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Will hand over the ruined world to Future Generations! आने वाली पीढ़ियों को बर्बाद दुनिया सौंपेंगे!

India News Editor • LAST UPDATED : September 20, 2021, 1:55 pm IST
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Will hand over the ruined world to Future Generations! आने वाली पीढ़ियों को बर्बाद दुनिया सौंपेंगे!

paryavaran

ताकत की होड़ में उलझी दुनिया ने प्रकृति के खिलाफ जंग छेड़ रखी है, प्रकृति नहीं बचेगी तो हम भी नहीं बचेंगे

विजय दर्डा
चेयरमैन, एडिटोरियल बोर्ड
लोकमत समूह

vijay darda

पर्यूषण पर्व के निमित्त मैं प्रतिक्रमण कर रहा था और महसूस कर रहा था कि इसमें तो पूरा पर्यावरण समाया हुआ है। मैं जल, थल और नभ के सभी जीवों से क्षमा मांग रहा था। मनुष्य से तो क्षमा मांग ही रहा था, पेड़ों से, पक्षियों से, कीट-पतंगों से और जानवरों से भी मैं क्षमा मांग रहा था। तब मेरे भीतर यह सवाल उठ रहा था कि हम पूजा तो पंचतत्वों की करते हैं लेकिन सामान्य जीवन में क्या उसे सार्थक करते हैं?

मनुष्य ने जानते-समझते हुए भी प्रकृति के खिलाफ जंग क्यों छेड़ रखी है? प्रकृति का हर नुकसान हमारा नुकसान है, फिर क्यों हम अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं? पर्यावरण को लेकर मैं हमेशा ही चिंतन की अवस्था में रहता हूं और मुझे ये चिंता सताती है कि मनुष्य की मौजूदा पीढ़ी की लालसा पर्यावरण का भारी नुकसान कर रही है और इसका खामियाजा हम खुद तो भुगत ही रहे हैं, हमारे बच्चों को भी भुगतना पड़ रहा है। समझ में नहीं आता कि आने वाली पीढ़ियों के लिए हम कितनी बर्बाद दुनिया छोड़ेंगे। मेरे लिए पर्यावरण सबसे महत्वपूर्ण विषय है। मेरे जैसे बहुत से लोग हैं जो पर्यावरण की चिंता करते हैं लेकिन बड़ा वर्ग ऐसा है जिसे कोई फिक्र नहीं! ये दुनिया विध्वंस की तरफ बढ़ रही है।

हम सोचते भी नहीं कि निजी तौर पर भी हम कितना ज्यादा कार्बन डाईआॅक्साइड का उत्सर्जन कर रहे हैं। मैं अपने आसपास ही देखता हूं तो हैरत में पड़ जाता हूं। मेरे संस्थान में, मेरे कार्यालयों में इतने सारे लोग आते हैं। कोई कार से आ रहा है तो कोई मोटरसाइकिल से! इसमें कितना कार्बन उत्सर्जित हो रहा है! यदि यात्रा के सामुदायिक साधन मौजूद हों तो इस उत्सर्जन को कम किया जा सकता है।

एक बस में या ट्रेन में बहुत सारे लोग बैठते हैं तो प्रति व्यक्ति उत्सर्जन कम होगा लेकिन एक कार में यदि एक व्यक्ति जा रहा है तो यह नाइंसाफी है। मैं जब अपने संस्थान के प्रिंटिंग प्रेस में मशीनों के संचालन और कार्यालयों में बिजली की खपत को देखता था तो खयाल आता था कि यह बिजली कोयले से बनी है और इसमें कितना कार्बन उत्सर्जित हो रहा होगा। इस चिंता ने हमें सौर ऊर्र्जा की ओर मोड़ा और अखबार छापने के लिए हम सौर ऊर्जा का उपयोग कर रहे हैं। हां, इसके लिए हमें भारी निवेश करना पड़ा है लेकिन यह सुकून है कि हमने पर्यावरण संरक्षण की दिशा में कदम बढ़ाए हैं।
दरअसल हर व्यक्ति को चिंता करनी होगी और बहुत सारे विकल्प निजी स्तर पर अपनाने होंगे। केवल सरकार के भरोसे नहीं रह सकते। हमारे छोटे-छोटे प्रयास भी प्रभावी हो सकते हैं। मसलन खाने की बबार्दी रोकना। आंकड़े बताते हैं कि करीब 70 प्रतिशत अनाज और फलों की बबार्दी होती है। अनाज और फलों के उत्पादन के दौरान सिंचाई में जो बिजली लगती है या कीटनाशक का उत्पाद होता है उससे पर्यावरण का बहुत नुकसान होता है। यदि हम अनाज और फल को बर्बाद होने से बचा लें तो कितना लाभ होगा! पर्यावरण को लेकर संयुक्त राष्ट्र के बैनर तले कई सम्मेलन हो चुके हैं। जब जेनेवा में सम्मेलन हुआ था तो सौ से ज्यादा देश पर्यावरण बचाने के लिए सहमत हुए थे। यह संकल्प रियो डि जेनेरो और पेरिस में भी दोहराया गया। 1994 में यह तय किया गया था कि सन् 2000 तक दुनिया में कार्बन उत्सर्जन 1990 के लेवल पर ले आएंगे। इसमें विकसित देश विकासशील देशों की आर्थिक और तकनीकी मदद करेंगे।।।।लेकिन हुआ क्या? समझौते धरे के धरे रह गए! यहां तक कि 2019 में अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति ट्रम्प ने ग्लोबल वार्मिंग का पेरिस समझौता तोड़ दिया। भारत, रूस और चीन पर तोहमत लगा दिया कि ये देश कुछ नहीं कर रहे हैं और अमेरिकी धन बर्बाद हो रहा है।

जबकि हकीकत यह है कि अमेरिका तो दुनिया में कार्बन उत्सर्जन का आॅडिट करने वाले इंस्पेक्टर की नियुक्ति भी नहीं होने दे रहा है। निश्चय ही पर्यावरण का सर्वाधिक नुकसान अमेरिका ने किया है तो भुगतान भी उसे ही करना चाहिए। विकासशील देशों की मजबूरियों को भी समझना होगा। कुछ भी काम करने जाएंगे तो बहुत कुछ गलत होगा लेकिन उसकी तरफ उंगली मत उठाइए। पांच, दस, पंद्रह या बीस प्र।श। गलती होगी लेकिन 80 प्रतिशत तो अच्छी चीजें होंगी!
आज हालात बेहद चिंताजनक हैं। जंगलों का सफाया हो रहा है। नदियां सूख रही हैं, वायुमंडल दूषित हो रहा है, ओजोन परत पतली हो रही है और पहाड़ धसक रहे हैं। ढेर सारे जीव-जंतु लुप्त हो गए हैं। बीमारियां बढ़ रही हैं। सीधी सी बात है कि पर्यावरण का नाश यानी मनुष्य प्रजाति का नाश!

आज क्या हमारी कोई भी सरकारी इकाई यह कह सकती है कि वह पर्यावरण का नुकसान नहीं कर रही है? हम सभी को बेहतरी का रास्ता ढूंढ़ना होगा क्योंकि यह नाश हमने ही किया है! आपको लॉकडाउन का दौर याद होगा जब लोग घरों में बंद थे तो प्रकृति कितनी शानदार होने लगी थी। लॉकडाउन हम भले ही न लगाएं लेकिन व्यवहार तो बदलें! यह तो सोचें कि हम भविष्य की अपनी पीढ़ियों के लिए कैसी दुनिया छोड़कर जाएंगे?

मैं इस समय स्विट्जरलैंड में हूं। यहां हवा में कोई प्रदूषण नहीं है। नदियां कल-कल बह रही हैं। झीलें बिल्कुल साफ हैं। मेडिकल वेस्ट के निस्तारण की बेहतरीन व्यवस्था है। कचरा कहीं दिखाई नहीं देता। स्थानीय लोगों से मेरी बात हुई। वे कहते हैं- यह हमारी जिम्मेदारी है। काश! पूरी दुनिया में ऐसी ही सोच विकसित हो जाए! सब लोग चिंता करें, चिंतन करें कि इस दुनिया को कैसे खूबसूरत बनाएं।

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