मुजरा ये शब्द आज भी किसी की जबान से निकल जाए तो उसे अच्छा नहीं माना जाता इसका सीधा-सीधा संबंध तवायफों से जोड़ा जाता है।
लेकिन असल में तो इसका सच सिर्फ एक नृत्य कला का नाम ही है, जो भारत में मुगल शासन के दौरान उभरा था और उस दौरान से ही ऐसा कहाँ भी जाने लगा।
मुग़ल शासन के दौरान मुजरा पारंपरिक रूप से महफ़िलों में आयोजित की जाती थी और इसे पेश करने वाली तवायफ कहलाई गई।
मुगल काल में मुख्य रूप से ये शहर जैसे- दिल्ली, लखनऊ, जयपुर आदि जगहों पर मुजरा करने की परंपरा एक पारिवारिक कला हो गई और अक्सर मां से बेटी को दी जाने लगी।
लेकिन क्या आप इस बात से वाखिफ भी है कि एक तवायफ के लिए उसका आखिरी मुजरा क्या माइने रखता था।
असल माईनो में तवायफ बनने की तीसरी रस्म को ही उसका अंतिम मुजरा या दूसरे शब्दों में कहे तो 'नथ उतराई' रस्म कहा जाता था।
अंतिम मुजरा या यूँ कहे कि इसके बाद तवायफ की बोली का लगना और उसके बाद तवायफ फिर मुजरा करती कभी नजर नहीं आती थी।
बोली के दौरान जो भी शख्स सबसे ज्यादा कीमत देकर तवायफ खरीदता था तवायफ को अपनी पूरी जिंदगी उसके नाम कर देनी होती थी।
जिसके बाद फिर कभी भी तवायफ के लिए कोई महफिल नहीं सजती थी बल्कि वो तवायफ बोली लगाने वाले शख्स को खुश करने में अपना पूरा जीवन न्योछावर कर देती थी।
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