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कश्मीरी हिन्दुओं की दृढ़ता, प्रतिरोध और आत्मसंयम के पुनर्दर्शन कराने वाली फिल्म है “The Kashmir Files”

The Kashmir Files

युवराज पोखरना, नई दिल्ली :

The Kashmir Files : कश्मीर चिरकाल से भारत माता के मुकुट का मणि रहा है। चौथी-पांचवीं शताब्दी में कालिदास द्वारा रचित “मेघदूत” और “कुमारसंभव”, 11वीं शताब्दी के “सामान्य मातृका” और 12वीं शताब्दी के “राजतरंगिणी” जैसे प्राचीन ग्रंथ इसकी समृद्ध हिंदू धरोहर का विस्तृत बखान करते हैं। वामपंथी-छद्म-उदारवादी गैंग ने इस्लामवादी-अलगाववादी दुष्प्रचार को सही ठहराने के लिए साहित्य के इन स्त्रोतों के साथ-साथ करकोटा राजवंश के राजा ललित आदित्य जैसे कश्मीरी शासकों के ऐतिहासिक विवरणों को छिपाकर निरंतर सत्य को छुपाने का प्रयास किया है।

दी कश्मीर फाइल्स फिल्म ने पहले सप्ताह के भीतर ही बॉक्स ऑफिस कलेक्शन में 100 करोड़ रुपये आंकड़े को पार करके, बॉलीवुड की संस्थागत परतों, फ़ाइलों और रैंकों में निर्बाध असहिष्णुता, आधिपत्य और अलगाव को सिरे से खारिज कर दिया है। इसकी शुरुआत मात्र 500 स्क्रीन पर कम प्रचार के साथ हुई लेकिन केवल 50% राज्यों में बड़े पैमाने पर चलाए जाने के बावजूद अब यह 4000-स्क्रीनों पर मजबूती से चल रही है और एक जन आंदोलन का रूप धारण कर चुकी है।

इस फिल्म ने इस्लामवादियों सहित वामपंथी इकोसिस्टम को इतना परेशान कर दिया कि कश्मीरी हिंदुओं की दुर्दशा को फिल्म के माध्यम से दुनिया के सामने लाने वाले व्यक्ति यानी इसके निर्देशक विवेक अग्निहोत्री को सरकार द्वारा वाई श्रेणी की सुरक्षा दी गयी है क्योंकि उन्हें भी इस्लामिक नरसंहार के बचे लोगों की ही भांति खतरनाक धमकियां मिलने लगी हैं।

हालांकि, यह फिल्म सन 1990 के कश्मीरी हिंदू नरसंहार के दौरान इस्लाम के अनुयायियों के हाथों कश्मीरी हिंदुओं के उत्पीड़न के रक्तरंजित पन्नों के प्रस्तुतिकरण एक विनम्र प्रयास मात्र है, ध्यातव्य कि कश्मीर में गैर-मुस्लिमों के प्रति इस्लामिक कट्टरपंथी आक्रामकता का यह पहला या अंतिम प्रयास नहीं था। इस ताजे घटित हुए कश्मीरी हिंदू नरसंहार के दौरान भारतीय लोकतंत्र के सभी चार स्तंभों की गगनभेदी चुप्पी भारत के नेहरूवादी-सेक्युलरिस्टों की घृणित  उदासीनता का प्रमाण है, जो युगों से हिंदुओं की दुर्दशा पर पर्दा डालती है। (The Kashmir Files)

जबकि “दी कश्मीर फाइल्स” फिल्म में दर्शकों के लिए इस फिल्म को ‘सहन करने योग्य’ बनाये रखने के लिए 5% से अधिक अत्याचारों को प्रदर्शित नहीं किया है। कश्मीरी हिंदुओं की बहादुरी की कल्पना करते समय मेरा शरीर सुन्न हो जाता है, जो तथाकथित सेक्युलर राज्य व्यवस्था या सरकारों की किसी भी प्रकार की सहायता के बिना इन सात नरसंहारों के दौरान दृढ़ता से खड़े थे।

नेहरूवादी-सेक्युलरों और टुकड़े-टुकड़े गैंग द्वारा हर समय यह लोकप्रिय मिथक फैलाया जाता रहा है कि कश्मीर के हिंदू दब्बू, हीन और दुर्बल थे, जो न केवल समझ से परे हैं, बल्कि ऐतिहासिक झूठ का पुलिंदा मात्र है। कश्मीर को अल-जिहाद का उद्गम स्थल और भारत की रक्तरंजित इस्लामी विजय का प्रवेश द्वार माना जाता था, जिसे ‘गजवा-ए-हिंद’ के रूप में भी जाना जाता है।

और यह केवल वहां के हिन्दू वीर रक्षकों के कारण नहीं हो सका, जिन्होंने न केवल इस्लामिक  कट्टरपंथियों का प्रतिकार किया, बल्कि अपनी उन्नत, सहिष्णु और विवेकी परम्परा का पालन करते हुए प्रतिक्रिया में हथियार उठाने से भी परहेज किया। यह एक और देश के इतिहास का पुनरावलोकन करने के लिए प्रेरित करता है जिसने आक्रमण के घृणित इस्लामिक मॉडल का दुर्भाग्यपूर्ण सामना किया था। आइए जानें कि लेबनान में एक बार क्या हुआ था।

लेबनान एक छोटा सा खाड़ी देश है जिसमें लगभग 7 मिलियन लोग रहते हैं। पश्चिम एशिया के इस छोटे से देश के बारे में रोचक बात इसकी भौगोलिक स्थिति है, क्योंकि यह एक तरफ भूमध्य सागर, दूसरी तरफ सीरिया और दक्षिण में इजरायल से घिरा हुआ है। आज के इस दौर में इस आलेख में लेबनान पर विशेष रूप से चर्चा की जा रही है, क्योंकि इस देश का इतिहास भारत में होने वाली कई घटनाओं से एक उल्लेखनीय समानता रखता है।

ऐसे बहुत से कारक हैं जो एक चिंताजनक चेतावनी की ओर इशारा करते हैं जिसके अनुसार इतिहास में जो लेबनान के साथ हुआ था वह भविष्य में भारत के साथ भी हो सकता है। यह उन भारतीयों के लिए एक गंभीर चेतावनी (‘वेक-अप कॉल’) है जो यह सोचते हैं कि उनके बच्चों का भविष्य सुरक्षित है।

बहुसंख्यक ईसाई जनसंख्या

सन 1956 तक लेबनान की जनसंख्या का लगभग 54 प्रतिशत भाग मारोनाइट ईसाइयों का था। लेबनान और इज़राइल पश्चिम एशिया के एकमात्र लोकतंत्र देश थे, साथ ही साथ इस क्षेत्र के केवल दो गैर-मुस्लिम देश भी थे। लेबनान की राजधानी बेरूत जिसे पश्चिम एशिया के पेरिस के रूप में जाना जाता था, कई वर्षों तक व्यापार का केंद्र हुआ करता था, और इसकी भौगोलिक स्थिति के कारण पश्चिम एशिया के अधिकांश शरणार्थी लेबनान में शरण लेते थे। यही कारण है कि लेबनान ओटोमन साम्राज्य के दौरान भी एक मुस्लिम देश नहीं बन बना था। सभी प्रकार के ईसाई पंथ के शरणार्थी ओटोमन साम्राज्य की प्रताड़ना से बचने के लिए लेबनान भाग गए थे।

लेबनान की पराजय

सन 1970 के आसपास फिलिस्तीन के पलायन के दौरान जॉर्डन और ईरान जैसे मुस्लिम देशों ने शरणार्थियों को लेने से इनकार कर दिया। कोई अन्य विकल्प न होने के कारण वे लेबनान गए और शरण मांगी। इस कारण आने वाले वर्षों में इस्लामिक जनसंख्या में अचानक वृद्धि हुई और वहां बसने के तुरंत बाद, फिलिस्तीनियों ने फिलिस्तीन लिबरेशन ऑर्गनाइजेशन नामक एक आतंकवादी संगठन के समर्थन से लोकतांत्रिक पदों पर कब्जा करना शुरू कर दिया।

एक कट्टरपंथी समूह के रूप में लेबनान में फिलिस्तीनियों ने ‘सेक्युलर और वामपंथी’ होने की आड़ में अपनी सारी राजनीति करना शुरू कर दिया, भले ही उनकी विचारधारा इन शब्दों के अर्थ से बहुत दूर थी। उन्होंने वहां के मूल निवासियों को “आक्रामक और दक्षिणपंथी” का ठप्पा लगाना शुरू कर दिया। (The Kashmir Files)

सन 1975 तक लेबनान में मुस्लिम जनसंख्या में भारी वृद्धि हुई और देश में गृह युद्ध छिड़ गया। जब लेबनानी गृहयुद्ध शुरू हुआ उस समय वहां मुस्लिम जनसंख्या 44 प्रतिशत थी। युद्ध के अंत तक मुस्लिम जनसंख्या 54 प्रतिशत थी और ईसाई जनसंख्या घटकर 44 प्रतिशत रह गयी थी। मुस्लिम जनसंख्या में इस नाटकीय वृद्धि के पीछे का कारण पड़ोसी देशों से हुई अवैध घुसपैठ और मुस्लिमों की बढ़ी हुई जन्म दर थे और तीसरा कारण था मूल निवासियों का नरसंहार।

ईसाइयों को निशाना बनाना

मुस्लिम भीड़ और उनकी सहायक सेना द्वारा ईसाईयों को चिन्हित करके हमला किया गया। स्टैटिस्टिक्स लेबनान नामक एक स्वतंत्र फर्म की एक रिपोर्ट के अनुसार लेबनान में वर्तमान मुस्लिम जनसंख्या 57.7 प्रतिशत है और ईसाई जनसंख्या (जो गृह युद्ध के बाद से कम हो गई है) 36.2 प्रतिशत है। 20 जनवरी 1976 को डामोर नरसंहार हुआ था, जब बेरूत के दक्षिण में मुख्य राजमार्ग पर एक मारोनाइट ईसाई शहर पर पीएलओ और एस-सैका (As-Sa’iqa) के वामपंथी आतंकवादियों द्वारा हमला किया गया था।

सन 1990 में गृहयुद्ध का अंत अपने साथ लेबनान में लोकतंत्र का अंत लाया। इस पूरे घटनाक्रम की पृष्ठभूमि में हिजबुल्लाह, हमास और पीएलओ जैसे आतंकवादी समूहों को लेबनान को लोकतंत्र से आतंकवादी प्रशिक्षण शिविर में परिवर्तित करने में सिर्फ 15 साल लगे।

भारत के साथ समानता

लेबनान ने निम्नलिखित चार चीजें कीं जिनको भारतीय दोहरा रहे हैं:

  1. लेबनान ने मानवीय आधार पर फिलिस्तीनी शरणार्थियों को स्वीकार किया, जो दूर से बहुत भोलापन प्रतीत होता है। जबकि वास्तविकता यह है कि इन फिलिस्तीनियों के साथ जॉर्डन के लोगों को भी कानूनी प्रक्रिया के बिना प्रवेश करने की अनुमति दी गई थी। पलक झपकते ही देश की पूरी जनसांख्यिकी बदल गई। भारत में भी इसी तरह की घटनाएं हो रही हैं क्योंकि परदेशी लोग बाएं और दाएं से प्रवेश कर रहे हैं। पैटर्न में भी पुनरावृत्ति स्पष्ट दिखती है, चाहे वह असम में अचानक जनसंख्या वृद्धि हो और तथ्य के आधार पर 28 में से 8 भारतीय राज्य पहले से ही हिंदू अल्पसंख्यक राज्य हैं।
  2. जब भी लेबनान के एक शहर या क्षेत्र में हिंसा भड़की, तो दूसरे क्षेत्र ने हस्तक्षेप करने का प्रयास नहीं किया बल्कि इसे बहुत समान्य घटना मानने की भूल की। यहां तक कि जब ईसाइयों के विरूद्ध अत्याचार बढ़ गए, तब भी कोई सहायता नहीं मिल रही थी और हिंसा को जानबूझकर जारी रखने दिया गया। इस मामले में भारत की स्थिति भी लेबनान की तरह ही होती जा रही है, क्योंकि कश्मीरी हिंदुओं के नरसंहार को राष्ट्रव्यापी मुद्दा बनने में वर्षों लग गए और दिल्ली दंगों को केवल दिल्ली की समस्या के रूप में ही देखा जाता है। एक पैटर्न है जिसके लिए तत्काल ध्यान देंने, योजना बनाने और निष्पादन करने की आवश्यकता है।
  3. लेबनानी और भारत दोनों ही देश लंबे समय तक जनसांख्यिकी के महत्व को समझने में विफल रहे हैं। ‘हम दो हमारे दो’ अभियान ही भारत को नहीं बचा सकता है। जनसंख्या नियंत्रण विधेयक को अब और अधिक नहीं टाला जाना चाहिए, बल्कि इसे तत्काल सख्ती से लागू किया जाना चाहिए।
  4. एक तरफ, सीरिया ने हिजबुल्ला जैसे आतंकवादी समूहों को वित्तीय सहायता प्रदान करके, उन्हें हथियारों से लैस करके और जानकारी साझा करके समर्थन दिया, और वहीं दूसरी ओर जॉर्डन से अवैध घुसपैठियों ने लेबनान में प्रवेश किया जिससे लेबनान की जनसांख्यिकी बिगड़ गयी। चीन, पाकिस्तान और बांग्लादेश भारत के साथ बिल्कुल ऐसी ही भूमिका निभा रहे हैं।

यदि हम कश्मीर की राजनीति या भारत में किसी भी वामपंथी-सेक्युलरिस्ट-उदारवादी राजनीतिक शक्ति के इतिहास पर दृष्टि डालें, तो हमें एक ही मॉडल दिखेगा और वह मॉडल बिना सोचे-समझे मूल निवासियों अर्थात हिंदुओं के इस्लामीकरण का मार्ग प्रशस्त करता है। हिंदू धर्म एकमात्र धर्म और संस्कृति है जो इस्लामिक और ईसाई आक्रंताओ के विरुद्ध दृढ़ता से खड़ा है जबकि उन्होंने पूरे धरती पर प्रत्येक संस्कृति का विध्वंस कर दिया है और उनकी पहचान समाप्त कर दी है।

“दी कश्मीर फाइल्स” फिल्म कश्मीरी पंडितों के संयम, दृढ़ता, वैधता और भारत की तत्कालीन सरकार और इस्लामिक अत्याचार सहित सभी औपचारिक और अनौपचारिक मानवीय संस्थानों से बेतुकी अज्ञानता के सामने साहस की एक बेमिसाल स्मारिका है। यह कश्मीरी हिंदुओं के प्रतिरोध और न्याय के अधिकार को उजागर करती है। मैं अद्वितीय इच्छाशक्ति का प्रदर्शन करने के लिए सभी कश्मीरी हिंदुओं को नमन करता हूं और यह वचन देता हूं कि मैं एक ऐसे भविष्य के लिए योगदान दूंगा जहां विवेक को “दी इंडिया फाइल्स” फिल्म बनाने की आवश्यकता नहीं होगी।

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Sameer Saini

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