India News (इंडिया न्यूज़), Lok sabha Election 2024, अजीत मेंदोला: कांग्रेस पार्टी का कहना है कि केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार के तानाशाही रवैये और एक पक्षीय मिडिया के चलते देश का लोकतंत्र तो खतरे में है ही, पार्टी पर बड़ा आर्थिक संकट भी आ गया है। जिसके चलते निष्पक्ष चुनाव नहीं हो सकते। 139 साल पुरानी और 70 साल तक देश पर राज करने वाली कांग्रेस यह सवाल उठाने से पहले एक बार अपने अंदर झांक लेती तो उसे पता चलता कि इस स्थिति के लिए दूसरे नहीं, वह खुद जिम्मेदार है। कांग्रेस के कमज़ोर होने की सबसे बड़ी वजह रही कि पार्टी में जो ताकतवर थे वही और ताकतवर होते चले गए बाकी उपेक्षा से दुखी हो दांय बांए होने लगे।
इसके साथ राहुल गांधी ने मौका मिलने पर देश को समझने के बजाए बिना जनाधार वाले, कम अनुभव वाले नेताओं की सलाह पर चलने लगे। पार्टी को इस स्थिति में ला दिया कि उनकी माँ सोनिया गांधी को अपने तीन दशक के राजनीतिक जीवन में पहली बार मिडिया के सामने आकर कहना पड़ा, मोदी सरकार सब गलत कर रही है। जानकार मानते हैं कि सोनिया गांधी को नहीं आना चाहिए था।
ग़ौर करने वाली बात यह है कि मंच पर सोनिया गांधी और उनके बेटे राहुल गांधी के साथ पार्टी के वो नेता भी थे, जिन्होंने बीते दस साल में राहुल की हां में हां मिलाकर और गलत सलाह देकर पार्टी को इस कमजोर स्थिति में ला दिया। पीसी से मेसेज गया कि कांग्रेस ने चुनाव से पहले ही हथियार डाल दिए। मतलब 4 जून के परिणामों से पहले ही भूमिका बना दी गई कि मोदी और मिडिया की वजह से हार गए। खाते सीज़ आज के दिन तो नहीं हैं, फिर भी पार्टी भ्रम फैला रही है। अदालत तक से राहत नहीं मिल रही है। अब सवाल यह है कि यह स्थिति क्यों पैदा हुई। यह स्थिति इसलिए पैदा हुई क्योंकि कांग्रेस के कर्ताधर्ताओं को लगता था हम देश के सबसे बड़े राजनीतिक दल हैं इसलिए मोदी क्या कोई भी सरकार हमारे लेन देन में क्यों नज़र रखेगी। 2 लोकसभा और 90 प्रतिशत राज्यों के चुनाव हारने के बाद भी कांग्रेस के कर्ताधर्ताओं की नींद नहीं खुली। अपने को पहले ठीक करने और मज़बूत करने के बजाए मोदी और मिडिया पर निशाना साधने लगे।
राहुल गांधी को समझा दिया या उन्होंने सच्चाई को लेकर आंखें बंद कर लीं? राहुल अपने गिनती के चंद नेताओं पर भरोसा कर राजनीति करने लगे हैं। बीते दस साल में जितनी हार हुई, राहुल गांधी ने आज तक एक भी नेता पर ज़िम्मेदारी तय नही की। हार के हर बार नए बहाने ढूंढकर संगठन पर ध्यान ही नहीं दिया। तीन साल तक संघर्ष के बाद कहने के लिए मल्लिकार्जुन खड़गे राष्ट्रीय अध्यक्ष तो हैं लेकिन उनकी हैसियत संगठन महासचिव के सी वेणुगोपाल के बराबर भी नहीं। पार्टी की इस स्थिति के लिए न तो मिडिया जिम्मेदार है और ना ही प्रधानमंत्री मोदी। पार्टी ने जब अपनी नई कार्यसमिति घोषित करी तो कोषाध्यक्ष पवन बंसल का ही नाम गायब था। बंसल की पुराने अनुभवी पार्टी नेताओं में गिनती होती है।
व्यवहार के हिसाब से माकन की जगह वह कोषाध्यक्ष के लिए फिट थे। बंसल को जब पता चला कि असली 35 सदस्यों वाली कार्यसमिति में उनका नाम नहीं है तो उन्होंने आफिस आना बंद कर दिया। मतलब उनका कोई कसूर नहीं होने के बाद केवल बिना जनाधार के एक नेता को एडजस्ट करने के लिए उनकी छुट्टी कर दी। पहली बार कार्यसमिति में कुछ ऐसे नाम आ गए जो सुबह शाम केवल नेताओं के चक्कर काटते थे। पार्टी ने फिर भी बंसल को समिति में नहीं रखा और माकन को जिम्मेदारी दे दी। अब बात होती है सोनिया गांधी वाली पीसी की। उस पीसी में के सी वेणुगोपाल, जयराम रमेश और अजय माकन जैसे नेता भी मौजूद थे। ये वे नेता हैं जो बीते दस साल से राहुल गांधी के आंख-कान बने हुए हैं। इनके साथ सैम पित्रोदा जो सामने कम ही आते हैं लेकिन एक महत्वपूर्ण सलाहकार हैं।
2014 की सबसे बड़ी हार होने के बाद राहुल गांधी को लगा कि अनुभवी और बुजुर्ग नेताओं के चलते पार्टी हारी। सो उन्होंने पार्टी की कमान संभालने के बाद, हार पर कोई मंथन नहीं किया। 2014 के चुनाव के समय मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे। पार्टी सत्ता में रहने के बाद भी यह नहीं भांप पाई कि हमने तब के गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को देश में हिन्दू चेहरे के रूप में स्थापित कर लहर चला दी है। गुजरात दंगों के मुस्लिम तुष्टिकरण के चक्कर में कांग्रेस ऐसे फंसी कि बीजेपी को ध्रुवीकरण का पूरा मौका दे दिया। मोदी हिंदू चेहरे के रूप में स्थापित हो गए। प्रधानमंत्री के रूप में अपनी अंतिम पी सी में मनमोहन सिंह ने एक सवाल के जवाब में कहा था कि मोदी अगर पीएम बने तो देश में त्रासदी आ जाएगी। देश में तो अभी ऐसे हालात नहीं दिख रहे हैं, लेकिन कांग्रेस जरूर अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष कर रही है।
मोदी दस साल राज करने के बाद तीसरी बार भी प्रधानमंत्री बनते दिख रहे हैं। अब सवाल यही है कि 2014 के हालात न तो मिडिया ने बनाए, ईवीएम यूपीए सरकार के अधीन थी, मोदी भी पीएम नहीं थे। गोदी मिडिया भी नहीं था, उस समय कांग्रेस के पक्षधर बुद्धिमान पत्रकार ही चैनल में ज्यादा दिखते थे। कांग्रेस के पक्षधर उन्हीं विद्वान पत्रकारों ने दिल्ली में अरविंद केजरीवाल को हवा दी। खैर बात यह हो रही थी कि राहुल ने कमान संभालने के बाद अपने युवा साथियों पर भरोसा कर पार्टी को आगे बढ़ाया। इसमें उनकी बहन प्रियंका गांधी ने भी योगदान दिया। ऐसी राजनीति की कि उन्होंने देश-विदेश से जुड़े मुद्दों पर अनुभव वाले नेताओं से चर्चा ही बंद कर दी। कम अनुभव वाले नेताओं पर भरोसा कर एक लक्ष्य साध लिया कि प्रधानमंत्री मोदी को टारगेट करो। ऐसा टारगेट किया कि संवाद की गुंजाइश ही बंद कर दी। अनुभवी नेता बोलते रह गए, मोदी पर हमले के बजाए मुद्दों पर बोला जाए। राहुल सुनने को तैयार ही नहीं हुए। चौकीदार चोर की जिद्द पकड़ बैठे और 2019 में भी करारी हार हो गई। कार्यकर्ताओं के गुस्से से बचने के लिए चापलूस सलाहकारों ने राहुल से अध्यक्ष पद से इस्तीफा दिलवा पार्टी को और संकट में डाल दिया। तीन साल तक फिर उनकी मां सोनिया गांधी को कमान संभालनी पड़ी।
उस समय राहुल गांधी की चलती तो के सी वेणुगोपाल 2019 में पार्टी के अध्यक्ष बन चुके होते। 2022 में खड़गे अध्यक्ष तो बन गए, लेकिन असल चेहरा राहुल ही रहे। राहुल ने अपनी पार्टी के जानकार नेताओं पर भरोसा करने के बजाए गैरों पर ज्यादा भरोसा किया और पार्टी कमजोर होती चली गई। जातीय जनगणना, अडानी अंबानी और प्रधानमंत्री मोदी पर हमला प्रमुख हथियार बना लिया। पार्टी संगठन को ख़त्म कर दिया। प्रदेशों में झगड़े के चलते राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे राज्य भी हार गए। राजस्थान को तो झगड़े और दिल्ली के बड़े नेताओं ने ही हराया। समय पर करवाई की होती तो राजस्थान बच जाता। झगड़े के चलते अशोक गहलोत को राष्ट्रीय अध्यक्ष नहीं बनने दिया गया। ये वे मामले हैं जिनके लिए न तो मिडिया जिम्मेदार है और ना ही प्रधानमंत्री मोदी। गुलाम नबी आजाद, ज्योतिरादित्य सिंधिया, हेमंत विश्वा शर्मा, जगन मोहन रेड्डी, जतिन प्रसाद जैसे नेता ईडी के डर से कांग्रेस छोड़ कर नहीं गए। केवल राहुल गांधी और उनके करीबियों के व्यवहार के चलते इन्होंने पार्टी छोड़ी। खाता सीज के मामले में जब करवाई हुई तब कांग्रेस नींद से जागी।
अगर राहुल गांधी 2014 की हार के बाद पार्टी और संगठन को मजबूत कर राज्यों पर गौर करते तो ईडी और इनकम टैक्स को जिम्मेदार ठहराने की जरूरत ही नहीं पड़ती। मिडिया के लिखे हुए और दिखाने पर ही ध्यान देते तो शायद आज कुछ राज्यों में सरकार होती,बड़े नेता पार्टी नहीं छोड़ते। लेकिन कांग्रेस यह मानने को तैयार ही नहीं है कि उसके गलत फैसले, संगठन को महत्व नहीं देना, पूरे गांधी परिवार का राजनीति में सक्रिय होना, नकारा सलाहकारों का होना, ये सभी पार्टी के कमजोर होने की असली वजह हैं। मिडिया और मोदी नहीं।
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