास कराया। नतीजा सवर्ण नेताओं में असुरक्षा का बोध, जो आज भी ‘ठाकुर का कुआं’ जैसे विवाद के साथ सामने आता ही रहता है।
जातियों के मकड़जाल में उलझे बिहार को समझना ज़रूरी है। ब्राह्मण और ठाकुर भारतीय जनता पार्टी का पक्का वाला वोटबैंक हैं। नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद बिहार का OBC भी साथ आया। यादव आरजेडी तो कुर्मी और कुशवाहा वोट नीतीश कुमार का मान जाता है। नीतीश और तेजस्वी ने मिलकर जातिगत जनगणना का दांव चला है। बिहार के OBC जेडीयू-आरजेडी के इस दांव से गदगद हैं। अब आरजेडी और जेडीयू का असली ‘खेला’ समझिए। अगड़ी जातियों के नेता आपस में लड़ेंगे और आलाकमान मैसेज देगा कि हम ए टू जेड की पार्टी होने के साथ साथ OBC के हिमायती भी हैं। कवि ‘दुष्यंत कुमार’ के शब्द याद कीजिए-
“मस्लहत-आमेज़ होते हैं सियासत के क़दम
तू न समझेगा सियासत, तू अभी नादान है”
(लेखक राशिद हाशमी इंडिया न्यूज़ चैनल में कार्यकारी संपादक हैं)
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