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International Dance Day: जानें भारतीय classical dance का इतिहास

International Dance Day: भारत अपने संस्कृति के लिए दुनिया भर में जाना जाता है। भारत में कई तरह की भाषायें बोली जाती हैं। कई तरह के पकवान बनाए जाते हैं। विविधताओं से भरे इस देश में हमें कई तरह के डांस भी देखने को मिलता है। भारत में हम हर त्योहार को बड़े उत्सव और धुम-धाम से मनाते हैं। किसी भी त्योहार या खुसी के अवसर को मनाने के लिए हम नाच गान कर के अपने खुशी को जाहीर करते हैं। गानों की तरह ही डांस भी इस देश में जगह के साथ बदलता रहता है। पूर्व से लेकर पश्चिम तक उतर से लेकर दक्षिण तक हर जगह हमें अलग-अलग तरह के डांस देखने को मिलता है। आज इंटनेशनल डांस दिवस के अवसर पर हम भारतीय शास्त्रीय नृत्य के बारे में विस्तार से जानेंगे।

भारत में नृत्य के रूप (Dance forms in india)

भारत में 2 प्रमुख रूप से दो प्रकार के नृत्य होते है पहले को हम शास्त्रीय नृत्य (classical dance) के नाम से जानते है और दूसरे को लोक नृत्य (folk dance) के नाम से जानते हैं। शास्त्रीय और लोक नृत्य के बीच प्रमुख अंतर उलका उद्गम (ओरिजिन) है। बता दे शास्त्रीय नृत्य का नाट्य शास्त्र के साथ गहरा संबंध है जहां शास्त्रीय नृत्य के प्रत्येक रूप की विशिष्ट विशेषताओं को बताया गया है। शास्त्रीय नृत्य सभी तकनीकीताओं और सख्त नियमों के बारे में हैं। दूसरी तरफ, आम लोगों में प्रचलित नृत्यों को लोक नृत्य कहा जाता है। सामान्यतः इसका जन्म क्षेत्र-विशेष में होता है, और यह उस क्षेत्र की भाषा, संस्कृति और संस्कार को समावेशित कर लेती हैं। लोक नृत्य शास्त्रीय बंधनों से स्वतंत्र होते है। और इसका आयोजन उद्धत भावनाओं से प्रेरित होकर किया जाता है। भारत के प्रत्येक राज्य में कोई-न-कोई लोक नृत्य प्राचीन काल से प्रचलित रहा है।

शास्त्रीय नृत्यों की उत्पत्ति (Origin of classical dances)

अधिकांश शास्त्रीय नृत्यों की उत्पत्ति मंदिरों से हुई है। जिसका प्रमुख उद्देश्यपूजा करना था। हालाकि, सारे डांस फ्रार्म अलग-अलग क्षेत्रों से विकसित हुआ है। लेकिन उनकी जड़ें समान हैं। जड़ों का पता ‘नाट्य शास्त्र’ से लगाया जा सकता है। नाट्य शास्त्र का पहला संकलन 200BCE और 200CE के बीच का है। जैसे-जैसे समय बीतता गया। कलाकारों ने कई शास्त्रीय नृत्यों में सुधार किया। आज भारतीय शास्त्रीय नृत्य( classical dances) पूरी दुनिया में बहुत पॉपुलर डांस है ।

रसानुभूति इन डांस फॉर्म का लक्ष्य है। नाट्य शास्त्र आठ रसों की बात करता है। वे इस प्रकार हैं:

श्रृंगार- प्रेम
हास्य- विनोदी
करुणा-दु: ख
रौद्र- क्रोध
वीर-वीरता
भयानक-भय
बिभात-घृणा
अदभूत-आश्चर्य

भारत के 8 प्रमुख शाश्त्रीय नृत्य हैं। भारत के सांस्कृतिक मंत्रालय ने छऊ को शास्त्रीय नृत्यों की सूची में शामिल किया है जो कुल 9 शास्त्रीय नृत्य रूपों को बनाता है।

भरतनाट्यम (Bharatnatyam)-
कत्थक (Kathak)
कत्थकली (Kathakali)
कुचिपुड़ी (Kuchipudi)
ओडिसी (Odisi)
मणिपुरी (Manipuri)
सत्त्रिया (Shatriya)
मोहिनीअट्टम (Mohiniattam)

  1. भरतनाट्यम (Bharatnatyam)

भाव, राग, रस और ताल को समाहित करने वाला नृत्य भरतनाट्यम है। इसे ‘सादिर’ भी कहा जाता है, यह परंपरागत रूप से दक्षिण भारत के हिंदू मंदिरों में देवदासियों (मंदिर में भगवान को अर्पित की जाने वाली लड़कियां) द्वारा किया जाता था। इसी वजह से इसे ‘दस्यत्तम’ के नाम से भी जाना जाता है। यह नृत्य तंजौर और दक्षिण भारत के अन्य क्षेत्रों में खास तौर से तमिलनाडु में विकसित हुआ है। इसे भारत का सबसे पुराना शास्त्रीय नृत्य रूप (लगभग 2000 वर्ष पुराना) भी कहा जाता है । यह पूरी तरह से नाट्य शास्त्र के सम्मेलन का पालन करता है।

भरतनाट्यम शब्द का अर्थ (The word meaning of Bharatnatyam)
भा: भव जिसका अर्थ है भावनाएँ
रा: राग का अर्थ है संगीतमय स्वर
ता: ताल का अर्थ है लय
नाट्यम: नाटक के लिए संस्कृत शब्द

भरतनाट्यम का प्रमाण( The evidence of Bharatanatyam)
सिलप्पाटिकरम (इस प्राचीन तमिल महाकाव्य में इसके अस्तित्व का उल्लेख किया गया था)।
बृहदेश्वर मंदिर 1000 सीई से भरतनाट्यम का एक प्रमुख केंद्र था।
चिदंबरम के गोपुरम में भरतनाट्यम, चारी और करण की मुद्राएं हैं, जो पत्थरों में उकेरी गई हैं।

2.कत्थक (Kathak)

मुख्य रूप से कत्थक नृत्य उत्तर भारत में प्रचलित है। कत्थक उत्तर प्रदेश राज्य का classical dance है। इसे ‘नटवारी नृत्य’ के नाम से भी जाना जाता है। । कथक के विषय रामायण, महाभारत और कृष्ण की कहानियों के इर्द-गिर्द घूमते हैं। कथक भारत के सबसे आकर्षक नृत्य रूपों में से एक है। ब्रज की रासलीला कथक से काफी मिलती-जुलती है। भारत में कत्थक की उत्पति भक्ति आन्दोलन के समय में हुई थी। मान्यता है कि कत्थक नृत्य भगवन कृष्णा द्वारा किया गया था। कत्थक शब्द की उत्पति संस्कृत में कथा शब्द से हुई है। इस नृत्य में मुख्य रूप से एक कथा को नृत्य के रूप में दर्शाया जाता है। उत्तर प्रदेश के अलावा यह नृत्य राजस्थान तथा मध्यप्रदेश में भी किया जाता है।

कथक के चार मुख्य घराने, या नृत्य के स्कूल
कथक के चार मुख्य जयपुर, लखनऊ, रायगढ़ और बनारस घराने हैं।इन स्कूलों का नाम उस भौगोलिक क्षेत्र के अनुसार रखा गया है जिसमें वे विकसित हुए थे। प्रत्येक की व्याख्या और प्रदर्शनों की सूची में थोड़ा अंतर है और उनकी प्रस्तुतियों से पहचाना जा सकता है।

  • लखनऊ घराना

कथक नृत्य का लखनऊ घराना मुख्य रूप से 19वीं शताब्दी की शुरुआत में अवध के शासक नवाब वाजिद अली शाह के दरबार में अस्तित्व में आया। इसी अवधि में कथक के लखनऊ घराने ने नवाब वाजिद अली शाह के दरबारी नर्तक और गुरु ठाकुर प्रसाद महाराज और बाद में उनके बेटों बिंदादीन महाराज और कालका प्रसाद महाराज के प्रयासों से परिपक्वता प्राप्त की। कालका प्रसाद के पुत्र अच्चन महाराज, लच्छू महाराज और शंभु महाराज ने भी इस घराना शैली के विकास में योगदान दिया।

लखनऊ शैली या कथक नृत्य की विशेषता नृत्य के साथ सुंदर चाल, लालित्य और प्राकृतिक संतुलन है। अभिनय (अभिव्यक्ति की कला), गति के आकार की चिंता और रचनात्मक सुधार इस शैली की पहचान हैं। वर्तमान में बिरजू महाराज इस घराने के प्रमुख प्रतिनिधि माने जाते हैं।

  • जयपुर घराना

जयपुर घराना राजस्थान में जयपुर के कच्छवाहा राजाओं के दरबार में विकसित हुआ। नृत्य के अधिक तकनीकी पहलुओं पर महत्व दिया जाता है, जैसे कि जटिल और शक्तिशाली फुटवर्क, कई घुमाव, और विभिन्न तालों में जटिल रचनाएं।

  • बनारस घराना

बनारस घराने का विकास जानकी प्रसाद ने किया था। यह नटवारी या नृत्य बोलों के अनन्य उपयोग की विशेषता है, जो तबला और पखावज बोलों से अलग हैं। थाट और तटकार में अंतर होता है, और चक्कर कम से कम रखे जाते हैं लेकिन अक्सर दाएं और बाएं दोनों तरफ से समान आत्मविश्वास के साथ लिए जाते हैं। फर्श का अधिक उपयोग भी होता है।

  • रायगढ़ घराना

इसकी स्थापना महाराजा चक्रधर सिंह ने 20वीं सदी की शुरुआत में वर्तमान छत्तीसगढ़ के रायगढ़ रियासत में की थी। महाराजा ने कालका प्रसाद और उनके पुत्रों और जयपुर घराने के पंडित जैलाल सहित कथक के कई दिग्गजों (साथ ही प्रसिद्ध तालवादक) को अपने दरबार में आमंत्रित किया। विभिन्न शैलियों और कलाकारों के संगम ने विभिन्न पृष्ठभूमि से खींची गई नई कथक और तबला रचनाओं के विकास के लिए एक अनूठा वातावरण तैयार किया।

ओडिसी – classical dance of Orissa

ओड़िसी भारतीय राज्य ओडिशा की एक शास्त्रीय नृत्य शैली है। ओडिसी नृत्य को पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर सबसे पुराने जीवित नृत्य रूपों में से एक माना जाता है। ओडिशा में श्री जगन्नाथ मंदिर के शांत वातावरण में लंबे समय से स्थापित नृत्य रूप ‘ओडिसी’ के रूप में प्रसिद्ध है। इसका उल्लेख सबसे पुराने संस्कृत पाठ – नाट्य शास्त्र में औद्रमग्धी के रूप में मिलता है। प्राचीन दिनों में भक्ति रस से भरा यह नृत्य रूप जगन्नाथ मंदिरों में भगवान की पूजा का एक हिस्सा था। इस प्रकार हमें मंदिर के अंदर नृत्य की स्थिति में कई मूर्तियां मिलती हैं। इसमें लास्य और तांडव का मेल है। अद्यतन काल में गुरु केलुचरण महापात्र ने इसका पुनर्विस्तार किया। ओड़िसी पारंपरिक रूप से प्रदर्शन कला की एक नृत्य-नाटिका शैली है। इसमें निचले (फुटवर्क), मध्य (धड़) और ऊपरी (हाथ और सिर) के रूप में ज्यामितीय समरूपता और लयबद्ध संगीत प्रतिध्वनि के साथ पूर्ण अभिव्यक्ति और दर्शकों के जुड़ाव के तीन स्रोत हैं।

पारंपरिक ओडिसी की दो शैलियाँ है-
1.महर्षि
2.गोटीपुआ

कुचिपुड़ी- classical dance of Andhra Pradesh

कुचिपुड़ी भारत के 8 classical dance में से एक है जो की मुख्या रूप से आँध्रप्रदेश राज्य में प्रचलित है। कुचिपुड़ी की शुरुवात तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व के आसपास आंध्र प्रदेश के कृष्णा जिले में ‘कुचिपुड़ी’ नामक स्थान से हुई थी। पारंपरिक कुचिपुड़ी का प्रदर्शन पुरुष मंडली द्वारा किया गया था। पुरुष अग्निवश्त्र पहनते हैं तथा महिलाएं साड़ी पहन कर इस नृत्य को करती हैं। तीर्थ नारायण यति और उनके शिष्य सिद्धेंद्र योगी ने कुचिपुड़ी के आधुनिक संस्करण को संगठित और स्थापित किया। जिसे आज हम देखते हैं। कुचिपुड़ी धीरे-धीरे एक एकल नृत्य के रूप में विकसित हुआ और आज हम पुरुष और महिला दोनों को इसे करते हुए देख सकते हैं। कुचिपुड़ी वैष्णववाद, भगवान कृष्ण, रुक्मिणी, सत्यभामा और अन्य मिथकों से संबंधित विषय हैं। कुचिपुड़ी में भरतनाट्यम और ओडिसी की भी कुछ विशेषताएं हैं। कुचिपुड़ी नृत्य एक लंबे समय से स्थापित नृत्य-नाटक शैली है।

कत्थकली- classical dance of Kerela

कत्थकली की शुरुवात 17 वीं सदी में केरल राज्य में हुई थी। यह नृत्य विशेष रूप से रामायण तथा महाभारत आधारित होता है। केरल का चकाचौंध करने वाला शास्त्रीय नृत्य कथकली है। ‘कथा’ = कहानी , ‘काली’ = प्रदर्शन और कला। इसकी जड़ें प्राचीन ‘कुटियाट्टम’ (शास्त्रीय संस्कृत नृत्य नाटक) और ‘कृष्णाट्टम’ (हिंदू भगवान कृष्ण की कहानियों को दर्शाने वाला नृत्य-नाटक) में हैं। कथकली में चलन प्राचीन मार्शल आर्ट और एथलेटिक परंपरा से प्रभावित हैं। यह मूल रूप से एक डांस-ड्रामा है। कथकली परंपरागत रूप से एक पुरुष प्रधान नृत्य था और अब इस नृत्य रूप में महिलाओं का भी स्वागत किया जाता है। कथकली अपनी विशाल विस्तृत वेशभूषा, अद्भुत श्रृंगार शैली, चेहरे के मुखौटे और आभूषणों के लिए भी प्रसिद्ध है।

अन्य शास्त्रीय नृत्यों के विपरीत, कथकली हिंदू रियासतों के दरबारों और थिएटरों में विकसित हुआ। पारंपरिक प्रदर्शन साम से सुबह तक लंबे होते थे। इस समय कार्यक्रम की समय सीमा होने के कारण इसकी प्रस्तुतियाँ कम समय के लिए होती हैं। केरल कलामंडलम कथकली कलाकारों का प्रमुख केंद्र है। कथकली में अन्य नृत्य रूपों के साथ समानताएं हैं जैसे जापानी ‘नोह’ और ‘काबुकी’ नृत्य रूपों में कथकली के साथ समानताएं हैं। कत्थकली नृत्य को एक विशेष तरह की पोषक तथा चेहरे में मेकअप लगा कर किया जाता है। इस नृत्य को करते समय नृतक कभी बोलते नहीं हैं। वह सिर्फ चेहरे की अभिव्यक्ति तथा हाथों के हव भाव से नृत्य को प्रदर्शित करते हैं।

मोहिनीअट्टम – classical dance of Kerela

केरल का एक और सुंदर शास्त्रीय नृत्य, मोहिनीअट्टम, लस्या प्रेरित नृत्य है जिसमें कोमल, शांत और कोमल गति होती है। स्त्रीलिंग के रूप में वर्णित, आमतौर पर महिलाओं द्वारा किया जाता है। मोहिनीअट्टम की जड़ों, सभी शास्त्रीय भारतीय नृत्यों की तरह, नाट्य शास्त्र में हैं – यह एक प्राचीन हिंदू संस्कृत ग्रन्थ है जो शास्त्रीय कलाओ पर लिखी गयी हैं। यह परंपरागत रूप से व्यापक प्रशिक्षण के बाद महिलाओं द्वारा किया एक एकल नृत्य है। मोहिनीअट्टम नृत्य शब्द मोहिनी के नाम से बना है, मोहिनी रूप हिन्दुओ के देव भगवान विष्णु ने धारण इसलिए किया था ताकि बुरी ताकतों के ऊपर अच्छी ताकत की जीत हो सके।

मणिपुरी – classical dance of Manipur

मणिपुरी नृत्य रूप का नाम उसके मूल क्षेत्र ‘मणिपुर’ के नाम पर रखा गया है, जिसे ‘जोगाई’ के नाम से भी जाना जाता है। यह पारंपरिक रूप से भक्ति गीतों पर नृत्य – नाटक के रूप में किया जाता था। रासलीला के माध्यम से मणिपुरी राधा-कृष्ण के बीच प्रेम को प्रदर्शित करता है। मणिपुरी दो संस्कृतियों का मेल है- भारतीय और दक्षिण-पूर्व एशियाई। मणिपुरी नृत्य रूप को तांडव या लास्य के रूप में वर्गीकृत किया गया है। यह नृत्‍य भारत के अन्‍य नृत्‍य रूपों से भिन्‍न है। इसमें शरीर धीमी गति से चलता है, सांकेतिक भव्‍यता और मनमोहक गति से भुजाएं अंगुलियों तक प्रवाहित होती है। यह नृत्‍य रूप 18वीं शताब्‍दी में वैष्णव सम्प्रदाय के साथ विकसित हुआ जो इसके शुरुआती रीति रिवाज और जादुई नृत्‍य रूपों में से बना है। विष्णु पुराण, भागवत पुराण तथा गीत गोविंदम की रचनाओं से आई विषय वस्‍तुएं इसमें प्रमुख रूप से उपयोग की जाती हैं।

सत्त्रिया – classical dance of Assam

सत्त्रिया असम का पारंपरिक नृत्य-नाटक है। सत्त्रिया को 2000 में संगीत नाटक अकादमी द्वारा शास्त्रीय नृत्य के रूप में मान्यता दी गई थी। यह वैष्णववाद से प्रभावित है और सत्त्रिया के आधुनिक रूप का श्रेय 15वीं सदी के भक्ति आंदोलन के विद्वान और संत श्रीमंत शंकरदेव को दिया जाता है। 15वीं शताब्दी के बाद से सत्त्रिया हिंदू मठों में वैष्णव भक्ति आंदोलन के एक हिस्से के रूप में विकसित हुआ जिसे ‘सत्र’ कहा जाता है। सत्त्रिया नृत्य का मूल आमतौर पर पौराणिक कहानियों होती हैं। यह एक सुलभ, तत्काल और मनोरंजक तरीके से लोगों को पौराणिक शिक्षाओं को पेश करने का एक कलात्मक तरीका था। परंपरागत रूप से, यह नृत्य केवल मठों में ‘भोकोट’ (पुरुष भिक्षुओं) द्वारा, अपने दैनिक अनुष्ठान के एक भाग के रूप में या विशेष त्योहारों को चिह्नित करने के लिए, प्रदर्शन किया जाता था। आज सत्त्रिया नृत्य केवल पौराणिक विषयों तक सीमित नहीं हैं और दोनो पुरुषों और महिलाओं द्वारा मंच पर प्रदर्श्न किया जाता है। सत्रा मठ मंदिरों के नृत्य समुदाय हॉल (नामघर) हैं। आज यह दुनिया भर में लोकप्रिय है।

छऊ नृत्य (Chhau dance)

छऊ लोक, आदिवासी और मार्शल आर्ट का मिश्रण है। ‘छाऊ’ – संस्कृत शब्द ‘छाया’ से लिया गया है, जिसका अर्थ है छाया, छवि या मुखौटा। इसके अलावा, छऊ को सीताकांत महापात्र द्वारा ओडिया भाषा में छौनी (सैन्य शिविर) से प्राप्त करने के लिए परिभाषित किया गया है। परंपरागत रूप से पुरुषों द्वारा प्रदर्शन किया जाता है – पुरुष मंडली। छऊ के तीन अलग-अलग प्रकार हैं जो तीन अलग-अलग क्षेत्रों से उत्पन्न हुए हैं। हर प्रकार की अपनी अनूठी विशेषता, पैटर्न और प्रदर्शन और अलंकरण की शैली भी होती है।

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Divyanshi Singh

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